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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामवेदीय उपनिषद (1) छान्दोग्य- छन्दोग शब्द का अर्थ है सामवेद। इसी कारण "छान्दोग्य" का अर्थ होता है- "छन्दोगम् अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः' अर्थात् सामवेद से संबंधित ग्रंथ। इसके कुल आठ अध्यायों में पंद्रह से चौबीस तक खंड हैं। उपनिषद वाङ्मय जिस अध्यात्म विद्या या ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन करता है उसको विशद एवं सुगम करनेवाली रोचक तथा उद्बोधक कथाएं छांदोग्य में अधिक मात्रा में मिलती हैं। छांदोग्य उपनिषद का अध्यायानुसार संक्षिप्त सारांश : अध्याय-1 : इस अधयाय के 13 खंड हैं। आरंभ में "ओम् इति एतद् अक्षरम् उथीथम् उपासीत"- (अर्थात ओम् यह अक्षर ही उद्गीथ याने सामवेद है, इस निष्ठा से उसकी उपासना करनी चाहिए ऐसा अर्थ इस मंत्र से होता है। आगे चलकर साम के अवयवों का विवेचन करते हुए उन अवयवों की उपासना का फल बताया है। अंतिम 13 वें खंड में स्तोभाक्षरों का फल सहित विवेचन किया है। स्तोभाक्षर का अर्थ है, सामवेद की गेय ऋचाओं के अतिरिक्त, हाइ, हाऊ, हाउ, ऊ, हिं इत्यादि अर्थहीन अक्षरों का समूह। इन की उपासना से कुछ अदृष्ट फल का साधक को लाभ होता है। अध्याय- 2 : इस अध्याय में कुल 24 खंड हैं। प्रथम खंड में, हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन इन पांच प्रकार के सामों की उपासनाविधियां बताई है। बाद में 8 वें से 21 वें खंड तक आदित्यादि सात सामों की उपासना बता कर, आदित्य के किस अवयव को किस सामावयव का रूप प्राप्त होता है यह सिद्ध किया है। 22 वें खंड में किस देवता का किस स्वर में स्तुतिगान करना यह बताया है। 23 वें खंड में, सामावयव उद्गीथ ओंकार और शुद्ध ओंकार में भेद सिद्ध किया है। 24 वें खंड में प्रातःसवन, मध्याह्न सवन और सायंसवन, की देवताएं और उनकी उपासनाओं का फल इस विषय का प्रतिपादन किया है। अध्याय- 3 : 19 खंडों के इस अध्याय में आदित्योपासना और उसका फल इस विषय का प्रतिपादन किया है। प्रारंभिक पाच खंडों में यज्ञफल और कर्मफल बताते हुए, तीनों सवनकर्मों के समय के सूर्य के रूप बताए हैं। आगे अध्याय समाप्ति तक आदित्य ही ब्रह्म है यह सिद्ध किया है। अध्याय- 4 : सत्रह खण्डों के इस अध्याय में वायु और प्राण ब्रह्मा के चरण होने के कारण उनकी उपासना का महत्त्व प्रतिपादन किया है। प्रारंभिक नौ खंडों में जनश्रुति की कथा के आधार पर, विद्यादान और उसकी विधि का प्रतिपादन किया है। दृढश्रद्धा, अन्नदान और विनय अध्यात्मविद्या की प्राप्ति के तीन साधन बताए हैं। दसवें अध्याय से लेकर आगे श्रद्धा और तप ये दो ब्रह्म प्राप्ति के श्रेष्ठ साधन हैं, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन, उपकोसल सत्यकाम जाबालि की कथा द्वारा किया है। अन्त में ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होने पर साधक किस प्रकार ब्रह्मस्वरूप होता है यह बताकर अध्याय की समाप्ति की है। अध्याय-5 : इसमें 25 खण्ड हैं। चौथे अध्याय में जिस “देवयान" का निवेदन किया है उसकी प्राप्ति “पंचाग्निविद्या" का ज्ञान रखने वाले को किस प्रकार होती है यह प्रमुखता से बताया है। प्राण और इन्द्रियों के संवाद द्वारा प्राण की श्रेष्ठता सिद्ध की है। तीसरे खण्ड में श्वेतकेतु की कथा के आधार पर संसार का दुःखस्वरूप प्रतिपादन किया है। 11 वें खण्ड से 24 खण्ड तक प्राचीनशाल इत्यादि पांच विद्वानों ने आत्मा और ब्रह्म का निर्णय किया है। __ अध्याय-6 : इसमें 15 खण्ड हैं, जिन में आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु की कथा द्वारा जीव और ब्रह्म की एकता का उद्बोध किया है। इसी श्वेतकेतु की कथा में एक मूलभूत सत्य का ज्ञान होने पर, सभी ज्ञान प्राप्त होता है यह सिद्धान्त अनेक दृष्टान्तों द्वारा बताया है। आत्मज्ञानी पुनर्जन्म से मुक्त होता है और अज्ञानी पुनर्जन्म के फेरे में घूमता है इसकी चर्चा भी अध्याय में की है। अध्याय-7 : इस अध्याय में ब्रह्म की जिन सोलह स्वरूप में उपासना होती है, उनका निरूपण किया है। अध्याय- 8 : इसके पूर्वार्ध में, अन्तकरण तथा बाह्य विश्व में निवास करने वाले आत्मतत्त्व को प्राप्त करने की विधि बतायी है और उत्तरार्ध में आत्मा के सत्य तथा असत्य स्वरूप का परिचय दिया है। जाग्रत, स्वप्न और सुषप्ति ये आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति की अवस्था में वह अपने निजी विशुद्ध स्वरूप में रहता है, यही सारे प्रतिपादन का अभिप्राय है। केनोपनिषद - इसका संबंध सामवेद की तलवकार शाखा से होने के कारण और (सामवेदीय) तलवकार ब्राह्मण ग्रंथ में इस का अन्तर्भाव होने के कारण, इसको "तलवकार उपनिषद" भी कहते हैं। इस का प्रारंभ, "केनेषितं पतति प्रेषितं मनः" इस प्रथम वाक्य के “केन" शब्द होने से इसे केनोपनिषद कहते हैं। इस के कुल चार खण्डों में प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है: खण्ड - 1 :- आत्मा ही सर्वनियामक किन्तु अज्ञेय और अनिर्वचनीय है। ब्रह्मतत्त्व, वाक् चक्षु, मन इत्यादि इन्द्रियों से अतीत होने के कारण उसकी उपासना असंभव है। लोग जिसकी उपासना करते हैं वह ब्रह्म नहीं है। खण्ड - 2 :- बाह्य वस्तुओं के समान ब्रह्म इन्द्रियगोचर न होने के कारण, शब्द स्पर्श इत्यादि विषयों के रूप में उसका ज्ञान नहीं होता। इसी कारण जो उसे नहीं जानता वही वास्तव में उसे जानता है और यह समझता है कि मै ब्रह्म को जानता 24 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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