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साथ, निर्णयसागर प्रेस बंबई से 1887 ई. में हुआ था । भट्टोजी दीक्षित ई. स. 1570 से 1635। पिता- लक्ष्मीधर भट्ट आंध्रप्रदेश के रहनेवाले, तथा विजयनगर के राजा के आश्रित महाराष्ट्रीय ब्राह्मण। उनके दो पुत्र थे भट्टोजी तथा रंगोजी भट्टोजी की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सान्निध्य में हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे प्रथम जयपुर तथा वहां से काशी गये। काशी में उन्होंने शेषकृष्ण नामक गुरु के निकट व्याकरण का अध्ययन किया। विद्याध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् इन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। उसके बाद उन्होंने सोमयाग किया। सोमयाग करने कारण उन्हें भट्टोजी "दीक्षित" के नाम से संबोधित किया जाने लगा। इन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी की "सिद्धांत कौमुदी" नामक ग्रन्थ के रूप में पुनर्रचना की। व्याकरणशास्त्र के अध्ययन के लिये यह सिद्धात कौमुदी अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस ग्रंथ ने व्याकरण के अध्यापन क्षेत्र में नया मोड उपस्थित किया। भट्टोजी ने अपने सिद्धांतकौमुदी - ग्रंथ पर स्वयं "प्रौढमनोरमा” नामक टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त इन्होंने पाणिनि सूत्रों (अष्टाध्यायी पर शब्दकौस्तुभ" नामक टीका लिखी है।
भट्टोजी वेदांतशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के प्रगाढ पंडित थे। व्याकरणशास्त्र के अतिरिक्त इन्होंने अद्वैतकौस्तुभ आचारप्रदीप, आह्निकम् कारिका, कालनिर्णयसंग्रह, गोत्रप्रवरनिर्णय, दायभाग, तंत्राधिकारनिर्णय, श्राद्धकांड आदि 34 ग्रंथ लिखे हैं ।
भट्टोजी के वीरेश्वर तथा भानु नामक दो पुत्र तथा वरदाचार्य, नीलकंठ शुक्ल, रामाश्रम तथा ज्ञानेंद्र सरस्वती नामक शिष्य थे।
इनके पौत्र हरि दीक्षित ने "प्रौढ मनोरमा" पर दो टीकाएं लिखी हैं जिनके नाम हैं: बृहच्छब्दरत्न" व "लघुशब्दरत्न" । इनमें से द्वितीय प्रकाशित है और सांप्रतिक वैयाकरणों में अधिक लोकप्रिय है "शब्दकौस्तुभ" पर 7 टीकाएं और "सिद्धान्तकौमुदी" पर 8 टीकाएं प्राप्त होती हैं। “प्रौढ मनोरमा " पर पंडितराज जगन्नाथ ने "मनोरमा कुचमर्दिनी" नामक (खंडनात्मक) टीका लिखी है।
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काशी के पंडित भट्टोजी को नागदेवता का अवतार मानते हैं। नागपंचमी के दिन वहां के छात्र "बड़े गुरु का, छोटे गुरु का नाग लो नाग" कहते हुए नाग के चित्रों की बिक्री करते है। बड़े गुरु से पतंजलि तथा छोटे गुरु से भट्टोजी की ओर संकेत है।
इनके संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार प्रचलित हैइनकी, काशी में विद्यालय स्थापित करने की इच्छा अपूर्ण रह जाने से, मृत्यु के बाद ये ब्रह्मराक्षस होकर अपने घर ही रहने लगे। परिवार के लोग इससे त्रस्त हो गये तथा उन्होंने मकान छोड़ दिया। कुछ वर्षों के बाद काशी में विद्याध्ययन के उद्देश्य से आये हुए दो ब्राह्मण घूमते घूमते उस मकान के भीतर पहुंचे। उन्होंने छपरी पर भट्टोजी को बैठे हुए देखा।
भट्टोजी ने उन दोनों से कुशल क्षेम पूछकर उनके निवास तथा भोजन की व्यवस्था की। दोनों ब्राह्मणों ने उस "भूत महल" में 7-8 वर्ष रहकर भट्टोजी के मार्गदर्शन में व्याकरणशास्त्र का अध्ययन पूर्ण किया। तब भट्टोजी ने उन्हें अपना सत्य स्वरूप कथन किया। दोनों छात्रों ने जब अपने गुरु का शास्त्रविधि से क्रियाकर्म पूर्ण किया तब भट्टोजी को मुक्ति मिली। भट्टोत्पल ई. 10 वीं शती का उत्तरार्ध । काश्मीर निवासी, शैव । ज्योतिषशास्त्र के महान् आचार्य । इन्होंने वराहमिहिर के यात्रा, बृहज्जातक, लघुजातक तथा बृहत्संहिता नामक ग्रंथों पर टीकाग्रंथ लिखे हैं। इन्होंने ब्रह्मगुप्त के खंडखाद्यक तथा षट्पंचाशिका पर भी टीकाएं लिखी हैं। कल्याणवर्मा के अपूर्ण रहे सारावलि ग्रंथ को इन्होंने पूर्ण किया ।
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इन्होंने प्रश्नज्ञान अर्थात् आर्यासप्तती नामक प्रश्नग्रंथ की भी रचना की है।
अल्बेरुनी, इनके द्वारा रचित कुछ अन्य ग्रंथों का भी उल्लेख करते हैं परंतु वे अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं। भय्याभट्ट कृष्णभट्ट के पुत्र । समय ई. 17 वीं शती । रचना- तक्ररामायण । विषय काशीस्थित राम का वर्णन ।
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भरत मल्लिक ई. 17 वीं शती भूरिश्रेष्ठी (बंगाल) के कल्याणमल्ल के समाश्रित गौरांग सेन के पुत्र । कृतियां - एकवर्णार्थसंग्रह, द्विरूपध्वनि संग्रह, लिंगादि संग्रह, मुग्धबोधिनी ( अमरकोश की वृत्ति), उपसर्गवृत्ति, कारकोल्लास, द्रुतबोध व्याकरण तथा सुखलेखन ये व्याकरण ग्रंथ । इन्होंने रघुवंश, कुमारसंभव मेघदूत, शिशुपालवध, नैषय, पटकर्पर और गीतगोविंद पर टीकाएं लिखीं जिनका नाम 'सुबोधा' है। भट्टिकाव्य की टीका का नाम है मुग्धबोधिनी ।
भरतमुनि भारतीय काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र व अन्य ललित कलाओं के आद्य आचार्य। इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है "नाट्यशास्त्र", जो अपने विषय का "महाकोश" है। इनका समय अद्यावधि विवादास्पद है। डा. मनमोहन घोष ने "नाट्यशास्त्र" के आग्लानुवाद की भूमिका में भरतमुनि को काल्पनिक व्यक्ति माना है (1950 ई. में रॉयल एशियाटिक सोसायटी बंगाल द्वारा प्रकाशित ) किन्तु अनेक परवर्ती ग्रंथों में उनका उल्लेख होने के कारण यह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है | महाकवि कालिदास ने अपने नाटक "विक्रमोर्वशीय" में उनका उल्लेख किया है (2-18)। अश्वघोषकृत "शारिपुत्र प्रकरण" पर नाट्यशास्त्र" का प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष का समय विक्रम की प्रथम शती है। अतः भरत मुनि का काल, विक्रम पूर्व सिद्ध होता है। इन्हीं प्रमाणों के आधार पर कतिपय विद्वानों ने उनका समय वि.पू. 500 ई. से 100 ई. तक माना है। हरप्रसाद शास्त्री ने इनका आविर्भाव काल ईसा पूर्व 2 री शती माना है, जब कि प्रभाकर भांडारकर और पिशेल के मतानुसार इनका काल क्रमशः चौथी और छटवीं शती है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 389