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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाट्यशास्त्र के अनुसार रूपक की कथावस्तु का विभाजन पांच संधियों में करना इष्ट माना है। इन पांच संधियों के क्रमशः नाम हैं:- (1) मुख (2) प्रतिमुख (3) गर्भ (4) अवमर्श और (5) निर्वहण ! इन पांच सन्धियों की निर्मिति, पाच अथप्रकृतियों और पांच कार्यावस्थाओं के यथाक्रम समन्वय से होती है। पांच अर्थप्रकृतियां :- (1) बीज (2) बिन्दु (3) पताका, (4) प्रकरी और (5) कार्य पांच कार्यावस्थाएं :- (1) आरंभ (2) यत्न (3) प्रप्त्याशा (4) नियताप्ति और (5) फलागम । पांच सन्धियों के कुल मिलाकर 64 अंग होते हैं जिनका नाटक रचना में छ: प्रकारों से प्रयोजन होता है। इष्टस्यार्थस्य रचना, गौप्यगुप्तिः प्रकाशनम्। रागः प्रयोगस्याश्चर्य वृत्तान्तस्यानुपक्षयः।। (द.रु. 1-55)। इस कारिका में वे छः प्रयोजन बताये गये हैं। शाकुन्तल, उत्तररामचरित, वेणीसंहार इत्यादि श्रेष्ठ नाटकों को टीकाकारों ने, उन नाटकों के कथाविकास की चर्चा में इन सन्धियों के 64 अंगों का यथास्थान निर्देश किया है। नाटक, प्रकरण के अतिरिक्त गौण रूपकप्रकारों में पांचों सन्धिस्थान नहीं होते। अंक रूपकों का सर्वश्रेष्ठ घटकावयव होता है अंक। इसमें नायक का चरित्र प्रत्यक्ष रूप से दिखाया जाता है और बिन्दु नामक अर्थप्रकृति व्यापक स्वरूप में पायी जाती है। वह नाना प्रकार के नाटकीय प्रयोजन के संपादन का तथा रस का आश्रय होता है। (प्रत्यक्षनेतृचरितो बिन्दुव्याप्तिपुरस्कृतः । अंको नानाप्रकारार्थ-संविधानरसाश्रयः ।। (द.रू. 3-30) अंक का मुख्य उद्देश्य होता है दृश्य वस्तु का चित्रण। अंक में वस्तु की योजना ऐसी हो कि जिसमें, केवल एक दिन की ही घटना हो और वह भी “एकार्थ" याने एक ही प्रयोजन से संबद्ध हो। उसमें नायक तीन या चार पात्रों के साथ रहे और नायक सहित सारे पात्रों के निर्गमन के साथ अंक की समाप्ति हो। एकाहचरितैकार्थम् इत्थमासन्ननायकम्। पात्रैस्त्रिचतुरैः कुर्यात् तेषामन्तेऽस्य निर्गमः ।। (द.रू. 3-36) वस्तुशोधन की दृष्टि से किसी भी अंक में दीर्घ प्रवास, वध, युद्ध, राज्यक्रान्ति, नगरी को घेरा डालना, भोजन, स्नान, संभोग, उबटन लगाना, वस्त्रधारण करना इत्यादि प्रकार के दृश्य किसी भी अंक में मंच पर नहीं बताना चाहिये। विष्कम्भक, चूलिका इत्यादि अर्थोपक्षेपकों में उनकी सूचना की जा सकती है। रूपक के विविध प्रकारों में, अंकों की संख्या शास्त्रकारों ने निर्धारित की है, जिसका निर्देश प्रस्तुत अध्याय में रूपक प्रकारों के विभाजन के समय प्रारंभ में किया गया है। पूर्वरंग नाटक का प्रारंभ "पूर्वरंग" के विधान से होता है। पूर्वरंग का अर्थ है नाट्यशाला में प्रयोग के प्रारंभ में करने योग्य मंगलाचरण, देवतास्तवन आदि धार्मिक विधि। इस पूर्वरंग का विधान सूत्रधार द्वारा किया जाता है। रंगदेवता की पूजा करनेवाले को ही सूत्रधार कहते हैं। (रंगदैवत्पूजाकृत सूत्रधार इतीरितः।) सूत्रधार के लौट जाने पर, उसी तरह के वैष्णव वेश में आकर जो दूसरा नट कथावस्तु के काव्यार्थ की स्थापना करता है उसे “स्थापक" (काव्यार्थस्थापनात् स्थापकः) कहते हैं। यह स्थापक, प्रयोग की कथावस्तु के अनुरूप दिव्य, अदिव्य (मर्त्य) अथवा दिव्यादिव्य रूप में मंच पर आकर, काव्यार्थ की स्थापना करते समय, रूपक की कथावस्तु, उसके बीज (अर्थप्रकृति) मुख या प्रमुख पात्र की सूचना देता है। (सूचयेद् वस्तु बीजं वा मुखं पात्रमथापि वा (द.रू. 3-3)। इस प्रकार वस्तुबीजादि की स्थापना और मधुर श्लोकगायन से रंगप्रसादन करना यही स्थापक के प्रवेश का प्रयोजन माना गया है। नाट्य प्रयोग के प्रारंभ में संभाव्य विनों का परिहार, देवताओं की कृपा का संपादन और काव्यार्थसूचक के निमित्त, आशीर्वचनयुक्त "नान्दी" गाई जाती है। अनेक नाटकों में सूत्रधार ही नान्दीगायन या मंगलाचरण करता है। तो कई नाटकों में नान्दीगायन पर्दे में होने के बाद सूत्रधार प्रवेश करता है। इस के बाद सामाजिकों का ध्यान, प्रयोग की और आकृष्ट करने के लिए "प्ररोचना" (उन्मुखीकरणं तत्र प्रशंसातः प्ररोचना) अर्थात् नाटक की प्रशंसा, नट द्वारा की जाती है। प्रस्तावना (या जिसे आमुख भी कहते है) के कथोद्घात्, प्रवृत्तक और प्रयोगातिशय नामक तीन अंग होते हैं। सूत्रधार इस प्रस्तावना में नटी, विदूषक या पारिपार्श्वक के साथ वार्तालाप करते हुए विचित्र उक्ति द्वारा प्रस्तुत वस्तु की और संकेत करता है। इस आमुख का स्वरूप, वीथी अथवा प्रहसन नामक रूपक के समान होता है। विधी में एक दो पात्रों द्वारा शृंगारिक भाषण होता है और प्रहसन में एक विट आकाशभाषित द्वारा हास्यरसयुक्त भाषण करता है। इसी कारण प्ररोचना, वीथी, प्रहसन और आमुख ये चार प्रकार के "काव्यार्थसूचक" माने जाते हैं। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 210 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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