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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् करुण जैसे शोक स्थायी भाव पर अधिष्ठित रस की प्रतीति से परम सुख होता है, इस का एकमात्र प्रमाण है सहृदयों का अनुभव। अगर करुण रस की प्रतीति से सुख के अलावा दुःख ही होता, तो उसकी ओर सहृदयों की प्रवृत्ति नहीं होती। संसार में दुःखदायक विषयों की ओर कोई भी प्रवृत्त नहीं होता। नाट्यदर्पणकार रामचंद्र गुणचंद्र ने रसों के दो प्रकार माने हैं। 1) सुखात्मक और 2) दुःखात्मक। शृंगार, हास्य, वीर, अदभुत और शांत रस सुखात्मक हैं और करुण, भयानक, बीभत्स तथा रौद्र रस दुःखदायक माने हैं। काव्य-नाटकों में केवल दुःखात्मक रस नहीं होते; श्रेष्ठ साहित्यिक सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों रसों का सम्मिश्रण अपनी कलाकृति में करते हैं। सुखात्मक रसों की पृष्ठभूमि पर, दुःखात्मक रस भी आनंददायी होते हैं। इसी कारण दुःखदायक करुण रस सुखप्रद होता है। ब्रह्मानंदसहोदर श्रुति के "रसो वै सः" इस वचन में सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा को रस रूप कहा है। यद्यपि विषयानंद, ब्रह्मानन्द और रसानंद इन तीन प्रकारों से आनंद का त्रिविध निर्देश होता है तथापि उनमें विषयानंद लौकिक होता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध जैसे प्राकृतिक विषयों की अनुकूल संवेदना से विषयानंद की अनुभूति मनुष्यमात्र को होती है। इस अनुभूति के लिये "सहृदयता" की आवश्यकता नहीं होती। रसानंद की प्रतीति काव्य-नाट्यादि कलाकृतियों के तन्मयतापूर्वक आस्वाद से सहृदय को ही होती है और ब्रह्मानंद की अनुभूति ध्यानयोग में सिद्धता प्राप्त होने पर निर्विकल्प समाधि की अवस्था में योगी को ही होती है। रसानंद का अधिकारी “सहृदय" होता है, तो ब्रह्मानंद का योगी होता है। ब्रह्मानंद का महारस कुछ और ही है। उसकी तुलना में काव्य-नाट्यादि, के आस्वाद से प्रतीत होनेवाला रसानंद गौण होने के कारण उसे "ब्रह्मास्वाद का सहोदर" या "ब्रह्मानंदसचिव" कहा है। ब्रह्मानंद या महारस की अनुभूति के लिये, अन्तःकरणस्थ समस्त वासनाओं का उच्छेद होना आवश्यक होता है, किन्तु शृंगारादि नवरसों की प्रतीति के लिए, वासनागत राजसिकता और तामसिकता का क्षय किन्तु सात्विकता का परिपोष आवश्यक होता है। संपूर्ण वासनाहीन अवस्था से सात्त्विक वासनायुक्त अवस्था गौण होने के कारण भी, रसानंद को ब्रह्मानंद का सचिव या सहोदर (भ्राता) कहना उचित ही है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में, नाटकोचित आठ रसों का प्रतिपादन किया है, किन्तु वे इन विविध रसों का मूलाधार एक "महारस' मानते हैं। शृंगारादि विविध रस इस महारस के अंश मात्र हैं। महारस का एक अवर्णनीय स्थायी भाव होता है। रजोगुण और तमोगुण से निर्मुक्त चित्त की शुद्ध सत्त्वात्मक अवस्था ही यह स्थायी भाव है। चित्त के इस शांत और आनन्दमयी अवस्था का निर्देश, अलंकारकौस्तुभकार कर्णपूर ने "आस्वादांकुर' शब्द से किया है, यह आस्वादांकुर विभावादि रूप उपाधियों के संयोग से, शृंगारादि रसों की अवस्था में पल्लवित और पुष्पित होता है। संसार में एकता में अनेकता की प्रतीति उपाधियों के कारण ही होती है। वस्तुतः एकमेवाद्वितीय आनंद में शृंगारवीरादि अनेकविध आनंदों की प्रतीति विभावादि उपाधियों के कारण ही होती है। (आगामी नाट्य वाङ्मय विषयक प्रकरण में नाट्यशास्त्र की चर्चा में नाट्यदृष्ट्या रस का विवेचन किया है।) 272/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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