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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस ग्रंथ में आर्थिक विधान (दीवानी कानून) व धर्मशास्त्रों का मत है कि मिश्रजी के ग्रंथों के अनुशीलन से वे भट्टजी के नियमों का समन्वय किया गया है। आगे चल कर इस ग्रंथ को विधान (कानून) का स्वरूप प्राप्त हुआ। प्रभाचंद्र - गुरुनाम- पद्मनन्दी सैद्धान्तम्। दक्षिण भारतीय । __ आपने प्रताप मार्तण्ड नामक एक और ग्रंथ की भी रचना श्रवण बेलगोल शिलालेखों में उल्लिखित । कार्यक्षेत्र उत्तरभारत की है। उसके पदार्थ निर्णय, वासरादि निरूपण, तिथि निरूपण, (घारानगरी)। माणिक्यनन्दी के शिष्य। चतुर्भुज का नाम भी प्रतिनिरूपण व विष्णु भक्ति शीर्षक नामक पांच विभाग हैं। गुरु के रूप में उल्लिखित । समय के बारे में तीन मान्यताएं प्रतापसिंह देव - जयपुर के महाराजा। ई. 1779-1804 । हैं (1) ई. 8 वीं शताब्दी, (2) ई. 11 वीं शताब्दी और रचना - संगीतसागरः। (3) ई. 1065। इनमें द्वितीय मत अधिक युक्तिसंगत है। प्रतिप्रभ आत्रेय - ऋग्वेद के 5 वें मंडल का 49 वां सूक्त भोजदेव और जयसिंह देव (ई. 1065) के राज्यकाल में वे इनके नाम पर है। सविता की प्रार्थना इस सूक्त का विषय । रहे। रचनाएं - प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख व्याख्या), है। प्रस्तुत सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है - न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय व्याख्या), तत्त्वार्थवृत्ति पदविवरण तन्नो अनर्वा सविता वरूयं तत्सिंधव इष्यन्तो अनुग्मन् । (सर्वार्थसिद्धि व्याख्या), शाकटायनन्यास (शाकटायन व्याकरण व्याख्या), शब्दाम्भोजभास्कर (जैनेन्द्र व्याकरण व्याख्या), उप यद् वोचे अध्वरस्य होता रायः स्याम पतयो वाजरत्नाः ।। प्रवचनसार, सरोजभास्कर (प्रवचनसार व्याख्या), गद्यकथाकोष अर्थ - जिसका किसी भी प्रकार का अहित नहीं हो (स्वतन्त्र रचना), रत्नकरण्डश्रावकाचारटीका, समाधितन्त्रटीका, सकता, ऐसा सविता ही हमारा अभेद्य कवच है। वेगवान क्रियाकलाप टीका, आत्मानुशासन टीका और महापुराण टिप्पण। नदियां हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये बहती हैं। इसी लिये प्रायः ये सभी ग्रंथ महाकाय हैं। मैं अध्वर (यज्ञ) का होता प्रार्थना करता हूं कि हम लोग प्रभुदत्त शास्त्री - ई. 20 वीं शती। दिल्ली निवासी। "संस्कृत सत्त्वाढ्य व (दिव्य) वैभव के अधिपति बनें। वाग्विजय" नामक 5 अंकी नाटक के प्रणेता। इस नाटक में प्रबोधानन्द सरस्वती - ई. 16 वीं शती। कृतियां- संगीत-माधव, प्राचीन प्राकृत के स्थान पर अर्वाचीन प्राकृत (हिंदी) का वृन्दावन-महिमामृत तथा चैतन्यचन्द्रामृत । उपयोग किया है। प्रभाकरभट्ट - ई. 16 वीं शती का उत्तरार्ध। माधव भट्ट प्रभुवसु आंगिरस - ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 35 व 36 के पुत्र । बंगाली नैयायिक। कृतियां रसप्रदीप, अलंकार-रहस्य वें तथा 9 वें मंडल के भी 35 व 36 वें सूक्त इनके नाम तथा लघु सप्तशतिका स्तोत्र। पर हैं। प्रथम दो सूक्तों का विषय इन्द्र की स्तुति है व द्वितीय प्रभाकर मिश्र (गुरु) - ई. 7 वीं शती। अनेक विद्वानों दो सूक्तों का विषय सोम की स्तुति है। आपने इंद्र के लिये के मतानुसार कुमारिल भट्ट के शिष्य व मीमांसा क्षेत्र में अशनिधर, अपारप्रज्ञ, अतुलबल, भक्तों पर कृपा करने हेतु "गुरुमत" के संस्थापक। आपकी अलौकिक कल्पनाशक्ति पर अवतीर्ण होनेवाला आदि अनेक विशेषणों का प्रयोग किया मोहित होकर कुमारिल भट्ट ने इन्हें "गुरु" की उपाधि से है। इस प्रत्येक विशेषण से इन्द्र के चरित्र के विविध अंग गौरवान्वित किया। तब से आपका उल्लेख "गुरु" के ही स्पष्ट होते हैं। उनकी एक ऋचा इस प्रकार है। नाम से होने लगा। अस्माकमिन्द्रेहि नो रथमवा पुरन्ध्या। भारतीय दर्शन के इतिहास में मिश्रजी का शुभनाम एक वयं शविष्ठ वीर्यं दिवि श्रवो दधीमहि देदीप्यमान रूप में अंकित है। अपने स्वतंत्र मत की प्रतिष्ठापना दिवि स्तोमं मनामहे (ऋ. 5.35.8) करने हेतु, आपने "शाबरभाष्य" पर बृहती अथवा निबंधन अर्थ - हे इन्द्र देव, हमारी ओर कृपया आगमन कीजिये तथा लघ्वी अथवा विवरण नामक दो टीकाएं लिखीं हैं। उनमें और अपनी प्रगल्भ बुद्धि से हमारे (मनो) रथ पर अपनी से बृहती प्रकाशित हो चुकी है। अपनी अमोघ विचारशक्ति अनुकंपा की छाया (संरक्षा) रखिये। हे सामर्थ्यसागर, हम के बल पर मिश्रजी ने मीमांसादर्शन को विचारशास्त्र बनाने में आपके सुयश को स्वर्ग में भी स्थिर कर सकें तथा स्वर्ग में सहायता की, और दर्शन पर स्थापित कुमारिल भट्ट के भी आपके ही गुणानुवाद का चिंतन हो ऐसी योजना कीजिये। एकाधिपत्य को दूर किया। अपनी एक ऋचा में (ऋ. 5.36.6) प्रभुवसु आंगिरस ने कप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रभाकर मिश्र का काल सन् 610 से उन्हें प्राप्त एक दान का वर्णन किया है। वे कहते हैं "न्यायी 690 के बीच तथा कुमारिल भट्ट का काल सन् 600 से व सामर्थ्य के प्रशंसक श्रुतरथ (राजा) ने 2 अवलक्ष 660 के बीच निश्चित किया है। प्रो. कीथ व डा. गंगानाथ (अबलख) अश्व, उन पर आरूढ अश्ववीर और उनके साथ झा के मतानुसार मिश्रजी सन् 600 से 650 के बीच हुए ____ 300 सैनिक मुझे अर्पण किये। हे मरुत प्रभो, उस युवा तथा भट्टजी उनसे कुछ काल के उपरांत हुए। इन विद्वानों श्रुतरथ राजा के सम्मुख, उसके अधीनस्थ प्रजानन नतमस्तक रहे"। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 377 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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