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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतर्गत होने का मत, परमतखंडन पूर्वक स्थापित किया है। 'शत्रुभयंकर, वृत्रनाशन, अभयलोक धारक आदि विशेषण प्रयुक्त पुरुषोत्तमजी का ।। वन ई. 1838 में माना जाता है। ये किए हैं। इनके सूक्त की एक ऋचा में इन्द्र का माहात्म्य इस कृष्णचन्द्र महाराज के शिष्य थे। इनके "भाष्यप्रकाश" पर, प्रकार वर्णित है : जो श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ, पूजनीयों में भी इनके गुरु की ब्रह्म-सूत्रवृत्ति (भावप्रकाशिका) का विशेष प्रभाव अत्यंत पूजनीय तथा वरदान देने के लिये सदैव सिद्ध रहते पड़ा है। है, उन (इन्द्रदेव) का स्तवन कीजिये । संकट चाहे क्षुद्र हो पुरुषोत्तमजी (पुरुषोत्तमलालजी) द्वारा प्रणीत ग्रंथों की संख्या अथवा दुस्तर हो, संकट काल में उन्हींको पुकारा जाना चाहिये। 45 बतलाई जाती है। इनमें कुछ तो टीका ग्रंथ हैं और अन्य सत्त्वप्राप्ति का प्रयत्न करते समय उन्हीं की पुकार की जानी स्वतंत्र निबंध ग्रंथ हैं। ग्रंथों के प्रणयन के साथ ही ये मूर्धन्य चाहिए। (ऋ. 8-70-8)। पंचविंश ब्राह्मण में (14.9.29) विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त किया करते थे। शक्ति इन्हें वैखानस भी कहा गया है। तंत्र के मर्मज्ञ विद्वान भास्करराय तथा शैव दर्शन के आचार्य पुलस्त्य - एक सांख्याचार्य व स्मृतिकार। महाभारत में (आदि अप्पय्य दीक्षित से हुए शास्त्रार्थ का विवरण वल्लभ संप्रदाय 66-10) इन्हें ब्रह्मदेव का मानसपुत्र तथा भागवत में (4.1) के इतिहास में मिलता है। कपिल का बहनोई बताया गया है। मिताक्षरा में इनके कुछ पुरुषोत्तमजी वस्तुतः शुद्धाद्वैत मत के प्राण थे। इन्हीं के श्लोक दिए गए हैं। पुलस्त्यस्मृति की रचना इन्होंने अनुमानतः प्रयास से संप्रदाय की दार्शनिक प्रतिष्ठा में विशेष वृद्धि हुई। ई. 4 थी व 7 वीं शती के बीच की होगी। आचार्य वल्लभ, गोसाई विठ्ठलनाथ और पुरुषोत्तमजी शुद्धाद्वैत पुल्य उमामहेश्वर शास्त्री - इस कवि ने अपने "दुर्गानुग्रहकाव्यम्" मत के “त्रिमुनि" माने जाते हैं। में वाराणसी के तुलाधार श्रेष्ठी का पुष्कर क्षेत्र के समाधि पुरुषोत्तम देव - ई. 12 वीं अथवा 13 वीं शती। बंगाल नामक वैश्य का तथा विजयवाडा के धनाढ्य व्यापारी चुण्डूरी के एक प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण। देव, इनकी उपाधि थी। रेड्डी का चरित्र वर्णन किया है। रेड्डी का चरित्र धनाशा से अतः अष्टाध्यायी की वैदिकी प्रक्रिया को छोड कर, आपने लिखा है ऐसा उन्होंने कहा है। शेष सूत्र पर भाष्य लिखा जो भाषावृत्ति के नाम से सुप्रसिद्ध इस कवि ने अपनी अन्य रचना में आन्ध्र के विद्वान् साधु है। पुरुषोत्तम देव, राजा लक्ष्मणसेन के आश्रित थे। इन्हींकी बेल्लमकोण्ड रामराय का चरित्र वर्णन, अश्वधाटी छन्द के 