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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उसके लिए ब्रह्म अज्ञात है। इस जन्म में ब्रह्मज्ञान हुआ तो ही जीवित की सार्थकता है । ब्रह्मज्ञान न होने में बड़ी हानि है। बुद्धिमान लोग प्राणिमात्रों में ब्रह्म का साक्षात्कार पा कर अमृतत्व (मोक्ष) की प्राप्ति करते हैं। खण्ड 3- इसके यक्षोपाख्यान में अग्नि, वायु, इन्द्र इत्यादि देवताओं का सारा सामर्थ्य वस्तुतः उनका निजी सामर्थ्य नहीं होता, अपि तु परब्रह्म का ही होता है, यह सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। उस सर्वशक्तिमान ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान गुरु के उपदेश द्वारा ही होता है, यह सिद्धान्त हैमवती उमा के उपदेश से सूचित किया है। जस प्रकार नेत्रों का निमेष और उन्मेष अथवा बिजली का चमकना तत्काल होता है अथवा अन्तःकरण को प्रतीति तत्काल होती है, उसी प्रकार गुरुपदेश से मंदबुद्धि पुरुष को भी ब्रह्मज्ञान तत्काल होता है। साथ ही ब्रह्मज्ञान के लिए सांग वेदाध्ययन, सत्य, तप, दम और अग्निहोत्रादि कर्म, इनकी भी आवश्यकता होती है। तप, दम और कर्म ब्रह्मविद्या की प्रतिष्ठा (आधारभूमि) है और वेद-वेदाङ्ग तथा सत्य उसका आयतन ( निवासस्थान) है। ब्रह्मविद्या से ही पापों का क्षय होकर मानवजीव अनन्त और महान् स्वर्ग में स्थिरपद होता है, अर्थात् वह जन्ममरण के चक्र से मुक्त होता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केनोपनिषद लघुकाय ग्रंथ है तथापि भगवान् शंकराचार्य ने उस पर दो भाष्य- (प्रथम पदभाष्य और बाद में वाक्यभाष्य) लिखकर उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है वाक्यभाग्य में सर्वत्र (विशेषतः तृतीय खंड के प्रारंभ में) युक्तिवादों से विरोधी मतों का खंडन और अद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन जगद्गुरु ने किया है। कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद काठकोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा आज लुप्त है तथापि उस शाखा का काठकोपनिषद प्रसिद्ध है। पाणिनि के कठचरकात् लुक्" इस सूत्र से चरक के समान कठ यह किसी ऋषि का नाम प्रतीत होता है। इस उपनिषद में वाजश्रवस् ऋषि के पुत्र नचिकेता को मृत्यु द्वारा प्राप्त आत्मज्ञान प्रतिपादन किया है। कठोपनिषद के दो अध्यायों का "वल्ली" नामक उपप्रकरणों में विभाजन किया है। - - प्रथमवल्ली वाजश्रवा ऋषि ने विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान करते हुए क्षीण जीर्ण गायों का दान देना शुरू किया। तब पुत्र नचिकेता ने प्रश्न किया "पिताजी" आप मेरा दान किसे करेंगे। यही प्रश्न उस बालक ने बार बार पूछा, तब चिढ़ 'कर पिता ने कहा “मृत्यवे त्वां ददामि " मै तेरा दान मृत्यु को दूंगा । नचिकेता यमराज के भवन में पहुंच गया। तीन दिन तक उपोषित रहते हूए नचिकेता ने उनकी प्रतीक्षा की। वापस लौटने पर यमराज ने उसे तीन वर प्रदान किए। इसमें चि ने मरणोत्तर आत्मा की गति के बारे में प्रश्न पूछा। इस गूढ प्रश्न का उत्तर टालने के हेतु नचिकेता, को कई प्रलोभन बताए गए। नचिकेता' ने उन्हें नकारा। उसकी तीव्र विरक्ति और जिज्ञासा देख कर मृत्युदेव ने उसे आत्मज्ञान बताया। उपनिषदों के अनेकविध उपाख्यानों में कठोपनिषद का यह नचिकेतोपाख्यान अतीव रोचक एवं लोकप्रिय है। - द्वितीयवल्ली मनुष्य जीवन में श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति होती है । प्रेय का त्याग कर, जो श्रेय का अर्थात् ब्रह्मज्ञान का स्वीकार करता है उसका हित होता है। जो प्रेय का पीछा करता है, वह बारंबार मृत्यु का शिकार होता है । आत्मज्ञान या ब्रह्मविद्या की प्राप्ति केवल तर्क द्वारा नहीं होती। अनुभवसम्पन्न आचार्य के उपदेश से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है। आत्मज्ञान से मानव हर्ष और शोक से विमुक्त होकर परम आनंद का अनुभव पाता है। ओंकार ही नित्य शाश्वत अविनाशी ब्रह्मतत्त्व का आलंबन है। “अणोरणीयान् महतो महीयान्"- आत्मस्वरूप ब्रह्म का ज्ञान, वैराग्यसम्पन्न और इन्द्रियजयी पुरुष को ही होता है। उस ज्ञान से वह शौकमुक्त होता है। तृतीयवल्ली विद्या और अविद्या इन में स्वरूपभेद और फलभेद विशद करने के लिए रथरूपक का वर्णन "आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। इन्द्रियाणि हयानाहुः विषयांस्तेषु गोचरान् ।। (1-3-4) इन मन्त्रों में किया है जो अत्यंत समर्पक है। रथरूपक में बुद्धि को सारथी कहा है । संसारी आत्मा का परमपद तक प्रवास निर्विहन होने के लिए, इन्द्रियरूप अक्षों को विषयमार्ग पर सम्हालने वाला बुद्धिरूप सारथी "विज्ञानवान्" (आत्मानात्मविवेकयुक्त) और समाहित (स्थिर) होना आवश्यक है। उसमें दोष रहा तो "रथी" (आत्मा) परमपद तक न पहुंचते हुए, जन्म मरण के चक्र में फंस जाता है। इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिः बुध्देरात्मा महान् परः ।। महतः परमव्यक्तम् अव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः ।। (ऋ. 1-3-11) , इन मन्त्रों में इन्द्रियां और उनके विषय मन, बुद्धि, महत्तत्व, अव्यक्त (अर्थात् मूल प्रकृति) इन सब से परे जो सूक्ष्मतम पुरुष तत्त्व है, वही जीव का परम प्राप्तव्य अथवा गन्तव्य स्थान है। यह परम तत्त्व समस्त भूतमात्र में निगूढ है, फिर भी संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 25 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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