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है। शुक्ल यजुर्वेद के माध्यन्दिन और काण्व इन दोनों शाखाओं के आरण्यक, माध्यन्दिन आरण्यक और काण्व - बृहदारण्यक नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों बृहदारण्यकों में विशेष अंतर नहीं है।
(5) सामवेद के ताण्डय ब्राह्मण से छांदोग्य उपनिषद संबंधित है । छांदोग्य का प्रारंभिक भाग आरण्यक के समान है।
(6) सामवेद की जैमिनीय शाखा का जैमिनीय ब्राह्मणोपनिषद्ब्राह्मण ही "तलवकार आरण्यक" नाम से प्रसिद्ध है । इस ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद का अन्तर्भाव हुआ है।
ऐतरेय आरण्यक संपूर्ण आरण्यक वाङ्मय में ऋग्वेद के ऐतरेयारण्यक को विशेष महत्व दिया जाता है। सन 1876 में सत्यव्रत सामाश्रमीजी, सायणभाष्य सहित इसका प्रथम मुद्रण किया। सन 1909 में कीथ ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ उसका प्रकाशन किया। इस आरण्यक पर षड्गुरु शिष्य की "मोक्षप्रदा" नामक टीका का निर्देश मिलता है, परंतु वह टीका उपलब्ध नहीं है।
इसमें कुल अठराह अध्यायों का पांच भागों में वर्गीकरण किया है और प्रत्येक अध्याय का विभाजन अनेक खंडों में किया है। प्रथम आरण्यक में गवामयन, महाव्रत, प्रातः सवन, माध्यंदिन सवन और सायंसवन का वर्णन है।
द्वितीय आरण्यक के 4, 5, 6 अध्यायों को ही "ऐतरेय उपनिषद" कहते हैं।
तृतीय आरण्यक में निर्भुज और प्रतृण्ण संहिता (संधि) के भेद और स्वर, स्पर्श, उष्प आदि वर्णों का विवेचन किया है।
चतुर्थ आरण्यक में ऋचाओं का संकलन और पंचम में महाव्रत का सवन तथा निष्कैवल्य शस्त्र (अर्थात् वैदिक स्तोत्र ) का विवेचन किया हैं।
इन पांच आरण्यकों में से पहले तीन आरण्यकों का प्रचार ऐतरेय महीदास ने चौथे का अश्वलायन ने और पांचवे का शौनकाचार्य ने किया है ऐसा माना जाता है। ऐतरेय आरण्यक के विषय प्रतिपादन से आरण्यकों में प्रतिपादित विषयों की स्थूल रूपरेखा समझ में आ सकती है। इसके अतिरिक्त अम्वेद का शांखायन (कौषीतकी), कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय और शुक्ल यजुर्वेद का बृहदारण्यक वानप्रस्थाश्रमी वैदिकों के लिए महत्वपूर्ण है। यज्ञादि महाव्रतों का और होत्रों का विवरण यही सारे आरण्यकों का प्रमुख विषय है ।
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10 उपनिषद् वाङ्मय
वेदान्त वाङ्मय में दशोपनिषद शब्दप्रयोग सर्वत्र रूढ है ।
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इस प्रसिद्ध श्लोक में उन दशोपनिषदों का परिगणन हुआ है
श्रीशंकराचार्यजी ने अपने अद्वैत वेदान्त विषयक भाष्यों में इन दस उपनिषदों के अतिरिक्त वेताश्वतर महानारायण, मैत्रायणी, कौषीतकी और नृसिंहतापिनी इन अवांतर पांच उपनिषदों के भी वचन उद्धृत किए हैं। अतः उनका भी दशोपनिषदों के समान ब्रह्मज्ञान में प्रामाण्य माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता को उपनिषद की मान्यता है। इस प्रकार प्रमाणभूत उपनिषदों की संख्या केवल दस ही नहीं है ।
"ईश-केन- कठ प्रश्नमुंड माण्डूक्य- तित्तिरिः छान्दोग्यम् ऐतरेयं च बृहदारण्यकं तथा ।।
मुक्तोपनिषद नामक ग्रंथ में 108 उपनिषदों के नाम उल्लिखित हैं और चार वेदों के अनुसार उनका वर्गीकरण भी किया है जैसे :ऋग्वेद : 10 उपनिषद । कृष्ण यजुर्वेद 32 उपनिषद, । शुक्ल यजु 19 उपनिषद । सामवेद : 16 उपनिषद और अथर्ववेद : 31 उपनिषद । वेदों की प्रत्येक शाखा का एक एक उपनिषद माना जाता है। मुक्तकोपनिषद में कहा है कि आध्यात्मिक साधक ने आत्मसमाधान के लिए ईशोपनिषद से प्रारंभ करते हुए केन, कठ, प्रश्न इस क्रमानुसार उपनिषदों का स्वाध्याय करना चाहिए। दस उपनिषदों से समाधान प्राप्त नहीं हुआ तो सत्ताईस, बत्तीस, अड़तीस अथवा अन्त में 108 उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिये। इसका अर्थ ब्रह्मजिज्ञासा पूर्ण होने तक साधक ने उपनिषदों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिए।
22 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
मुक्तोपनिषद के वर्गीकरण में वैदिक और अवैदिक इस प्रकार का उपनिषदों का भेद नहीं माना है। अवैदिक माने गए उपनिषदों का अन्तर्भाव सामान्यतः अथर्ववेदीय उपनिषदों में होता है। उनका संबंध पुराण और तंत्रशास्त्र से होता है और उनमें दार्शनिकता की अपेक्षा धार्मिकता पर अधिक बल दिया गया है। डायसन नामक पाश्चात्य मनीषी ने, विषयों की दृष्टि से उत्तरकालीन "अथर्ववेदीय उपनिषदों" का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया है:
(1) वेदान्तसिद्धान्तपरक प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, गर्भ, गारुड इत्यादि । (2) योगसिद्धान्तपरक : अमृतबिन्दु, छुरिका, नाद, बिन्दु इत्यादि । (3) संन्यासधर्मपरक आश्रम, संन्यास, सर्वसार, ब्रह्म, इत्यादि । (4) विष्णुस्तुतिपरक कैवल्य, नीलरूद्र, अथर्वशिरस् इत्यादि ।
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