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पिप्पलाद के पिता दधीचि ऋषि ने जिस स्थान पर देह त्याग किया था, वहां पर कामधेनु ने अपनी दुग्ध धास छोड़ी थी। अतः उस स्थान को "दुग्धेश्वर" कहा जाने लगा । पिप्पलाद उसी स्थान पर तपस्या किया करते थे। इसलिये उसे पिप्पलादतीर्थ भी कहते हैं।
वेदव्यासजी ने अपने शिष्य सुमंतु को अथर्वसंहिता दी थी। पिप्पलाद उन्हीं सुमंत के शिष्य थे। इन्होंने अथर्ववेद की एक शाखा का प्रवर्तन किया था। अतः उस शाखा को पिप्पलाद शाखा कहा जाने लगा। इन्होंने अथर्ववेद की एक पाठशाला भी स्थापित की थी । पिप्पलाद एक महान् दार्शनिक भी थे। जगत् की उत्पत्ति के बारे में कबंधी कात्यायन द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर उन्होंने इस प्रकार दिया
सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व जगत्कर्ता थे। उन्होंने रे व प्राण की जोड़ी का निर्माण किया। प्राण आत्मा से उत्पन्न हुआ, और आत्मा पर छाया के समान फैल गया। मन की क्रिया से प्राण मानवी शरीर में प्रवेश करते हुए स्वयं को 5 रूपों में विभाजित करता है।
उन्होंने गार्ग्य को बताया गहरी नींद में इन्द्रियां निष्क्रिय रहती हैं, केवल प्रतीति ही कार्य किया करती है शैव्य सत्यकाम से वे कहते हैं, ओंकार की विभिन्न मात्राओं का ध्यान करने से जीव-ब्रह्मैक्य साध्य होता है। एक अन्य स्थान पर वे बताते हैं- ओंकार का ध्यान व योगमार्ग के द्वारा परब्रह्म की प्राप्ति होती है। शरभ उपनिषद्, पिप्पलाद का महाशास्त्र है।
इसमें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की एकरूपता प्रतिपादित की गई है। भीष्म पितामह के निर्वाण के समय, पिप्पलाद अन्य मुनिजनों के साथ वहां पर उपस्थित थे ।
पी. एस. वेरियर (व्ही. एन. नायर) मलबार प्रदेशीय । रचना - अनुग्रहमीमांसा जिसका विषय है, जंनुरोगों की चिकित्सा । पुंडरीक विठ्ठल ई. 16-17 वीं शती एक सुप्रसिद्ध गायक व संगीतज्ञ । जामदग्न्य गोत्रीय ब्राह्मण । मैसूर के निवासी । कीर्ति संपादन हेतु सन् 1570 में आप मैसूर छोड़ कर उत्तर की ओर चल पडे, और पहला पडाव किया बुरहानुपर में । पुंडरीक विठ्ठल के समय उत्तर हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में बडी अव्यवस्था फैली थी। अतः राजा बुरहानखान ने इनसे कहा कि वे उस संगीत पद्धति को अनुशासनबद्ध सुव्यवस्थित रूप दें। तदनुसार कार्यारंभ की दृष्टि से पुंडरीक विटुल ने उत्तर व दक्षिण की संगीत पद्धतियों का तौलानिक अध्ययन किया और बाद में "सद्राग चंद्रोदय" नामक ग्रंथ की रचना की। फिर वे राजपूत राजा मानसिंग के आश्रय में पहुंचे, तथा मानसिंग के निर्देशानुसार आपने "रागमंजरी" नामक ग्रंथ लिखा। परिणामस्वरूप संगीतशास्त्रज्ञ के रूप में आपको दिल्ली बुलवाया गया। अकबर के आश्रय में पुंडरीक ने "रागमाला” नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने रागों के वर्गीकरण
