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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उज्जवल बनाने तथा सभी प्रकार की समृद्धि प्रदान करने की सोम से प्रार्थना की है। प्रचेता आंगिरस ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 164 सूक्त इनके नाम पर है। दुःस्वप्ननाश इस सूक्त का विषय है। तत्संबंधी एक ऋचा इस प्रकार है अनाम वा भूमानागसो वयम् जाग्रत्स्वप्रः सङ्कल्पः पापो यं द्विष्मस्तं स ऋच्छतु यो नो द्वेष्टितमृच्छतु।। (ऋ. 10.164.5) अर्थ- देखो, आज हमने वाणी पर विजय प्राप्त करने के साथ ही अपना उद्दिष्ट भी साध्य किया। अपना निरपराधी होना भी सिद्ध किया। फिर भी जाग्रत् या निद्रित अवस्था में जो कोई दुर्वासना हमारे मन में छिपी बैठी हो, वह पापी वासना हमारे शत्रुओं की ओर उन्मुख हो; जो हमारा द्वेष करते हैं, उनकी ओर जावे । 1 प्रजापति इनकी एक श्राद्धविषयक स्मृति है । उसमें 198 लोक विविध छंदो में है चरित्रकोशकार चित्राव शास्त्री के कथनानुसार प्रस्तुत स्मृति में कल्पशास्त्र, स्मृति, धर्मशास्त्र एवं पुराणों का विचार किया गया है। अशौच्य व प्रायश्चित्त से संबंधित इनके श्लोक, याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गई मिताक्षरा टीका में दिये गये है अपने परिवाजक दिय में इनका एक गद्यात्मक उध्दरण समाविष्ट किया है। इसी प्रकार स्मृति-चंद्रिका, पराशर माधवीय एवं कतिपय अन्य ग्रंथों में भी इनके व्यवहार - विषयक श्लोक अपनाए गए हैं। प्रजापति के मतानुसार निपुत्रिक विधवा का अपने पति की संपत्ति पर अधिकार होता है, उसे अपने पति का श्राद्ध करने का भी अधिकार है। प्रजापति परमेष्ठी वेद के 10 वे मंडल के 129 में सूक्त के द्रष्टा । यह सूक्त, "नासदीय" के नाम से प्रसिद्ध है । प्रजापति वाच्य इनके नाम पर ऋग्वेद के तीसरे मंडल के सूक्त क्रमांक 38, 54, 55 व 56 हैं। इन्हें 9 वें मंडल के 101 वें सूक्त की 13 से 16 तक की ऋचाओं का भी द्रष्टा माना जाता है। प्रजापति इनका व्यक्तिनाम व वाच्य कुलनाम है ये दोनों ही नाम काल्पनिक है। इनको प्रजापति वैश्वामित्र I भी कहते हैं । विश्वामित्र कुलोत्पन्न के मतानुसार, प्रजापति वाच्य व प्रजापति वैश्वामित्र ये दो भिन्न व्यक्ति होने चाहिये। इन्होंने अपने सूक्तों में व्यक्त किये कुछ विचार इस प्रकार हैं चाहे कोई कितना ही बडा युक्तिवान्, सूज्ञ या सज्जन हो, किंतु पुरातन काल से अबाधित सिध्द हुए देवों के नियमों को वह बाधा नहीं पहुंचा सकता द्यावापृथिवी सभी मानवों व देवों को धारण करती हैं। ऐसा करते हुए वे कभी नहीं थकतीं। देवों की ओर जाने का मार्ग वास्तव ही में गूढ है। ये ऋषि कवि हृदय के हैं। अन्य द्रष्टा कवियों से वे कहतें हैं- अपने स्तोत्रों को वेद न रहने दो, उन्हें सुंदर व सुशोभित 376 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनाओं। उन्हें जिस प्रकार के इहलोक उत्कृष्ट सुखों का उपभोग करने की तीव्र आकांक्षा है, उसी प्रकार प्रज्ञावंतों के दर्शन व सहवास का आकषर्ण भी है। उन्होंने अनेक देवताओं को संबंधित करते हुए ऋचाओं की रचना की है व उनके द्वारा संबंधित देवता के सामर्थ्य को अभिव्यक्त किया है। निम्र ऋचा में वे परमेश्वर का वर्णन तीन स्वरूपों में करते हैं त्रिपाजस्यो वृषभो विश्वरूप उतत्र्युधा पुरूषः प्रजावान् । त्र्यनीकः पत्यते माहिनावान्त्स रेतोधा वृषभः शश्वतीनाम् ।। (ऋ. 3.56.3 ) ।। अर्थ- ये जो अनंत रूपों को धारण करनेवाला, मनोरथ पूर्ण करनेवाला व वीर्यशाली परमेश्वर है, उसकी ऊर्जास्थिता तीन प्रकार की है। उसके वक्षस्थल भी तीन ही हैं। उसकी प्रजा तीन लोकों में भारी हुई है। उसके प्रकाशमय रूप भी तीन प्रकार के हैं। वह सर्वश्रेष्ठ देव त्रैलोक्य का प्रभु है । ऐसा कहा जा सकता है कि पुराण-काल में सत्त्व - रज-तम पर आधारित जो त्रिमूर्ति - कल्पना उदित व विकसित हुई तथा मूर्तिकला में भी स्वीकृत की गई, उसका बीज उक्त मंत्र में है। प्रजावान् प्राजापत्य ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 183 वां सूक्त इनके नाम पर है। इस सूक्त के कोई विशेष देवता नहीं हैं। इसमें ऋषि अपनी प्रेयसी को, पुत्र की प्राप्ति के हेतु अपने पास आने का आग्रह करते हैं। अतः इस सूक्त को संततिदायक माना गया है। इसमें कहा गया है कि "प्रवर्ग्य" नामक अनुष्ठान में इस सूक्त का पठन करने से संतति का लाभ होता है। प्रतर्दन ऋग्वेद के 9 वें मंडल का 96 वां सूक्त व 10 वें मंडल के 179 वें सूक्त की दूसरी ऋचा इनके नाम पर है। इन्होंने अपने सूक्त में पवमान सोम की प्रशंसा की है। वे कहते हैं- सोमरस का प्रभाव वाणी को चालना, मन को प्रेरणा व स्तवनों को स्फूर्ति देता है, इसी प्रकार सोमरस का प्रान करने वाले वीर संग्राम में निर्भयतापूर्ण लडते हैं। सोम की प्रार्थना में उनकी ऋचा इस प्रकार है: यथा पवथा मनवे वयोधा अमित्रहा वरिवो विद्धविष्मान् । एवा पवस्व द्रविणं दधान इन्द्रे सं तिष्ठ जनयायुधानि ।। अर्थ- यौवन का बल - उत्साह लाने वाला, शत्रुओं का वध करने वाला, समाधानी वृत्ति देने वाला व दिव्य जनों को हविर्भाग पहुंचाने वाला तू जिस प्रकार पहले मनु के लिये पावन प्रवाह से प्रवाहित रहता था, उसी प्रकार अब भी संपत्ति के साथ आकर अपने प्रवाह से बह, इन्द्र में वास कर, और युद्ध में शस्त्रों को प्रकट कर । प्रतापरुद्र देव ई. 16 वीं शती । उड़ीसा में राज्य करनेवाले गजपति घराने के एक राजा । सरस्वतीविलास नामक ग्रंथ के रचयिता । अपनी राजधानी में पंडितों की सभा आयोजित कर तथा उनसे चर्चा करने के पश्चात् आपने प्रस्तुत ग्रंथ लिखा । For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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