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अर्थ- जिन्होंने निमर्ल शब्द-जल से मानवों की वाणियों को धोकर स्वच्छ किया और अज्ञानजन्य अंधकार को दूर किया, उन पाणिनि को नमस्कार ।
पात्रकेसरी कुलीन ब्राह्मण अहिच्छत्र (पांचाल की राजधानी ) निवासी इमिल संघ के आचार्य अनन्तवीर्य, शान्तरक्षित आदि आचार्यों ने उनका नामोल्लेख किया है। समय-ई. की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध और सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध । राज्य का महामात्यपद छोड कर त्रिलक्षणकदर्थन में बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षाद्व्यावृत्तिरूप हेतु के त्रैरूप्य का खण्डन कर अन्यथानुपपन्नत्व रूप हेतु का समर्थन किया गया है। इसी तरह " स्तोत्र" भी समन्तभद्र के स्तोत्रों के समान न्यायशास्त्र का ग्रंथ है। पात्रकेसरी को नैयायिक कवि कहा जा सकता है।
पाध्ये, काशीनाथ अनंत- सन् 1790-1806 | धर्मशास्त्र के निबंधकार । पिता - अनंत पाध्ये व माता अन्नपूर्णा । मूल ग्राम रत्नागिरि जिले का गोलवली किन्तु पांडुरंग के भक्त होने के कारण पंढरपुर जा बसे और जीवन के अंत तक वहीं पर रहे। इन्हे बाबा पाध्ये भी कहा जाता था ।
आपने धर्मसिंधु नामक ग्रंथ की रचना की । धार्मिक व्यवहार के लिये आवश्यक धर्मशास्त्रीय विषयों का विचार आपने इस ग्रंथ में उत्तम रीति से किया है।
काशीनाथ उपाख्य बाबा पाध्ये पंढरपुर में एक संस्कृत पाठशाला भी चलाते थे। तदर्थ पेशवा की ओर से उन्हें 1,200 रु. वार्षिक मानधन दिया जाता था। बाबा ने पंढरपुर के विठोबा की पूजा के उपचारों में वृद्धि की । स्वरचित संस्कृत स्तवन- गीत (आरतियां), विठोबा की आरती के प्रसंग पर (व्यक्तिशः अथवा सामूहिक पद्धति से) गाने की प्रथा भी पाध्ये बाबा ने प्रारंभ की। अपनी विद्वत्ता तथा अपने सदाचरण के कारण बाबा के प्रति पंढरपुर में बड़ा श्रद्धाभाव निर्माण हो चुका था। अतः बड़े-से-बड़े प्रतिष्ठाप्राप्त महानुभाव एवं राजा-महाराजा भी पांडुरंग (विठोबा ) के दर्शन करने के पश्चात् बाबा के दर्शन हेतु अवश्य जाया करते थे। अपने देहावसान के कुछ समय पूर्व, पाध्ये बाबा ने संन्यास ग्रहण किया था । 'बाबावाक्यं प्रमाणम्'- यह कहावत इसी बाबा पाध्ये के कारण चालू हुई।
पायगुंडे, वैद्यनाथ- ई. 18 वीं शती । पिता - रामभट्ट । पुत्र बालंभट्ट गुरु-नागोजी भट्ट पत्नी लक्ष्मी चातुर्मास्यप्रयोग, वेदान्तकल्पतरु - मंजरी, प्रभा (शास्त्र- दीपिका की व्याख्या) आदि रचनाएं प्रमुख हैं। महाभाष्य- प्रदीपोद्योत के व्याख्याकार ।
पायु भारद्वाज ऋग्वेद के 6 वें मंडल का 75 वां और 10 वें मंडल का 87 वां सूक्त इनके नाम पर है। प्रथम सूक्त में पायु भारद्वाज ने धनुष्य, बाण, तूणीर (तरकश ), कवच (जिरह-बस्तर), भुजबंध, रथ, सारथी एवं वीर योद्धाओं के
