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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नायकव्यापार नायकव्यापार का अर्थ है नायक का वह स्वभाव, जो उसे किसी विशेष कार्य में प्रवृत्त करता है। इसे ही शास्त्रीय परिभाषा में कहते हैं “वृत्ति"। ये वृत्तियां, (1) कैशिकी (2) सात्वती, (3) आरभटी और (4) भारती नामक चार प्रकार की होती हैं। नायक जब गीत, नृत्य, विलास आदि शृंगारमय चेष्टाओं में रममाण होता है, तब उसके कोमल व्यापार को कैशिकी वृत्ति कहते हैं। इसका फल है काम पुरुषार्थ। कैशिकी वृत्ति के चार अंग हैं - (1) नर्म (2) नर्मस्फिंज, (3) नर्मस्फोट तथा (4) नर्मगर्भ। इन सभी नर्म प्रकारों में नायक की नायिका के साथ जो शृंगारलीला होती है उनका अन्तर्भाव होता है। इस शृंगारमय व्यापार में हास्य का समावेश रहता है। नाटक में हास्ययुक्त शृंगार रस की अभिव्यक्ति करना यही कैशिकी वृत्ति का प्रयोजन होता है। धीरललित नायक के चरित्रचित्रण में इसी वृत्ति का प्राधान्य रहता है। जहां नायक का व्यापार, शोकरहित और सत्त्व शौर्य, दया, कोमलता जैसे उदात्त भावों से परिपूर्ण होता है, वहां उसे "सात्वती वृत्ति" कहते हैं। इस गंभीर वृत्ति में (1) संलापक, (2) उत्थापक, (3) सांघात्य और (4) परिवर्तक नामक चार अंग होते हैं। धीरोदात्त प्रकृति के नायक का, प्रतिनायक के साथ जब संघर्ष होता है, तब सात्त्वती वृत्ति के अंगों का प्रयोग नाटक में होता है। जहां माया (अर्थात् अवास्तव वस्तु को मन्त्रबल से प्रकाशित करना), इन्द्रजाल (वही कार्य तान्त्रिक प्रयोगों से करना) संग्राम, क्रोध, उद्धांत आदि चेष्टाएं पायी जाती हैं, वहां "आरभटी" नामक वृत्ति होती है। इसके भी (1) संक्षिप्तिका (2) संफेट (3) वस्तूत्थापन और (४) अवपात नामक चार अंग माने हैं। धीरोद्धत प्रकृति के नायक के चरित्रचित्रण में आरभटी वृत्ति दिखाई देती है। इन तीनों वृत्तियों को "अर्थवृत्तियां" माना गया है, क्यों कि इनमें अर्थरूप रस का संनिवेश होता है। चौथी भारती नामक वृत्ति "शब्दवृत्ति" होने के कारण संभाषणात्मक रहती है। इस वृत्ति का नाटक के “पूर्वरंग" में पुरुष पात्रों द्वारा प्रयोग होता है। नाटक के प्रारंभ में प्ररोचना, आमुख, वीथी और प्रहसन ये चार प्रसंग भारती वृत्ति के अंग माने जाते हैं। वृत्ति का संबंध नायक के रसपरक व्यापार से होता है, अतः शास्त्रकारों ने नियम बताया है कि : "शृंगारे कैशिकी, वीरे सात्त्वत्यारभटी पुनः। रसे रौद्रे च बीभत्से, वृत्तिः सर्वत्र भारती ।। (द.रू. 2-62) अर्थात् शृंगारप्रधान रूपक में कैशिकी, वीरप्रधान में सात्वती, रौद्र एवं बीभत्स प्रधान दृश्यों में आरभटी वृत्ति का चित्रण होना चाहिये। भारती, शब्दप्रधान वृत्ति होने के कारण उसका प्रयोग सभी रसों में आवश्यक माना गया है। शृंगार, रौद्र वीर, और बीभत्स ये चार अनुकार्यगत रस होते हैं। अभिनय कुशल नट अपनी भूमिका से तन्मय होकर उनका आविर्भाव करते हैं, तब सामाजिकों के अंतःकरण में उन प्रधान रसों के "सहकारी" हास्य, करुण, अद्भुत और भयानक इन चार रसों का यथाक्रम उद्रेक होता है। इसी लिए कहा है कि : शृंगाराद् हि भवेद् हासः, रौद्राच्च करुणो रसः। वीराच्चैवाद्भुतोत्पत्तिः, बीभत्साच्च भयानकः । नाट्यप्रवृत्तियां नायक की वृत्तियों के समान नाटकीय पात्रों की "प्रवृत्तिया" होती हैं। ये प्रवृत्तियां दो प्रकार की होती हैं- (1) भाषाप्रवृत्ति और (2) आमन्त्रण प्रवृत्ति । प्रवृत्तियों का सामान्य लक्षण है - "देश-भाषाक्रियावेशलक्षणा स्युः प्रवृत्तयः। (द.रू. 2-63) अर्थात् देश तथा काल के अनुसार पात्रों की भिन्न भिन्न भाषा, भिन्न भिन्न वेष और भिन्न भिन्न क्रियाओं को "प्रवृत्ति' कहते हैं। इनका ज्ञान नाटककार ने लौकिक जीवन से प्राप्त करना चाहिये और उनका यथोचित उपयोग अपनी नाटकरचना में करना चाहिये। प्राचीन नाटकों में कुलीन सुसंस्कृत पुरुषों की और तपस्वियों की भाषा संस्कृत ही होती है। स्त्रीपात्रों में महारानी, मंत्रिपुत्री तथा वेश्याओं के भाषणों में भी संस्कृत पाठ्य का उपयोग प्रशस्त माना गया है। स्त्रीपात्रों का पाठ्य, प्रायः शौरसेनी प्राकृत होता था। प्राचीन प्राकृत भाषाओं के 21 प्रकार थे जिनमें महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, आवंतिका, प्राच्या, दाक्षिणात्या, बाल्हिका इत्यादि प्रमुख भाषाएं थी। पाली भाषा का उपयोग नाटकों में नहीं किया गया। सभी प्राकृत भाषाओं में महाराष्ट्री प्रमुख मानी गयी है। वररुचि ने अपने प्राकृत प्रकाश में, तथा अन्य भी वैयाकरणों ने, महाराष्ट्री एक प्रधान प्राकृत होने के कारण उसी का व्याकरण लिखा है, और अन्य प्राकृत भाषाओं के कुछ विशेष मात्र बताए हैं। । भरत के नाट्यशास्त्र में अन्तःपुर के पात्रों के लिए मागधी; चेट, राजपुत्र और वणिग् जनों के लिए अर्धमागधी; विदूषक के लिए प्राच्या; सैनिक और नागरिक पात्रों के लिए दाक्षिणात्या; शबर, शक आदि पात्रों के लिए वाल्हिका, शकार के लिए संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 221 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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