SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10) संलापक : नायक पाखंडी। संग्राम छल, भ्रम के दृश्य आवश्यक। अंक 3 या 4। रस-शृंगार और करुण। वृत्तियां कैशिकी और भारती। 11) श्रीगदित : कथावस्तु और नायक प्रख्यात चाहिए। भाषा संस्कृत। अर्थात् भारती वृत्ति। अंक 1। 12) शिल्पक : नायक ब्राह्मण । उपनायक हीन । अंक ४ । वृत्तियाँ 41 आठो रसों का उद्रेक । श्मशानादि के वर्णन आवश्यक। 13) विलासिका : नायक अधम प्रकृति। अंक 1। शृंगारप्रचुर। दस लास्यांग आवश्यक। 14) दुर्मल्लिका : इसमें 4 अंकों में क्रमशः विट, विदूषक, पीठमर्द और अंत में नायक इस प्रकार क्रीडा दिखाई जाती है। कथावस्तु उत्पाद्य (अर्थात् काल्पनिक) जिसमें नायक नीच प्रकृति का होता है। वृत्ति कैशिकी। 15) प्रकरणिका : यह प्रकरण नामक प्रमुख रूपक का उपरूपक माना जाता है। कथावस्तु उत्पाद्य। नायक नायिका - वणिक् वर्ग के होते हैं। अन्य स्वरूप नाटिका से समान होते हैं। 16) हल्लीश : अंक 1 (शारदातनय के मतानुसार अंकसंख्या 2) धीर ललित अवस्था वाले पाँच छः दक्षिण पुरुष और स्त्रीपात्र आठ चाहिए। नायक उदात्त प्रकृति वाला। 17) भाणिका : यह भाण का उपरूपक माना गया है। अंक 1 । नायिका उदात्त, नायक नीच प्रकृति । वृत्तियाँ भारती और कैशिकी। __ भरत ने इन दस रूपकों एवं सत्रह उपरूपकों का प्रयोजन, हितोपदेश और क्रीडा-सुख कहा है। (हितोपदेशजननं वृतिक्रीडासुखादिकृत्) नाट्यशास्त्र 1-193) अभिनवगुप्त के मतानुसार इस रूपक वाङ्मय का कार्य गुडमिश्रित कटु औषधि के समान होता है, जिससे श्रान्त लोगों का चित्तविक्षेप या मनोरंजन होता है। (गुडच्छन्न-कटुकोषधकल्पं चित्तविक्षेपमात्रफलम्।) रसों के अनुसार रूपकों का वर्गीकरण (1) शृंगार प्रधान - नाटक, प्रकरण, (वीररस गौण) वीथी और ईहामृग। वीररसप्रधान-समवकार, व्यायोग और डिम (रौद्रसहित)। हास्यरसप्रधान - प्रहसन। करुणप्रधान- उत्सृष्टिकांक। नाटक में जब शृंगाररस प्रधान होता है, तब वीर गौण, और जब वीररस प्रधान होता है, तब शृंगार गौण होता है। ईसा पूर्व काल में प्राचीन भारत में छायानाटक नामक नाट्यप्रकार प्रचलित था। महाभारत और थेरीगाथा में छायानाटक के उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में रूपोपजीवनम् शब्द आता है, जिसके स्पष्टीकरण में टीकाकार नीलकण्ठ ने "छायानाटक" का वर्णन दिया है। तदनुसार दीपक और पदों के बीच में स्थापित काष्ठ-मूर्तियों के अवयवों को सूत्र से चलित कर पर्दे पर छाया के रूप में पौराणिक घटनाओं के दृश्य दिखाए जाते थे। एक मत ऐसा है कि, भारत से ही यह नाट्य कला जावा, बाली, सुमात्रा, आदि पूर्व एशिया के प्रदेशों में प्रसृत हुई। यह कला आज भी उन देशों में जीवित है, जब कि भारत में उसका लोप हो चुका है। सुभट कवि कृत दूतांगद नामक छायानाटक का प्रयोग सन् 1243 में चालुक्य राजा त्रिभुवनपाल के निमंत्रणानुसार, कुमारपालदेव के सम्मानार्थ अनहिलवाड पट्टण (गुजरात) में हुआ था ऐसा उल्लेख मिलता है। 4 वस्तुशोधन बहुसंख्य संस्कृत रूपकों की वस्तु या कथा प्रायः रामायण महाभारत और गुणाढ्य की बृहत्कथा से ली गई है। दशरूपककार ने मूल कथा को रूपकोचित करने के लिए "वस्तुशोधन" के कुछ नियम बताए हैं। तदनुसार मूल कथा में नायक का व्यक्तित्व और रसयोजना इनकी और ध्यान देते हुए, मूल कथा में जो अनुचित या रस के विरुद्ध भाग होगा, उसका त्याग करना चाहिये, अथवा किसी अन्य रीति से उसकी योजना करनी चाहिए। जो मूल कथांश नीरस और अनुचित होगा उसे अर्थोपक्षेपकों के द्वारा सूचित करना चाहिये। परंतु जो कथांश मधुर, उदात्त और रसभावयुक्त हो, उसे रंगमंच पर अवश्य दिखाया जाना चाहिये। यत् तत्रानुचितं किंचिद् नायकस्य रसस्य वा। विरुद्धं तत् परित्याज्यम् अन्यथा वा प्रकल्पयेत्।। (द.रू. 3-24) नीरसोऽनुचितस्तत्र संसूच्यो वस्तुविस्तरः । दृश्यस्तु मधुरोदात्त-रसभाव-निरंतरः ।। (द.रू. 1-57) अर्थोपक्षेपक नीरस और नाट्यप्रयोग की दृष्टि से अनुचित कथाभाग को जिन पांच प्रकारों से सूचित किया जाता है, उन्हें "अर्थोपक्षेपक" कहते हैं। उसके पांच प्रकारों के नाम हैं - (1) विष्कम्भ (या विष्कम्भक), (2) चूलिका, (3) अंकास्य (या अंकमुख) (4) अंकावतार और (5) प्रवेशक। प्रायः सभी नाटकों में इन में से कुछ प्रकार दिखाई देते हैं। ___ अनौचित्य टालने की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी गई है कि नायक अगर दिव्य प्रकृति राजा हो तो उसका प्रेम-प्रसंग साधारण स्त्री (अर्थात् गणिका) के साथ चित्रित नहीं करना चाहिये। उसी प्रकार शंगार रस के वर्णन में नायिका "अन्योढा" (याने दूसरे से विवाहित स्त्री) नहीं होनी चाहिये। सभी रूपकों की (विशेषतः नाटक और प्रकरण की) कथा के दो विभाग करने चाहिये जिस में नीरस अंश सूच्य होगा और बाकी सरस अंश दृश्य पंचसंधियों में विभाजित होना चाहिए। 218 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy