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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृष्टि के भेद से जीव का नानात्व औपाधिक नहीं है, अपि तु वास्तविक है। ब्रह्म एक होने पर समुद्र-तरंग न्याय से द्वैताद्वैत है जिस प्रकार समुद्र-रूप से समुद्र की एकता है, परन्तु विकार-रूप तरंग, बुबुद आदि की दृष्टि से वही समुद्र नानात्मक है। इनके मतानुसार परमात्मा तथा जीव में अंशांशि-भाव अथवा एकदेश-एकदेशिभाव सिद्ध होता है। इन्होंने कठ तथा बृहदारण्यक- उपनिषद पर भाष्य लिखे हैं। बादरायण-पूर्व आचार्यों की भेदाभेद- परंपरा का अनुसरण भर्तृप्रपंच ने अपने ग्रंथों में किया है। भर्गप्रागाथ - ऋग्वेद के 8 वें मंडल के 60 तथा 61 वें सूक्त के द्रष्टा। इन सूक्तों में अग्नि तथा इंद्र की स्तुति है। 61 वें सूक्त के, “यत इन्द्र भयामहे" ऋचा से प्रारंभ होने वाली 13 से 18 ऋचायें, शांतिपाठ-मंत्र है। ग्रहबाधा के निवारणार्थ तथा अपशकुनादि के परिहारार्थ इस मंत्र का जप करते हैं। भर्तृमेण्ठ - "हयग्रीव-वध" नामक महाकाव्य के प्रणेता। यह काव्य अभी तक अनुपलब्ध है किंतु इसके श्लोक क्षेमेंद्र-रचित "सुवृत्ततिलक", भोजकृत "सरस्वती-कंठाभरण' व 'श्रृंगारप्रकाश" एवं "काव्य-प्रकाश" प्रभृति रीतिग्रंथों व सूक्ति-ग्रंथों में उद्धृत किये गये हैं। इनका विवरण कल्हण की "राजतरंगिणी" कहते हैं कि मेंठ हाथीवान् थे। मेंठ शब्द का अर्थ भी महावत होता है। लोगों का अनुमान है कि विलक्षण प्रतिभा के कारण ये महावत से महाकवि बन गए। इनके आश्रयदाता काश्मीर-नरेश मातृगुप्त थे। इनका समय ई. 5 वीं शती है। सूक्ति-ग्रंथों में कुछ पद "हस्तिपक' के नाम से प्राप्त होते हैं। उन्हें विद्वानों ने भर्तृमेण्ठ की ही कृति स्वीकार किया है। इनकी प्रशंसा में धनपाल का एक श्लोक मिलता है जिसमें कहा गया है कि जिस प्रकार हाथी महावत के अंकुश की चोट खाकर बिना सिर हिलाये नहीं रहता, उसी प्रकार भर्तमेण्ठ का काव्य श्रवण कर सहृदय व्यक्ति आनंद से विभोर होकर सिर हिलाये बिना नहीं रहता। ___ "राजतरंगिणी" में कहा गया है कि अपने "हयग्रीव-वध" काव्य की रचना करने के पश्चात् मेंठ किसी गुणग्राही राजा की खोज में निकले और काश्मीर-नरेश मातृगुप्त की सभा में जाकर उन्होंने अपना काव्य सुनाया। काव्य की समाप्ति होने पर भी मातृगुप्त ने उनके काव्य के गुण-दोष के संबंध में कुछ भी नहीं कहा। राजा के इस मौनालंबन से मेंठ को बडा दुख हुआ और वे अपना काव्य वेष्टन में बांधने लगे। इस पर राजा ने काव्य-ग्रंथ के नीचे सोने का थाल इस भाव से रख दिया कि कहीं काव्य-रस भूमि पर न जाय। राजा की इस सहृदयता व गुणग्राहकता को देख मेंठ बडे प्रसन्न हुए, उन्होंने उसे अपना सत्कार माना तथा राजा द्वारा दी गई संपत्ति को पुनरुक्त के सदृश समझा (राजतरंगिणी, 3-264-266)। इनके संबंध में अनेक कवियों की प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं। भर्तृयज्ञ - ईसा पूर्व 8 वीं शती। एक प्राचीन भाष्यकार । मेधातिथि ने इनका उल्लेख किया है। कहा जाता है कि इन्होंने कात्यायन-श्रौतसूत्र तथा गौतम-धर्मसूत्र पर भाष्य लिखा है। प्रा. बलदेव उपाध्याय के मतानुसार ये पारस्कर गृह्यसूत्र के प्राचीनतम भाष्यकार हैं। अग्निहोत्र की दीक्षा ग्रहण करने का अधिकार किसे है इस विषय में भर्तृयज्ञ के मत का उल्लेख त्रिकांडमंडन ने अपने आपस्तंबसूत्र ध्वनितार्थकारिका में किया है। भर्तृहरि (राजा) - समय - ई. 7 वीं शती। एक संस्कृत कवि। इनके आविर्भाव काल के संबंध में मतभेद है। इनका विश्वसनीय चरित्र भी उपलब्ध नहीं है। दंतकथाओं, लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों से इनका जो चरित्र उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है - ये उज्जयिनी के राजा, तथा 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण करनेवाले द्वितीय चंद्रगुप्त के बंधु थे। पिता-चंद्रसेन । पत्नी-पिंगला । इन्होंने नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार इन तीन विषयों पर क्रमशः शतक-काव्य लिखे हैं। तीनों ही शतकों की भाषा रसपूर्ण और सुंदर है। उक्त शतकत्रय के अतिरिक्त, 'वाक्यपदीय' नामक एक व्याकरण विषयक विद्वन्मान्य ग्रंथ भी भर्तहरि के नाम पर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के ये ही प्रवर्तक हैं। चीनी यात्री इत्सिंग के कथनानुसार इन्होंने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया था परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य हैं। इनके जीवन से संबंधित एक किंवदन्ती इस प्रकार है - ___एक बार भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ शिकार खेलने के लिये जंगल में गये थे। वन में बहुत समय तक भटकने के बाद भी उनके हाथ कोई शिकार नहीं लगी। निराश होकर दोनों घर लौट रहे थे, तब उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। झुण्ड के आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करने के लिये ज्यों ही अपने हाथ का भाला ऊपर उठाया, पिंगला ने पति को कहा- "महाराज, यह मृगराज 17 सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका वध मत कीजिये। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और उसने हिरन पर अचूक शूल फेंक कर मारा। हिरन जमीन पर गिर पडा। प्राण छोडते-छोडते उसने कहा- "तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को दो, मेरे नेत्र चंचल नारी को दो, मेरी त्वचा साधु-संतों को दो, मेरे पैर भागने वाले चोरों को दो और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दो।" संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 391 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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