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उपरिनिर्दिष्ट ( रति-हास आदि) स्थायी भावों का उद्दीपन, काव्यगत विभाव, अनुभाव, व्याभिचारि भावों के संयोग से होकर शृंगार (विप्रलंभ एवं शृंगार) हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत, शांत, वात्सल्य और भक्ति नामक रसों की निष्पत्ति सहृदय काव्यास्वादक के हृदय में होती है। अभिनवगुप्ताचार्य ने अपने ध्वन्यालोकलोचन नामक टीका ग्रंथ में रसनिष्पत्ति के संबंध में, भट्ट लोल्लट, भट्टनायक और भट्ट शंकुक, इन आचार्यों के मतों का परिचय देते हुए अपने मत का प्रतिपादन किया है । मम्मटाचार्य ने अपने काव्यप्रकाश में इस चर्चा का संक्षेप देते हुए, अभिनवगुप्ताचार्य के अभिव्यक्तिवाद का समर्थन किया है।
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भट्ट लोल्लट के मतानुसार विभाव, अनुभाव और व्याभिचारि भावों का पात्रगत स्थायी भाव से संयोग होकर (राम-सीता आदि पात्रगत) स्थायी भाव उबुद्ध और परिपुष्ट होते हैं। यह परिपुष्ट स्थायी भाव ही रस कहलाता है। रस वस्तुतः राम-सीता दुष्यन्त शकुन्तला आदि अनुकार्य पात्रों में होता है, किन्तु नटों के कौशल्यपूर्ण अनुसंधान के कारण उसकी प्रतीति नट में ही होती है।
शंकुक के मतानुसार विभाव- अनुभाव आदि लिंगों या साधनों द्वारा नटगत स्थायी भाव का दर्शक को अनुमान होता है । नट को, अनुकार्य रामादि से अभिन्न मानते हुए उस अनुमित स्थायी भाव का आस्वाद सहृदय द्वारा लिया जाता है। "चित्र - तुरग न्याय" (अर्थात् मिट्टी या लकड़ी के घोडे को बालक सच्चा घोडा मानता है) से कौशल्यपूर्ण अभिनय के कारण, नट में रामादि पात्रगत स्थायी का आभास होता है। यही मिथ्या ज्ञान रूप आभास, रस कहलाया जाता है। इस मत के अनुसार रस पात्रों में नहीं, अपितु नहीं में होता है।
अभिनवगुप्त के मतानुसार, विभावादि का अनुभव पाते हुए, विभावनीय और अनुभावनीय चित्तवृत्ति में उद्बोधित वासनारूप स्थायी की चर्वणा ही रस है। इस मत के अनुसार रस का आधार, पात्र या नट दोनों नहीं अपि तु नाट्य काव्यादि के सहृदय आस्वादकों का अन्तःकरण होता है।
भट्टनायक के मतानुसार रस की “निष्पत्ति", याने उसकी उत्पत्ति, अनुमिति या प्रतीति नहीं, अपि तु "भोज्य-भोजक संबध" के कारण, रसिक द्वारा होने वाली भुक्ति है। भरत के रससूत्र में प्रयुक्त "निष्पत्ति" शब्द का अर्थ न्याय, सांख्य, वेदान्त जैसे पारमार्थिक दर्शनों के अनुसार निर्धारित करने के प्रयत्न से, साहित्यशास्त्रियों में इस प्रकार मतभेद उत्पन्न हुए। विद्वत्समाज में सामान्यतः अभिनव-गुप्ताचार्य का मत ग्राह्य माना जाता है। भट्नायक ने रसनिष्पत्ति की प्रक्रिया में विभावादि सामग्री के “साधारणीकरण” की अवस्था प्रतिपादन की है। तदनुसार साहित्यिक कलाकृति का आस्वाद लेते समय, विभावादि का विशिष्ट व्यक्ति, देश, काल आदि से संबंध छूट कर वे सार्वदेशिक और सार्वकालिक स्वरूप ग्रहण करते हैं, जिसके कारण काव्यनाट्यादि कलाकृति और उसके आस्वादक में भौज्य-भोजक भाव संबंध निर्माण होता है, और उन्हें रस की निर्विघ्न प्रतीति होती है। भट्नायक की यह साधारणीकरण की प्रक्रिया अभिनव गुप्ताचार्य ने भी ग्राह्य मानी है।
काव्यनाट्यादि द्वारा यथोचित मात्रा में रसनिष्पत्ति होने के लिये, कवि तथा कलाकारों को अत्यंत सतर्क रहना पड़ता है। इस सतकर्ता में कुछ त्रुटि रहने पर रसनिष्पत्ति में विघ्न निर्माण होते हैं। किसी कलाकृति में कवि द्वारा औचित्य का पालन नहीं हुआ, या दर्शकों द्वारा कलाकृति का योग्य आकलन नहीं हुआ तो रसनिष्पत्ति नहीं होती । "अनौचित्य" रसभंग का प्रमुख कारण माना जाता है (अनौचित्यादृते नान्यत् रसभंगस्य कारणम्) यह औचित्यवादियों का मत सर्वमान्य है। नाट्यप्रयोग में रसविन तथा अन्य विघ्नों का निवारण करने हेतु भरत ने “पूर्वरंग" का विधान किया है। काव्य - नाटकों का आस्वादक अपने निजी सुख दुःख के कारण व्यस्तचित्त होगा, तो उसे ठीक रसास्वाद मिलना संभव नहीं होता । रसिक दर्शकों को निजी सुख दुःखों से मुक्त करने के हेतु नाट्यप्रयोग में गीत एवं नृत्य का विधान भरत ने किया है।
भरताचार्य ने नाट्य की दृष्टि से शृंगार, वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, भयानक, बीभत्स और रौद्र आठ ही रस माने हैं। उद्भट ने नौवा शांत रस माना है। इनके अतिरिक्त भक्ति का रसत्व मधुसूदन सरस्वती, रूपगोस्वामी जैसे वैष्णव विद्वानों ने एक ही रस वास्तव मानते हुए, अन्य रसों को गौणत्व दिया है, जैसे भोज ने अहंकार ही एक मात्र रस कहा है। अन्य रसों को उन्होंने भाव माना है। भवभूति "एको रसः करुण एव" कहते हैं, अन्य रसों को जलाशय के आवर्त, तरंग, बुबुदों के समान विवर्त मात्र मानते है। अग्निपुराणने शृंगार को मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति को, नारायण ने अद्भुत को ही प्रमुख रस माना है।
"शृंगाराद् हि भवेत् हासो रौद्राच्च करुणो रसः । वीराच्चैवाद्भुतोत्पत्तिः बीभत्साच्च भयानकः । ।
इस कारिका में शृंगार, रौद्र, वीर और बीभत्स को 'जनक' और हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक को उनके 'जन्य' रस माना है। आधुनिक काव्यों में भक्ति ने देशभक्ति का स्वरूप ग्रहण किया है और कुछ विद्वान देशभक्ति रस को देवभक्ति से पृथगात्म मानते है । साहित्य शास्त्रकारों ने सभी रसों को सुखकारक या आनंददायक माना है। किन्तु शोक स्थायी भाव के उद्दीपन से प्रतीत होनेवाला करुण रस इस विषय में विवाद का विषय हुआ है। जिन्होंने करुण को दुःखरूप माना है, उनका खंडन करते हुए कहा गया है, , कि :"करुणादावपि रसे जायते यत् परं सुखम् सचेतसामनुभवः प्रमाणं रात्र केवलम्।।"
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 211
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