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5 नाट्यपात्र
नाट्यशास्त्र में विविध पात्रों के प्रकार तथा उनके गुणावगुण का विवेचन किया गया है। उन में मुख्य पुरुष पात्र को नायक और स्त्री पात्र को नायिका कहते हैं । दशरूपक में नायक की विनम्रता, मधुरता, त्याग, प्रिय भाषण इत्यादि 22 गुणों का उदाहरणों सहित परिचय दिया है। ये सारे गुण इतने स्पृहणीय और प्रशंसनीय हैं कि उन से सम्पन्न पुरुष अथवा स्त्री मानव का आदर्श माने जा सकते है।
कथाचित्रण तथा रसोद्रेक की दृष्टि से नायक के चार प्रकार माने जाते हैं। शास्त्रोक्त सामान्य 22 गुणों के अतिरिक्त, जब नायक सात्त्विक (अर्थात् क्रोध, शोक आदि विकारों से अभिभूत न होने वाला), अत्यंत गंभीर, क्षमाशील, आत्मश्लाघा न करने वाला अचंचल मन वाला, अहंकार व स्वाभिमान को व्यक्त न करनेवाला, और दृढव्रत अर्थात् ध्येयनिष्ठ हो, तब उसे “धीरोदात्त" नायक कहते हैं। श्रीरामचंद्र " धीरोदात्त" नायक के परमश्रेष्ठ आदर्श है। रामायण की कथाओं पर आधारित सभी उत्कृष्ट नाटकों में संस्कृत नाट्यशास्त्र का यह परम आदर्श व्यक्तित्व प्रतिभासंपन्न नाटककारों ने चित्रित किया है।
इसके विपरीत जब नायक दर्प (घमण्ड ) और ईर्ष्या (मत्सर) से भरा हुआ, माया और कपट से युक्त, अहंकारी, चंचल, क्रोधी और आत्मश्लाघी होता है तब उसे " धीरोध्दत" कहते है। रावण धीरोद्धत नायक का उदाहरण है ।
जो सर्वथा निश्चिन्त, गीत-नृत्यादि ललित कलाओं में आसक्त, कोमल स्वभावी और सुखासीन रहता है, उसे "धीरललित' नायक कहते हैं। ऐसे नायक का सारा लौकिक व्यवहार, उसके मन्त्री आदि सहायक करते हैं। वत्सराज उदयन इसका उदाहरण है ।
नायक के सामान्य गुणों से युक्त ब्राह्मण, वैश्य, या मन्त्रिपुत्र को “धीरशान्त" नायक कहा है। मालतीमाधव प्रकरण का माधव और मृच्छकटिक प्रकरण का चारुदत्त धीरशान्त कोटी के नायक हैं।
वीर-शृंगार प्रधान नाटकों में धीरोदात्त; रौद्र-वीर भयानक की प्रधानता में धीरोद्धत; और शृंगार- हास्य की प्रधानता होने पर धीरललित नायक का रूपकों में प्राधान्य होता है। शृंगार प्रधान प्रकरणों में धीरशान्त नायक का महत्त्व होता है ।
मध्यपात्र
रूपकों में भूत और भावी वृत्तान्त का कथन अथवा शेष घटनाओं की सूचना देने के लिए अंकों के अतिरिक्त विष्कम्भक और प्रवेशक अंकों के बीच बीच में प्रयुक्त होते हैं। उन में कथा से संबंधित पात्रों के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष पात्र होते हैं, जिन्हें "मध्यपात्र" कहते हैं। विष्कम्भक के मध्यपात्र सामान्य श्रेणी के और प्रवेशक के नीच श्रेणी के होते हैं। नायक के परिच्छद (अर्थात् परिवार) में पीठमर्द (अथवा "पताकानायक") विट, विदूषक और प्रतिनायक रहते हैं प्रतिनायक मुख्य नायक का द्रोह करता है। उसी को खलनायक कहते हैं। यह खलनायक धीरोद्धत, पापी और व्यसनी होता है। इनके अतिरिक्त नायक के राजा होने पर उसके मंत्री, न्यायाधीश, सेनापति, पुरोहित, प्रतिहारी, वैतालिक (स्तुतिपाठक) इत्यादि पुरुष पात्र आवश्यकता के अनुसार रूपकों में रहते हैं। प्रणयप्रधान नाटकों में नायक के "नर्मसचिव" अथवा मित्र का दायित्व विदूषक निभाता है।
" वामनो दन्तुरः कुब्जो द्विजन्मा विकृताननः । खलतिः पिंगलाक्षश्च संविधेयो विदूषकः । (ना.शा. 24-106) विदूषक के समान नायक के प्रियाराधन में सहाय करनेवाला "विट", कर्मकुशल, वादपटु, मधुरभाषी और व्यवस्थित वेशधारी होता है। इनके अतिरिक्त विदूषक के समान विनोदकारी परंतु दुष्ट प्रवृत्ति वाला "शकार" मृच्छकटिक में आता है विद्वानों का अनुमान है कि शकार एक शक जातीय व्यक्ति होता था । श-कारयुक्त भाषा बोलनेवाले शक लोग, अपनी बहनों को राजाओं के अन्तःपुर में प्रविष्ट कर, अधिकारपद प्राप्त करते होंगे। ऐसे लोगों के कारण प्रणयप्रधान प्रकरणों में "शकार” का पात्र आया होगा। राजा के अन्तःपुर में रहने वाले वर्षवर (हिजडा), कंचुकी, वामन (बौना), किरात, कुब्ज इस ढंग के नीच पात्र नाटकों में आवश्यक माने हैं।
नाटकों में वर्णित रामादि पात्र, धीरोदात्त, धीरललित आदि अवस्था के प्रतिपादक होते हैं। कवि अपने पात्रों का वर्णन ठीक उसी तरह नहीं करते जैसा पुराणेतिहास में होता है । कवि तो लौकिक आधार पर ही उनका चित्रण करते हैं। अपनी कल्पना के अनुसार अपने पात्रों में धीरोदात्तादि अवस्थाओं को चित्रित करते हैं। ये पात्र अपनी अभिनयात्मक अवस्थानुकृति द्वारा सामाजिकों में रति, हास, शोक, इत्यादि स्थायी भावों को विभावित करते हैं। याने सामाजिकों के रत्यादि स्थायी भाव की प्रतीति में कारणीभूत होते हैं। इसी लिए रसशास्त्र की परिभाषा में उन्हें "आलंबन विभाव" कहते हैं। पात्रों के कारण विभावित हुए रत्यादि स्थायी भाव ही रसिक सामाजिकों द्वारा आस्वादित होते हैं।
जिस प्रकार मिट्टी से बने हुए हाथी घोडे आदि खिलौनों से खेलते हुए, बच्चे उन्हें सच्चे प्राणी समझ कर उनसे आनंद प्राप्त करते हैं, उसी तरह काव्य के सहृदय श्रोता या नाटक के प्रेक्षकगण भी राम सीता आदि पात्रों में उत्साह, रति आदि भाव देख कर स्वयं उसका अनुभव करते हैं ।
220 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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