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वैदिक उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, मुंडक, श्वेताश्वर और महानारायण की रचना छन्दोबद्ध तथा साहित्यिक गुणों से युक्त है और इनमें आध्यात्मिक विचारों का स्थैर्य विशेष रूप में दिखाई देता है।
अथर्ववेदीय उपनिषद वाङ्मय उत्तरकालीन और बहुसंख्याक है जिसमें गर्भ, पिण्ड, आत्मबोध इत्यादि उपनिषद विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
उपनिषद वाङ्मय के अन्तर्गत अधिकतम 250 तक उपनिषदों का अन्तर्भाव होता है, जिनमें श्रीशंकराचार्य के उत्कृष्ट भाष्यग्रंथों के कारण ईश, केन, कठ इत्यादि दस और ग्यारहवां श्वेताश्वतर विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त अमृतबिंदू, ध्यानबिंदु, कैवल्य, गर्भ, गोपालतापनी, रामपूर्वतापनी, नृसिंहोत्तरतापनी, छुरिका, जाबाल, संन्यास, नारायणीय, महानारायण, मैत्री, योगतत्त्व, सर्व, वज्रसूची इत्यादि 32 उपनिषदों को भी विशेष महत्त्व दिया जाता है।
वैदिक वाङ्मय में जिस "विद्या" का प्रतिपादन हुआ है उसके (1) परा और (2) अपरा नामक दो विभाग किए जाते हैं। चार वेदों को "अपरा'' विद्या और जिसके द्वारा परब्रह्म का साक्षात्कार होता है उसे “परा" विद्या कहा है- (तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदः अथर्वाङ्गिरसः --- । परा च सा यया तदक्षरम् अधिगम्यते (मुण्डकोपनिषद)। इसी परा विद्या को ब्रह्मविद्या अथवा “उपनिषद्" कहते हैं।
__व्याकरण के अनुसार “उपनिषद्' शब्द उप + नि+सद् धातु को क्विप् प्रत्यय लगा कर सिद्ध होता है। उन प्रत्येक का अर्थः- उप - उपगम्य, उपलभ्य। नि-नितरां, निःशेषेण। सद् (मूल धातु षद्लु) = (1) विशरण (नाश करना), (2) गति (गमन करना), (3) अवसादन (शिथिल करना) इस प्रकार भाष्यकारों ने विशद किया है। तदनुसार उपनिषद् शब्द के घटकावयवों का अर्थ जोड़ कर, संपूर्णतया तीन अर्थ व्यक्त होते हैं:- (1) (उप) गुरु के पास जा कर, जिसका (नि) निश्चय से परिशीलन करने पर, अविद्या (अर्थात जन्म-मरण का बीज) का सद् नाश होता है, ऐसी मोक्षदायक विद्या)
(2) गुरु के पास जाकर जिसकी प्राप्ति, मुमुक्षु का निश्चित ही ब्रह्मपद तक गमन कराती है ऐसी मोक्षदायक विद्या। (३) गुरु के पास जाने पर, जिसकी प्राप्ति होने से, जन्ममरण का उपद्रव शिथिल होता है (सद्) ऐसी स्वर्गदायिनी अग्निविद्या ।
तात्पर्य "उपनिषद्" इस स्त्रीलिंगी शब्द का पारिभाषिक अर्थ, मानव का आत्यंतिक कल्याण करने वाली विद्या का प्रतिपादन करने वाले प्राचीन वैदिक वाङ्मयान्तर्गत ग्रन्थ- (उपनिषदिति विद्या उच्यते। तच्छीलिनां गर्भ-जन्म-जरादि- निशातनात् तदवसानाद् वा, ब्रह्मणो वा उपगमयितृत्वात उपनिषद्। तदर्थत्वाद् ग्रन्थोऽपि उपनिषद् (तैत्तिरीयभाष्य की प्रस्तावना)
उपनिषद् शब्द का उपासना (धारणा, ध्यान) अर्थ में भी श्रीशंकराचार्यजी ने अपने भाष्यों में यत्र तत्र प्रयोग किया है। इस का कारण उपनिषदों में ब्रह्मप्राप्ति की विविध प्रकार की उपासनाओं का प्रतिपादन किया गया है।
वैदिक धर्म का स्वरूप प्रवृत्तिपर और निवृत्तिपर है। प्रवृत्तिपर (अभ्युदायात्मक) वैदिक धर्म का मार्गदर्शन मन्त्र-ब्राह्मणात्मक संहिताओं में और निवृत्तिपर (निःश्रेयसात्मक) धर्म का मार्गदर्शन उपनिषदात्मक वैदिक वाङ्मय में मिलता है।
उपनिषदों को ही "वेदान्त" संज्ञा प्राप्त होने का एक कारण यह है कि, कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड इन वैदिक धर्म के तीन काण्डों में से अंतिम ज्ञानकाण्ड (और उसका साधनभूत उपासनाकाण्ड) का प्रतिपादन उपनिषद् वाङ्मय में किया गया है। दूसरा कारण-ईशावास्यादिक उपनिषद, वैदिक संहिताओं के अंत में ग्रंथित हुए हैं।
उपनिषदों में प्रतिपादित आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं साधनाओं का स्वरूप विशद करने की दृष्टि से चारों वेदों के विशिष्ट उपनिषदों का संक्षेपतः परिचय यहां प्रस्तुत किया है।
' ऋग्वेदीय उपनिषद (1) ऐतरेय - इस उपनिषद में केवल तीन ही अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में कहा है कि इस जगत् की निर्मिति जिस परब्रह्म से हुई, उसी का उत्कृष्ट व्यक्त स्वरूप है मानव। मानव के इन्द्रियों, मन और हृदय इन तीन करणस्थानों में आत्मा का निवास होता है और तदनुसार वह जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति (अर्थात गाढतम निद्रा) इन तीन अवस्थाओं का अनुभव पाता है।
द्वितीय अध्याय में, आत्मा के त्रिविध जन्मों का विचार किया है। इस संसार (अर्थात जन्म-मरण चक्र) का अंत अथवा स्वर्गस्थ अमरत्व या पूर्णावस्था ही मोक्ष है। वही मानव का परम पुरुषार्थ है। तृतीय अध्याय में आत्मस्वरूप का वर्णन करते हुए "प्रज्ञान" ही ब्रह्म है यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है।
(2) कौषीतषी उपनिषद- ऋग्वेद के कौषीतषकी ब्राह्मण में विशिष्ट 15 अध्यायों को कौषीतकी आरण्यक मानते हैं। उस आरण्यक के तीन से छः जिन चार अध्यायों का विभाग है उसी का नाम है कौषीतकी उपनिषद। इसमें प्रधानतया मरणोत्तर आत्मा के दो मार्गों का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में प्रज्ञा को ही आत्मा का प्रतिक कहा है। अंतिम दो अध्यायों में ब्रह्मवाद का प्रतिपादन है। कौषीतकी उपनिषद की विशेषत, ज्ञान से कर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन करने में मानी जाती है।
संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/23
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