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प्रकरण - 11 "नाट्यवाङ्मय" 1 नाटकों का प्रारंभ
संस्कृत साहित्यशास्त्रकारों ने काव्य के दो प्रकार माने हैं। 1) श्राव्य और 2) दृश्य। नाट्यवाङ्मय का अन्तर्भाव दृश्य अथवा दृश्य श्राव्यकाव्य में होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार नाट्यों का उदगम् अन्य सभी विद्याओं के समान, वेदों से माना जाता है। ऋग्वेद में कुछ नाट्यानुकूल मनोरम संवाद मिलते हैं, जैसे 1) सरमापणि, 2) यम-यमी, 3) विश्वामित्र-नदी, 4) अग्नि-देव और 5) पुरुरवा ऊर्वशी। इन संवादों का गायन या पठन अभिनय सहित होने पर नाट्यदर्शन का अनुभव हो सकता है। दशम मंडल के 119 वें सूक्त में सोमयाग से प्रमत्त इन्द्रदेव का भाषण "स्वगत' या आकाशभाषित" सा प्रतीत होता है। आठवे मंडल के 33 वें सूक्त में, प्लायोगी नामक स्त्रीवेषधारी पुरुष को इन्द्र द्वारा दिए हुए आदेशों में नाटकीयता का प्रत्यय आता है।
यजुर्वेद के रुद्राध्याय में और अथर्ववेद के खिलसूक्त (नवम कांड 134 वां सूक्त) में कुमारी और ब्रह्मचारी के संवाद में नाट्यात्मकता पर्याप्त मात्रा में दिखाई देती है।
वैदिकों की यज्ञविधि में नाटकों का मूल देखने वाले विद्वान, सोमयाग का सोमक्रय और महाव्रत यज्ञ में चलने वाले नट-नटी के नृत्य गीत तथा वाद्यों की ओर संकेत करते हैं। उपनिषदों के कुछ संवादों पर आधारित छोटे छोटे संस्कृत नाट्यप्रवेश कर्नाटक के एक विद्वान डॉ. पांडुरंगी ने हाल ही में प्रकाशित किए हैं।
वेदोत्तरकालीन वाल्मीकि रामायण (1-18-18) में और महाभारत (वन पर्व 15-14, शांतिपर्व 69, 51, 60) में पौराणिक एवं ऐतिहासिक उपाख्यान के अर्थ में "नाटक" शब्द का प्रयोग हुआ है। उन आख्यान-उपाख्यानों का साभिनय गायन, नाटक का आभास कर सकता है। हरिवंश के विष्णुपर्व में एक उल्लेख आता है, जिस में प्रद्युम्न, सांब और गद इन तीन यदुपुत्रों द्वारा प्रयुक्त रंभा नलकूबर की कथा के नाट्यप्रयोग का उल्लेख आता है। हरिवंश में दूसरा उल्लेख मिलता है कि वज्रणाभ दैत्य का दमन करने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने पुत्रों को नियुक्त किया था। अपने प्रयाण के समय उन्होंने एक रामायणीय घटना पर आधारित नाट्यप्रयोग किया था।
नाटकों के अस्तित्व का प्राचीन निर्देश पाणिनि (ई. पू. 6 शती) की अष्टाध्यायी में "पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः" और “कर्मन्दकृशाश्वादिनि" इन सूत्रों में मिलता है। तद्नुसार शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्र नामक ग्रन्थों के अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। इन नटसूत्रों में भरतनाट्यशास्त्र के समान नाटकों से संबंधित नियम रहे होंगे। ऐसे नियम लक्ष्यभूत नाट्यवाङ्मय के अभाव में होना असंभव है। लक्ष्य ग्रंथों के अभाव में लक्षण ग्रंथ कभी भी नहीं हो सकते। काशिकावृत्ति के अनुसार, नाट्यग्रंथों की प्राचीन काल में आम्नाय जैसी प्रतिष्ठा थी। भरतनाट्यशास्त्र, नटों को शैलातिक कहता है; तो पाणिनि उन्हें शैलालिन् कहते हैं।
पतंजलि के महाभाष्य में “ये तावद् एते शोभनिका नाम एते प्रत्यक्षं कसं घातयन्ति, प्रत्यक्षं बलिं बन्धयन्ति" इस प्रकार के वाक्य आते हैं जिनसे तत्कालीन नाट्यप्रयोग का अनुमान हो सकता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र (ई. पू. 4 थी शती) में गुप्तचरों में नट-नर्तकों का उल्लेख किया है। नाट्यशाला और कलाकारों का प्रशिक्षण भी वहां निर्दिष्ट है।
प्राचीन बौद्ध और जैन वाङ्मय में भी नाटकों के धार्मिक महत्त्व का परिचय मिलता है। बौद्ध सूत्रों में भिक्षुओं के लिए, विसुकदस्सन, नच्च, पेक्खा आदि अज्ञात स्वरूप वाले दृश्य देखने का निषेध किया गया है। परंतु कालान्तर में यह भाव बदल गया होगा, क्यों कि आज उपलब्ध प्राचीनतम नाटक (सारिपुत्त प्रकरण) अश्वघोष कृत बौद्ध वाङ्मय के अन्तर्गत है। ललितविस्तर में भगवान बुद्ध को नाट्यकला का भी ज्ञाता बताया गया है। बुद्ध के समकालीन बिंबिसारने एक नाटक का अभिनय कराया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। अवदानशतक के अनुसार नाट्यकला बहुत प्राचीन है। सद्धर्मपुण्डरीक पर बौद्ध नाटकों का ही प्रभाव लक्षित होता है।
जैनों ने भी नाट्य, सदृश्य विहारों के निषेध के साथ साथ गीत, वाद्य और नृत्य के अभिनय को मान्यता दी है। अपने धर्म के प्रचार के लिए जैनियों ने भी नाटकों का आश्रय लिया है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /213
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