108 प्रेरणा से आपने भाषावृत्ति की रचना की। सृष्टिधर नामक एक श्लोकों में किया है। बंगाली पंडित ने देव की भाषावत्ति पर टीका लिखी है। पुष्पदंत - शिवमहिम्नःस्तोत्र के रचयिता। यह स्तोत्र सर्वत्र बिहार के वैयाकरणों ने इनके प्रस्तुत ग्रंथ को प्रमाण ग्रंथ के अत्यधिक लोकप्रिय है किंतु उसके कर्ता के नाम (पुष्पदंत) रूप में मान्यता दी है। के अतिरिक्त जीवन चरित्र विषयक अन्य कोई भी अधिकृत देवजी द्वारा लिखित अन्य ग्रंथों के नाम है : महाभाष्यलघुवृत्ति, जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती। शिवभक्त लोग महिम्नः स्तोत्र भाष्यव्याख्याप्रपंच, गणवृत्ति, प्राणपणा, कारककारिका, दुर्घटवृत्ति, को वैदिक रूद्रसूक्त के समकक्ष मंत्रमय मानते हैं। त्रिकांडशेष, अमरकोश- परिशिष्ट, परिभाषावृत्ति (ललितावृत्ति), पुसदेकर, शाङ्गधर - ई. 16 वीं शती। एक महानुभाव ज्ञापकसमुच्चय, उणादिवृत्ति, द्विरूपकोश, कारकचक्र, सम्प्रदायी व्युत्पन्न ब्राह्मण। पुसदे (विदर्भ, जिला अमरावती) हारावली-कोश, वर्णदेशना और एकाक्षर-कोश । इनके अतिरिक्त के निवासी। अनेक शास्त्रों में पारंगत। संस्कृत व मराठी नलोदयप्रकाश नामक नलोदय काव्य की टीका भी आपने लिखी है। भाषाओं में विपुल ग्रंथरचना। गीता पर कैवल्यदीपिका नामक पुरुषोत्तमाचार्य (विवरणकार) - निंबार्क संप्रदायी। संस्कृत व मराठी में टीकाएं। काव्यचूडामणि नामक प्रसिद्ध आचार्य निंबार्क की 7 वीं पीढी में स्थित। आपने निंबार्काचार्यजी संस्कृत ग्रंथ के कर्ता। मराठी में गीताप्रश्नावली, परमहंस-धर्मके "दशश्लोकी" नामक ग्रंथ पर, "वेदांत-रत्नमंजूषा" नामक मालिका आदि ग्रंथ भी लिखे हैं। विशाल विवरण भाष्य लिखा है। दशश्लोकी तथा श्रीनिवासाचार्यजी पूर्णसरस्वती - ई. 14 वीं शती का पूर्वार्ध । केरल में दक्षिण के रहस्यप्रबंध नामक ग्रंथों पर विवरण लिखने वाले प्रथम मलबार के एक ब्राह्मण परिवार में जन्म। गुरु का नामआचार्य होने के कारण, आप “विवरणकार" के रूप में प्रसिद्ध पूर्णज्योति। कहते हैं कि गुरु व शिष्य दोनों ही संन्यासी थे हैं। आपके दूसरे ग्रंथ का नाम है "श्रुत्यंतसुरद्रुम"। उसमें और त्रिचूरस्थित मठ में रहते थे। पूर्णसरस्वती द्वारा लिखे गए श्रीकृष्णस्तवराज पर वेदांतपरक टीका है। ग्रंथों के नाम हैं- विद्युल्लता (मेघदूत पर टीका), भक्ति मंदाकिनी (शंकराचार्यजी के विष्णुपादादि के शान्त-स्तोत्र पर पुरुहन्मा (वैखानस) - आंगिरस कुलोत्पन्न। ऋग्वेद के 8 टीका), ऋजुलध्वी- माधव पर काव्यमय टीका, हंसदूत (मेघदूत वें मंडल का 70 वां सूक्त इनके नाम पर है। इन्द्र की स्तुति । की शैली पर लिखा गया काव्य) और कमलिनी-राजहंस (पांच इस सूक्त का विषय है। पुरुहन्मा ने इन्द्र के लिये अखंडानंदपूरण, अंकों का नाटक)। 374 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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