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पाल्यकीर्ति- अपर नाम शाकटायन। प्राचीन आर्य शाकटायन व्याकरण के रचयिता थे। ये अर्वाचीन जैन शाकटायन हैं। इन्होंने भी व्याकरण रचना की है। यापनीय संप्रदाय के प्रभावी लेखक। समय वि.सं. 871-9241 अन्य रचनाएं-स्त्रीमुक्ति, केवलभुक्ति। आपने निजी शब्दानुशासन से संबंधित धातुपाठ पर धातुवितरण नामक प्रवचन किया है। शाकटायन का धातुपाठ पाणिनि के उदीच्य पाठ से अधिक मिलता है। पार्श्वदेव- (संगीतकार)- महादेवार्य के शिष्य और अभयचंद्र के प्रशिष्य। श्रीकान्त जाति के आदिदेव एवं गौरी के पुत्र । दाक्षिणात्य। इनके संगीतसमयसार ग्रंथ में भोज, सोमेश्वर, परमार्दिन आदि का उल्लेख होने से तथा सिंगभूपाल द्वारा ग्रंथ उल्लिखित होने से इनका समय ई. 12-13 वीं शती होगा। "संगीतरत्नाकर" से प्रभावित यह ग्रंथ 9 अधिकरणों में विभाजित है। इस ग्रंथ में संगीत से अध्यात्म का संबंध जोडा गया है। पार्श्वदेव के अनुसार संगीत से मुक्ति मिलती है न कि दर्शन से। पार्श्वदेव स्वयं को "संगीताकर" और "श्रुतिज्ञान-चक्रवर्ती' कहते हैं। पिंगल- आपने वेदों के 5 वें अंग छंद पर, छन्दःसूत्र नामक सूत्ररूप ग्रंथ की रचना की। इसके 8 अध्याय हैं। इसमें प्रारंभ से लेकर चौथे अध्याय के 7 वें मूत्र तक वैदिक छंदों के लक्षण बताये हैं और उसके पश्चात् लौकिक छंदों का वर्णन किया है। आप पिंगलाचार्य अथवा पिंगलानाग के नाम स भो जाने जाते थे। आपके काल के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है। कीथ ने आपका काल ईसा पूर्व 200 वर्ष निश्चित किया है। छन्दःसूत्र पर लिखी गई भाव-प्रकाश नामक
का में आपको पाणिनि का छोटा भाई बताया गया है। पाल ने अपने ग्रंथ में क्रौष्टकी, यास्क, काश्यप, गौतम, अगिरस, भार्गव, कौशिक, वसिष्ठ, सेतव प्रभृति आचार्यों का उल्लेख किया है। पिंड्य. जयराम - ई. 17 वीं शती। पिता-गंभीरराव व माता- गंगांबा। छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शाहजी राजा भोसले जब बंगलोर (कर्नाटक) में शासक के रूप में स्थिर हुए, तब जयराम पिंड्ये उनके आश्रय में पहुंचे। आप 12 भाषाएं जाने थे। राजा शाहजी की स्तुति में आपके द्वारा लिखा गया राधामाधवविलास-चंपू नामक संस्कृत काव्य प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से भी यह काव्य ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। __ के. व्ही. लक्ष्मणराव के मतानुसार राधामाधवविलास चंपू की रचना, शाहजी के पुत्र एकोजी के शासन काल में हुई
और जयराम पिंड्ये, एकोजी तथा छत्रपति शिवाजी दोनों के ही आश्रित कवि रहे थे। तदनसार जयराम पिंड्ये ने शिवाजी महाराज के विषय में भी पणालपर्वतग्रहणाख्यानम् नामक एक काव्य की रचर की थी। इस आख्यानकाव्य का भी ऐतिहासिक महत्त्व वित्रिका शिवाजी महाराज ने जीवा कार्य व धवल
चरित्र पर मुग्ध होकर आपने उनके संपूर्ण जीवन को विविध भाषाओं में काव्यबद्ध करने का प्रयास भी प्रारंभ किया था। पितामह - समय- अनुमानतः 400 से 700 ई. के बीच। "पितामहस्मृति" के प्रणेता। आपने अपनी स्मृति में व्यवहार का विशेष विचार किया है। आपके मतानुसार वेद, वेदांग, मीमांसा, स्मृति, पुराण व न्यायशास्त्र का धर्मशास्त्र में समावेश होता है। आपने बताया है कि कोई भी अभियोग (दावा) पहले ग्राम पंचायत में, फिर नगर में, और उसके पश्चात् राजा के सम्मुख चलाया जाना चाहिये। यदि वादी तथा प्रतिवादी एक ही देश, नगर अथवा गांव के हों, तो संबंधित अभियोग का निर्णय स्थानीय रीति प्रथाओं तथा संकेतों के अनुसार दिया जाय किन्तु वादी व प्रतिवादी भिन्न गावों के होने की स्थिति में, संबंधित अभियोग का निर्णय शास्त्रानुसार ही दिया जाना चाहिये।
पितामह के आह्निक, व्यवहार व श्राद्ध संबंधी वचनों को "स्मतिचंद्रिका" में उद्धत किया गया है। इसी प्रकार विश्वरूप ने, अनेक अशौच विषयक मत का उल्लेख किया है और उन्हें धर्मवक्ताओं में स्थान दिया है। इनकी स्मृति के उद्धरण, “मिताक्षरा' में भी प्राप्त होते हैं।
पितामह ने न्यायालय में जिन 8 कारणों की आवश्यकता पर बल दिया है वे हैं- लिपिक, गणक, शास्त्र, साध्यपाल, सभासद, सोना, अग्नि और जल। पिप्पलाद - एक ऋषि। इस शब्द का अर्थ है पीपल के पेड के पत्ते खाकर जीवित रहनेवाला। इनकी माता के तीन नाम मिलते हैं गभस्तिनी, सुवर्चा व सुभद्रा। गभस्तिनी दधीचि ऋषि की पत्नी थी। दधीचि के देहावसान के समय गभस्तिनी गर्भवती थी तथा अन्यत्र रहती थी। पति के निधन का समाचार विदित होते ही उन्होंने अपना पेट चीर कर गर्भ को बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखा। पश्चात् वे सती गईं। गभस्तिनी के इस गर्भ का वृक्षों ने संरक्षण किया। आगे चलकर इस गर्भ से जो शिशु बाहर निकला, वही पिप्पलाद कहलाया।
पशु पक्षियों ने इस शिशु का पालन पोषण किया तथा सोम ने उसे सभी विद्याएं सिखाई। यह ज्ञात होने पर कि अपने मातृपितृवियोग के लिये शनि ग्रह कारणीभूत है, पिप्पलाद ने शनि को आकाश से नीचे गिराया। शनि उनकी शरण आया। तब शनि को यह चेतावनी देकर कि 12 वर्ष की आयु तक के बालकों को वे भविक्य में पीडा न पहुंचाएं, पिप्पलाद ने उन्हें छोड़ दिया। ऐसा कहते हैं कि गाधि (विश्वामित्र के पिता), पिप्पलाद व कौशिक (विश्वामित्र) इस त्रयी का स्मरण करने से शनि की पीडा नहीं होती। देवताओं की सहायता से अपने माता पिता से मिलने पिप्पलाद स्वर्गलोक गए, वहां से लौटने पर उन्होंने गौतम की कन्या से विवाह किया।
संम्कन वाद माय के
गशकार खपत
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