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एस.के. डे का कहना है कि मल "नाट्यशास्त्र" में परिवर्तन मरुत देवता ने उठा लिया तथा वे उसे दुष्यंतपुत्र भरत के होते रहे हैं और उसका वर्तमान रूप उसे ई. 8 वीं शती में निकट ले गये। उस समय भरत द्वारा पुत्र-प्राप्ति के लिये प्राप्त हुआ होगा।
मरुतस्तोम नामक यज्ञ का आयोजन किया गया था। मरुत् ने भरतमुनि के दो नाम मिलते हैं। वृद्ध भरत या वह शिशु भरत को अर्पण कर दिया। भरद्वाज बडे हुये तब आदिभरत तथा भरत । रचनाएं भी दो हैं। नाट्यवेदागम तथा उन्होंने भरत के लिये एक यज्ञ किया। फलस्वरूप छठवां नाट्यशास्त्र। नाट्यवेदागम को द्वादशसाहस्री और नाट्यशास्त्र मंडल भरद्वाज तथा उनके वंशजों द्वारा रचित है। भरद्वाज की को षट्साहस्री कहा गया है। द्वादशसाहस्री संभवतः वृद्धभरत ऋचायें अत्यंत ओजपूर्ण हैं। कुछ ऋचाओं का आशय इस की रचना हो। अब इसके केवल 36 अध्याय उपलब्ध हैं। प्रकार है - वृद्धभरत रचित श्लोकों को निश्चयपूर्वक पहचानना अशक्यप्राय "हम उत्तम वीरों सहित सहस्रों वर्षों तक आनंदपूर्वक है। शारदातनय का कथन है कि दोनों रचनाएं एकसाथ ही जीवित रहेंगे। हमारी देह पाषाणवत् कठिन हो।" लिखी गई हैं तथा छोटी रचना केवल संक्षेप है।
भरद्वाज गोभक्त थे। ऋग्वेद के छठवें मंडल का 28 वां ___ "नाट्यशास्त्र" सबसे पुरातन संस्कृत रचना है। उसमें न सूक्त 'गोसूक्त' नाम से विख्यात है जिसकी एक ऋचा का ऐंद्र व्याकरण तथा यास्काचार्य के उद्धरण है, न पाणिनि के। आशय इस प्रकार है:भाषा प्रयोग भी कुछ आर्ष हैं। विषयचर्चा भी आर्ष पद्धति
अनेक जातियों की कल्याणप्रद सवत्स गायें हमारे गोशालाओं की है। यही कारण है कि उसका लेखक, "मुनि" की उपाधि
में विद्यमान रह कर उषःकाल में इंद्र के लिये दुग्ध-स्रवण करें। से सादर निर्दिष्ट है। भरतमुनि को कहीं कहीं सूत्रकृत भी
इनके वेदाध्ययन के संबंध में एक कथा इस प्रकार है :कहा गया है। पुराणों की कालगणना के अनुसार इनका समय
संपूर्ण वेदों का अध्ययन करने का प्रयास असफल होने बहुत प्राचीन होता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि
पर भरद्वाज ने इंद्र की स्तुति की। उनकी स्तुति से इन्द्र प्रसन्न "नाट्यशास्त्र", रामायण महाभारतादि के समय या उसके अनन्तर
हुए तथा उन्हें सौ-सौ वर्षों के तीन जन्म प्रदान किये। तीनों की रचना हो सकती है। सूत्रकाल के बाद ही जब शास्त्र
जन्म इन्होंने वेदाध्ययन करने में व्यतीत किये। जब तीसरे विवरण छन्दोबद्ध होने लगा तब इसकी रचना हुई होगी।
जन्म के अंतिम दिनों में भरद्वाज मरणासन्न स्थिति में थे, तब ___ भरत मुनि बहुविध प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ज्ञात होते हैं। उन्होंने
इन्द्र उनके निकट पधारे और उन्होंने भरद्वाज से पूछा- "यदि नाट्यशास्त्र, संगीत, काव्यशास्त्र, नृत्य आदि विषयों का अत्यंत
तुम्हें और एक जन्म की प्राप्ति हुई तो तुम क्या करोगे'। वैज्ञानिक व सूक्ष्म विवेचन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम चार
भरद्वाज ने उत्तर दिया - "मैं वेदाध्ययन करूंगा'। अलंकारों का विवेचन किया था- उपमा, रूपक, दीपक व यमक। नाटक को दृष्टि में रखकर उन्होंने रस का निरूपण
तब इन्द्र ने तीन पर्वतों का निर्माण किया तथा प्रत्येक किया है, और अभिनय की दृष्टि से 8 ही रसों को मान्यता
पर्वत की एक-एक मूछि मिट्टी लेकर तथा उसमें से एक-एक दी है। उनका रसनिरूपण अत्यं प्रौढ व व्यावहारिक है। इसी
कण भरद्वाज को दिखाकर कहा, "वेदों का ज्ञान इन तीन प्रकार संगीत के संबंध में भी उनके विचार अत्यंत प्रौढ सिद्ध
पर्वतों के बराबर है तथा तुमने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह
इन तीन कणों के बराबर है। अतः तुम एक और जन्म की होते हैं।
प्राप्ति होने पर भी पूर्ण वेदाध्ययन नहीं कर सकोगे।" भरतस्वामी - ई. 13 वीं शती। ये काश्यपगोत्र के ब्राह्मण थे। पिता-नारायण। माता-यज्ञदा। ये दक्षिण के श्रीरंगम् के इंद्र द्वारा परावृत्त किये जाने पर भी भरद्वाज ने सौ रहनेवाले थे। ये होयसल-राजवंश के रामनाथनृपति (1263-1310 वर्षों के एक और जन्म की मांग की। उनकी ज्ञाननिष्ठा देखकर ई.) के समकालीन थे। इन्होंने सामवेद पर भाष्य लिखा है। इन्द्र अत्यंत प्रसन्न हुए तथा सरल उपाय से वेदज्ञान प्राप्ति जो इसी नृपति के काल में लिखा जाने का निर्देश इन्होंने के लिये सावित्राग्निविद्या भरद्वाज को सिखलाई। इस प्रकार अपने भाष्य में किया है। भरतस्वामी का प्रस्तुत भाष्य अत्यंत भरद्वाज वेदज्ञाता हुए। संक्षिप्त है। सामविधानादि ब्राह्मणों पर भी भरतस्वामी ने
भर्तृप्रपंच - आद्य शंकराचार्यजी के पूर्ववर्ती वेदांताचायों में भाष्यरचना की है।
ये भेदाभेद-सिद्धांत के पक्षपाती थे। शंकराचार्यजी ने इनके इनके भाष्य में ऐतरेय ब्राह्मण और आश्वालायन सूत्र का ।
मत का उल्लेख तथा खंडन बृहदारण्यक के भाष्य में किया अधिक निर्देश होता है। भरतस्वामी ने आचार्य माधव से ।
है (2-3-6, 2-5-1, 3-4-2, 4-3-30)। इनका मत है कि पर्याप्त सहायता ली है।
परमार्थ एक भी है तथा नाना भी है। ब्रह्म रूप में एक और भरद्वाज - पिता- बृहस्पति। माता-ममता। इनके जन्म के बाद जगद्रूप में नाना है। जीव नाना तथा परमात्मा का एकदेश ही इनके माता-पिता इन्हें छोड़कर चले गये। उस अर्भक को मात्र है। काम, वासनादि जीव के धर्म हैं। अतः धर्म तथा
390/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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