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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बालकों एवं मदिवालयो व गणों को नहीं। इसी पन विद्वत्परिषद इनके अतिरिक्त कुछ और भी टीका ग्रंथ आपने लिखे हैं। संस्कृत साहित्य को समृद्ध करने वाले केरल के पंडितों में, पूर्णसरस्वतीजी का अपना एक विशेष स्थान है। पेरियअप्पा दीक्षित - किलायूर के चिदम्बर के पुत्र। रचना - शृंगारमंजरी, शाहजीयम् (नाटक), तंजावर नरेश शहाजी का विलास वर्णन इनके कवित्व का विषय है। पेरूसूरि - ई. 18 वीं शती। सम्भवतः कांचीपुर के निवासी। पिता- वेंकटेश्वर । माता- वेंकटाम्बा । "वसुमंगल" (नाटक) के रचयिता। अन्य काव्यकृतियां- रामचन्द्रविजय, भरताभ्युदय व चकोरसंदेश। पैठीनसी - अर्थव परिशिष्ट के अंतर्गत तर्पण की सूचि में आपका नाम समाविष्ट है और आपके द्वारा अंकित श्राद्ध विधियों के कुछ विधि, अथर्ववेदीय श्राद्धविधियों से मिलते जुलते हैं। इस आधार पर कहा जाता है कि आप अथर्ववेदी होंगे। स्मृति-चंद्रिका तथा अपरार्क, हरदत्त प्रभृति के ग्रंथों में पैठीनसी के पर्याप्त वचन उद्धृत हैं। अपुत्र का धन विद्वत्परिषद् को प्राप्त होना चाहिये, राजा को नहीं। इसी प्रकार आपका कहना है, कि देवालयों व गणों की धरोहर का तथा अवयस्क बालकों एवं महिलाओं के धन का विनियोग, राजा ने स्वयं के लिये नहीं करना चाहिये। पौष्करसादि - संस्कृत व्याकरण के प्राचीन आचार्य । पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 3100 वर्ष वि.पू. है। इनका उल्लेख महाभाष्य के एक वार्तिक में हुआ है। ("चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् 8-4-48)। पिता- पुष्क्रत्। निवासस्थान- अजमेर के निकटस्थ पुष्कर। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य" (5-40) के माहिषेय भाष्य में कहा गया है कि पौष्करसादि ने कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का प्रवचन किया था। इनके मत “हिरण्यकेशीय गृह्यसूत्र' (1-6-8) एवं “आग्निवेश्य गृह्यसूत्र" (1-1 पृ. 9) में भी उल्लिखित है। "आपस्तंब धर्मसूत्र" में भी (1-19-7 1-18-1) पुष्करसादि आचार्य का नाम आया है। पौत्र आत्रेय - ऋग्वेद के 5 वें मंडल का 73 वां व 74 वां सूक्त इनके नाम पर है। अश्विदेवों की स्तुति इन सूक्तों का विषय है। 74 वें सूक्त की 4 थी ऋचा में इनका नाम है। उसमें आपने यह बताया है कि उन्होंने सोम याग की दीक्षा ली थी। दीक्षा काल में आप दुष्टों के चंगुल में फंसे थे। किन्तु अश्विदेवों ने उन्हें उनसे मुक्त किया। यह बात उनकी ऋचाओं से ध्वनित होती है। उनके सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है - सत्यमिद् वा उ अश्विना युवामाहुर्मथोभुवा। ता यामन् यामहूतमा यामन्ना मृळ्यत्तमा।। (5.73.9) अर्थ - अहो अश्वी, आपको (जगत् का) मंगल करनेवाले कहते हैं, वह सर्वथा सत्य ही है। इसी लिये यज्ञ में (भक्तजन) आप लोगों की अत्याग्रहपूर्वक प्रार्थना किया करते हैं (क्योंकि) यज्ञ में पुकार की जाने पर आप ही अत्यंत सुख देने वाले हैं। अश्विदेवों को पौर आत्रेय कवि-प्रतिपालक कह कर भी संबोधित करते हैं। प्रकाशात्म यति - ई. 13 वीं शती। रामानुजाचार्य द्वारा शांकर मत के खंडन का प्रयत्न किया जाने पर, प्रकाशात्मयति ने शांकर मत के समर्थनार्थ पद्मपादाचार्यकृत पंचपादिका पर "पंचपादिका-विवरण" नामक टीका लिखी। अद्वैत तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में, इस टीका ग्रंथ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वेदांत तत्त्वज्ञान में भामती प्रस्थान के पश्चात् विवरण-प्रस्थान के रूप में एक नवीन प्रस्थान का उपक्रम, प्रकाशात्म यति ने किया। प्रस्तुत टीका ग्रंथ में अद्वैत मत का और विशेषतः पद्मपादाचार्य के मत का विशेष विवेचन किया गया है। शारीरकभाष्य पर न्यायसंग्रह व शब्दनिर्णय नामक दो और भी ग्रंथ यतिजी ने लिखे हैं। इन्हें "प्रकाशानुभव" नाम से भी जाना जाता है। प्रकाशानंद - ई. 15 वीं शती। ज्ञानानंद के शिष्य। इनका प्रमुख पांडित्यपूर्ण ग्रंथ, वेदान्त-सिद्धांत-मुक्तावलि है। यह वेदांत का प्रमाणभूत ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ गद्य पद्यात्मक है। गद्य में युक्तिवाद है। प्रकाशानंद के मतानुसार माया अनिर्वचनीय है, अज्ञान प्रमाणगम्य नहीं है, आत्मा केवल आनंदस्वरूप न होकर आनंदवान् तथा दुःखवान् भी हो सकती है आदि। प्रस्तुत ग्रंथ पर अप्पय्य दीक्षित ने सिद्धांतदीपिका नामक वृत्ति लिखी है। वेदांत-सिद्धांत-मुक्तावलि के अतिरिक्त प्रकाशानंद द्वारा लिखे गए तांत्रिक ग्रंथों के नाम हैं : मनोरमातंत्रराज टीका, महालक्ष्मी-पद्धति, श्रीविद्या-पद्धति आदि । प्रगाथ काण्व - ऋग्वेद के 8 वे मंडल के क्रमांक 10, 48, 51 व 54 के सूक्त आपके नाम पर हैं। इन्हें प्रगाथ नामक मंत्रविशेष का द्रष्टा माना गया है। यज्ञ में शंसन करने समय एक विशिष्ट पद्धति से दो ऋचाओं की तीन ऋचाएं करते हैं, जिन्हें "प्रगाथ" कहा जाता है। इन प्रगाथों को, संबंधित देवता के अनुसार, ब्रह्मणस्पद प्रगाथ काण्व ने अपने सूक्तों में इन्द्र, अश्वी व सोम की स्तुति की है। सोमरस के बारे में इन्होंने काव्यमय भाषा में लिखा है। सोम के पान से उल्लसित होकर वे कहते हैं। अपाम सोममममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्। किं नूनमस्मान् कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ।। (ऋ. 8.48.3) अर्थ - हमने सोम रस का प्राशन किया, हम अमर हुए, दिव्य प्रकाश को प्राप्त हुए। हमने देवों को पहचाना। अब धर्म विमुख दुष्ट हमारा क्या कर लेंगे। हे अमर देव, मानवों की धूर्तता भी अब हमारा क्या अहित कर सकेगी। इसके उपरांत ग्रगाथ काण्व ने स्वयं को अग्नि के समान संस्कृत वाङ्मय कोश · ग्रंथकार खण्ड / 375 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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