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बारे में गौरवपूर्वक व आत्मीयता से लिखा है। इस सूक्त पर से प्रतीत होता है कि सूक्त-द्रष्टा का या तो प्रत्यक्ष युद्धक्षेत्र से संबंध आया होगा, अथवा उन्होंने युद्धों का अति निकट सूक्ष्म निरीक्षण किया होगा। सूक्तकार का धनुष्य पर अटूट विश्वास है । " धनुष की सहायता से हम विश्व पर विजय प्राप्त करेंगे" ऐसा वे आत्मविश्वासपूर्वक कहते है। दूसरा सूक्त रक्षोहाग्नि सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इस सूक्त में सूक्तकार ने मुरदेव, यातुधान, क्रव्याद व किमीदिन नामक राक्षसों का वध करने की अग्नि से प्रार्थना की है। जब अभ्यावर्ती चायमान और प्रस्तोक सांजय का वरशिखों ने युद्ध में पराभव किया तब पिता भरद्वाज ने पायु को उनके लिये यज्ञ करने को कहा था।
पार्थसारथी वैयाकरणपंचानन लुग्विड ग्रामवासी जमींदार वेंकटाद्रि अप्पाराव के आश्रित रचनाएं मदनानन्दभाणः, आर्तिस्तवः और स्वापप्रत्ययः (यह दो स्तोत्रकाव्य) । पार्थसारथि मिश्र (मीमांसाकेसरी) मीमांसादर्शन के अंतर्गत भाट्ट-मत के एक आचार्य। पिता यज्ञात्मा । समय- ई. 12 वीं शती । मिथिला के निवासी। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वार भट्ट परंपरा को अधिक महत्त्व व स्थायित्व प्रदान किया मीमांसा - दर्शन पर इनकी विद्वन्मान्य 4 कृतियां उपलब्ध होत हैं- तंत्ररत्न, न्याय- रत्नाकर, न्याय- रत्नमाला व शास्त्र- दीपिक (पूर्व मीमांसा)। "तंत्ररत्न", प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट् रचित "टुप्टीका" नामक ग्रंथ की टीका है। "न्याय - रत्नाकर भी कुमारिल भट्ट की रचना " श्लोकवार्त्तिक" की टीका है "न्याय -रत्नमाला" इनकी मौलिक कृति है जिस पर रामानुजाचा ने (17 वीं शती) "नाणकरत्न" नामक व्याख्या- ग्रंथ की रच की है। "शास्त्र - दीपिका " भी प्रौढ कृति है । इसी ग्रंथ कारण इन्हें "मीमांसा - केसरी" की उपाधि प्राप्त हुई "शास्त्र - दीपिका " पर 14 टीकाएं उपलब्ध हैं। सोमनाथ अप्पय दीक्षित की क्रमशः "मयूख-मालिका" व मयूखावलं नामक टीकाएं प्रसिद्ध हैं ।
अपने ग्रंथों द्वारा पार्थसारथि मिश्र ने बौद्ध तत्त्वज्ञान नास्तिकवाद, विज्ञानवाद व शून्यवाद का सप्रमाण खंडन क हुए वेदान्त शास्त्र के व्यावहारिक दृष्टिकोण को स्पष्ट किया उनकी टीका की शैली व्यंगपूर्ण है। उन्होंने अनेक नवीन प्रस्थापित किये हैं। मीमांसा दर्शन के इतिहास में इनका स्ट अद्वितीय माना जाता है। इनके पिता यज्ञात्मा, तत्कालीन विद्वा में एक दार्शनिक के नाते सुप्रसिद्ध थे पार्थसारथि ने अप पिता के ही पास समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया था। पारिथी कृष्ण कवि- ई. 19 वीं शती । रचनाएं मीनाक्षीशतक मालिनीशतक, हनुमतूशतक, लक्ष्मीनृसिंहशतक, कौमुदीसोम (नाटक), कलि-विलास-मणि-दर्पणः (काव्य) और रामाया के एक भाग पर रसनिस्यन्दिनी नामक टीका ।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 37
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