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हेतु परिवार-राग-पद्धति अपनाई। यह पद्धति, रागों में दिखाई देने वाला स्वरसाम्य के तत्त्व पर आधारित हैं। विद्वानों के मतानुसार इस प्रकार रोगों के गुट निर्माण करने वाली पुंडरीक की यह पद्धति, अन्य तत्सम पद्धतियों से अधिक सयुक्तिक है। दाक्षिणात्य संगीत को ध्यान में रखते हुए पुंडरीक ने एक नवीन पद्धति का निर्माण किया। इनके अन्य ग्रंथ हैं- विठ्ठलीय, रागनारायण और नृत्यनिर्णय । संगीत - वृत्तरत्नाकर के प्रणेता विठ्ठल तथा पुंडरीक विठ्ठल एक ही हैं। पुंडरीक विट्ठल को दिल्ली में विपुल सम्मान प्राप्त हुआ। पुंडरीकाक्ष विद्यासागर ई. 15 वीं शती। बंगाल के निवासी । पिता - श्रीकान्त । कृतियां काव्यप्रकाश, दण्डी - वामन के साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ भट्टकाव्य तथा कलापव्याकरण पर टीकाएं। कारककौमुदी नामक व्याकरण ग्रंथ । न्यासटीका और कातन्त्र परिशिष्ट- टीका ।
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पुन्नशेरि नीलकण्ठ शर्मा सन् 1859-1935 पट्टाम्बी के संस्कृत महाविद्यालय में आचार्य पुत्रशेरि नीलकण्ठ शर्मा केरल के प्रतिष्ठित विद्वान थे। आपको "पण्डितराज' की उपाधि प्राप्त थी। पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से संस्कृत के प्रचार का उद्देश्य सामने रख कर, आपने विज्ञानचिन्तामणि और "साहित्य रत्नावलि" नामक पत्रिकाओं का कुशल सम्पादन किया। व्यंगात्मक निबन्धों के लेखक और अनेक "शतकों" के प्रणेता के रूप में इनकी विशेष ख्याति थी। शैलब्धि शतक पट्टाभिषेक प्रबन्ध, सात्त्विकस्वप्र और आयशतक इनकी प्रसिद्ध रचनाएं है। पुरुषोत्तम रचना- शिवकाव्यम् । इसमें शिवाजी महाराज से दूसरे बाजीराव पेशवा तक मराठा साम्राज्य का इतिहास वर्णित है। पुरुषोत्तम ( कविरत्न ) जन्म- गंजम जिले में सन 1790 में । रचनाएं - रामचन्द्रोदय, रामाभ्युदय, बालरामायण और रागमालिका । इनके पुत्र कविरत्न नारायण मिश्र की भी संगीत, बलभद्रविजय, शंकरविहार, कृष्णविलास आदि अनेक रचनाएं हैं।
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पुरुषोत्तमजी इनका जन्म सं. 1724 में आचार्य वल्लभ से 7 वीं पीढी में हुआ था। पिता का नाम पीतांबर । आरंभिक जीवन मथुरा में और बाद का सूरत में बीता। इन्होंने आचार्य वल्लभ के “अणुभाष्य” पर “भाष्यप्रकाश” नामक पांडित्यपूर्ण व्याख्यान लिखे, जिसमें अणुभाष्य के गूढार्थ का प्रकाशन होने के अतिरिक्त अन्य भाष्यों का तुलनात्मक विवेचन भी है। इस व्याख्या की यही विशेषता है।
पुरुषोत्तमजी के अन्य मुख्य ग्रंथ हैं (1) सुबोधिनी - प्रकाश, (2) उपनिषद्दीपिका, (3) आवरणभंग, (4) प्रस्थान - रत्नाकर, (5) सुवर्णसूत्र (विद्वन्मण्डन की पांडित्यपूर्ण विवृति), (6) अमृततरंगिणी (गीता की पुष्टिमार्गीय टीका) तथा (7) षोडश-ग्रंथ विवृत । श्रीमद्भागवत-स्वरूप शंकानिरास नामक अपनी रचना में आपने श्रीमद्भागवत के अष्टादश पुराणों के
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 373
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