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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिरन की बात सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हुआ। के हरिवर्म राजा के आश्रित । इनके द्वारा रचित ग्रंथ - हिरन का कलेवर घोडे पर लाद कर वह मार्गक्रमण करने 1. व्यवहारतिलक (न्यायालयीन कार्यपद्धति का विवरण), लगा। रास्ते मे गोरखनाथ से भेंट हुई। भर्तृहरि ने उन्हें सारा 2. कर्मानुष्ठानपद्धति, (दशकर्मपद्धति या दशकर्मदीपिका नाम किस्सा सुनाया, तथा उनसे प्रार्थना की कि वे हिरन को जीवित से भी इस ग्रंथ का उल्लेख होता है। विषय है- सामवेद करें। गोरखनाथ ने कहा- "एक शर्त पर में इसे जीवनदान का अध्ययन करने वाले ब्राह्मणों को जिन दस प्रमुख धार्मिक दूंगा। इसके जीवित होने पर तुम्हें मेरा शिष्यत्व स्वीकार करना विधियों का पालन करना पडता है, उनका विवरण), 3. पडेगा।" राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली। भर्तृहरि ने प्रायश्चित्तनिरूपण (विषय-धर्मशास्त्र)। 4. तौतातित- मततिलक, वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलानेवाली और भी किंवदन्तियां है। विषय- कुमारिल भट्ट के दृष्टिकोण से पूर्वमीमांसा दर्शन ग्रंथ दंतकथाएं उन्हें राजा तथा विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता के सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण। यह ग्रंथ लिखते समय इन्होंने बताती हैं। किन्तु कतिपय विद्वानों का मत है कि उनके ग्रंथों "बालवलभी-भुजंग" छद्मनाम धारण किया है। यह मीमांसादर्शन में राजसी भाव का पुट नहीं, अतः उन्हें राजा नहीं माना जा का प्रमाणभूत ग्रंथ है। ये वास्तुशास्त्र के भी ज्ञाता थे। इन्होंने सकता। अधिकांश विद्वानों ने चीनी यात्री इत्सिंग के कथन एक मंदिर तथा तालाब बनवाया था। में आस्था रखते हुए, उन्हें महावैयाकरण (वाक्यपदीय के भवस्वामी (भवदेव स्वामी) - यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता प्रणेता) भर्तृहरि से अभिन्न माना है। पर आधुनिक विद्वान् के भाष्यकार भट्टभास्कर दशम शताब्दी में हुए। उन्होंने भवस्वामी ऐसा नहीं मानते। इनके ग्रंथों से ज्ञात होता है कि इन्हें ऐसी का निर्देश किया है। अत एव भवस्वामी का समय दशम प्रियतमा से निराशा हुई थी जिसे ये बहुत चाहते थे। शताब्दी के पूर्व मानना चाहिये। त्रिकाण्डमण्डनकार केशवस्वामी "नीति-शतक" के प्रारंभिक श्लोक में भी निराश प्रेम की ने भी भवस्वामी का निर्देश किया है। त्रिकाण्ड-मण्डन 11 वीं झलक मिलती है। किंवदंती के अनुसार प्रेम में धोखा खाने शताब्दी का ग्रंथ है। इस प्रमाण से भी भवस्वामी का समय पर इन्होंने वैराग्य ग्रहण किया था। इनके तीनों ही शतक दशम शताब्दी के पहिले हो सकता है। भवस्वामी ने तैत्तिरीय संस्कृत काव्य का उत्कृष्टतम रूप प्रस्तुत करते हैं। इनके काव्य संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण और बोधायनसूत्र पर विवरण लिखा का प्रत्येक पद्य अपने में पूर्ण है, और उससे श्रृंगार, नीति है। केशव स्वामी तथा बोधायन-कारिकाकार गोपाल भी इनका या वैराग्य की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। इनके अनेक पद्य निर्देश करते हैं, किंतु इनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। व्यक्तिगत अनुभूति से अनुप्रणित हैं तथा उनमें आत्म-दर्शन भवभूति (उंबेकाचार्य) - समय- ई. 7-8 वीं शती। का तत्त्व पूर्णरूप से परिलक्षित है। ये अपने युग के एक सशक्त एवं विशिष्ट नाटककार ही नहीं भर्तृहरि (वैयाकरण) - "वाक्यपदीय' नामक व्याकरण ग्रंथ थे, अपि तु सांख्य, योग, उपनिषद् व मीमांसा प्रभृति विद्याओं के प्रणेता। पं. युधिष्ठिर शर्मा मीमांसक के अनुसार इनका में भी निष्पात थे। इनके आलोचकों ने इनके संबंध में कटु समय वि.पू. 400 वर्ष है। पुण्यराज के अनुसार इनके गुरु उक्तियों का प्रयोग किया था। उनसे क्षुब्ध होकर भवभूति ने का नाम वसुराज था। ये "शतकत्रय" के रचयिता भर्तृहरि __उन्हें चुनौती दी थी, कि निश्चय ही एक युग ऐसा आयेगा, से भिन्न हैं। इनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथ हैं- महाभाष्य-दीपिका, जब उनके समानधर्मा कवि उत्पन्न होकर उनकी कला का भागवृत्ति (अष्टाध्यायी की वृत्ति), मीमांसा-वृत्ति और आदर करेंगे, क्यों कि काल निरवधि या अनन्त है और पृथ्वी शब्द-धातु-मीमांसा। भी विशाल है (मालती- माधव, अंक प्रथम)। वह प्रसिद्ध भवत्रात - भवत्रात आचार्य ने जैमिनीय ब्राह्मण और आरण्यक श्लोक इस प्रकार है :के समान जैमिनीय श्रौतसूत्र पर भाष्यरचना की है। जैमिनीय ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा ब्राह्मण का दूसरा नाम अष्ट-ब्राह्मण है। इस पर भवत्राताचार्य जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । ने भाष्यरचना की है। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा ये भवत्रात, देवत्रात (अपरनाम वराहदेव या वराहकाय कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।। देवत्रात) से संबंधित थे या नहीं इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। भवभूति ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में अपना पर्याप्त भवदेव - षडङ्गरुद्र के भाष्यकार। इन्होंने शुक्ल यजुर्वेद पर परिचय दिया है। इनका जन्म कश्यप-वंशीय उदुंबर नामक भी भाष्य-रचना की है जो त्रुटित रूप में उपलब्ध है। गुरु ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। ये विदर्भ (महाराष्ट्र) के अंतर्गत का नाम भवदेव। निवास-गंगातटवर्ती पट्टन नामक नगर में। पद्मपुर के निवासी थे। इनका कुल कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय भवदेव मैथिल थे। भवदेव के निवेदन के अनुसार "रुद्र-व्याख्या' शाखा का अनुयायी था। इनके पितामह का नाम भट्ट गोपाल उन्होंने उवटादि प्राचीन आचायों के अनुसार लिखी। था जो महाकवि थे। पिता-नीलकंठ, माता-जतुकर्णी (अथवा भवदेव भट्ट - समय-ई. 11 वीं शती । बंगाल के वर्म-वंश जातूकर्णी)। इन्होंने अपना सर्वाधिक विस्तृत परिचय 392 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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