SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविद्या (माया) के विचित्र प्रभाव के कारण उसका आकलन होना असंभव है। परंतु एकाग्र बुद्धि द्वारा सूक्ष्मदर्शी साधक उसका आकलन कर सकता है। इस लिए कठोपनिषद की इस वल्ली में लय-चिन्तन की साधना का कठिन अभ्यास बताया है। उस अभ्यास के लिए श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी आचार्य को शरण जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। चतुर्थवल्ली - इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति बहिर्मुखी होने के कारण, अन्तरात्मा की ओर प्रवृत्त होना दुष्कर है। परंतु जिस साधक ने बहिर्मुख इन्द्रियों के व्यापार निरुद्ध कर, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया, उस के लिए कुछ भी ज्ञातव्य नहीं बाकी रहता । सर्वज्ञ परमात्म तत्त्व से एकत्व होने के कारण, वह भी सर्वज्ञ होता है और अज्ञानमूलक शोक की बाधा उसे कतई नहीं होती। मनुष्य देह में, अंगुष्ठ-प्रमाण हृदय-कमल के अन्तर्गत निर्धूम ज्योतिःस्वरूप आत्मा का निवास होता है, यह रहस्य जो जानता है, वह अपने शरीर के संबंध में उदासीन हो जाता है। प्रत्येक शरीर में विराजमान आत्मतत्त्व परस्पर भिन्न होता है, ऐसा भेदभाव रखने वाले का अधःपात होता है। भेददर्शन से पुनर्जन्म होता है और अभेद-दर्शन द्वारा जन्म-मरण से मुक्तता प्राप्त होती है, इस सिद्धान्त का यहां प्रतिपादन हुआ है। पंचमवल्ली - नचिकेता का मूल प्रश्न मरणोत्तर जीव की अवस्था के विषय में था। उस प्रश्न का उत्तर इस वल्ली में दिया गया है। “यथाप्रज्ञं संभवः" इस सिद्धान्त के अनुसार मरणोत्तर जीव को जन्मप्राप्ति होती है, परंतु जो साधक इन्द्रियों की बहिर्मुख प्रवृत्ति का निरोध कर, शरीरस्थ हृदयाकाश (अर्थात् बुद्धि) में चैतन्यरूप से अभिव्यक्त परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार पाते हैं, उन्हें शाश्वत शांति का लाभ होता है, अन्य किसी को वह लाभ नहीं होता। षष्ठवल्ली - कार्य के स्वरूप से कारण के स्वरूप का ज्ञान होता है, इस सिद्धान्त के अनुसार, जिस अव्यक्त तत्त्व से संसाररूप अश्वस्थ वृक्ष का विकास हुआ है, वह सनातन होने के हेतु उसका मूल कारण भी सनातन ही होना चाहिए। उस मूल कारण में विकास की शक्ति भी होनी चाहिए। अर्थात् इस समग्र संसाररूप कार्य की उत्पत्ति, स्थिति और विलयं, उस मूल कारण में ही होना चाहिए। घट जिस प्रकार मृत्तिका से विभिन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस ब्रह्माण्ड का कोई भी पदार्थ, उसके मूल कारण से (अर्थात् परमात्मतत्त्व से) विभिन्न नहीं हो सकता। उस सर्वशक्तिमान् परमात्मतत्त्व का जिन्हें ज्ञान होता है, वे "अमृत" होते हैं और जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता, वे अपनी अपनी वासना के अनुसार पुनर्जन्म के फेरे में पड़ते है। अतः इसी नरदेह में परमात्मा का साक्षात्कार पाना ही मानव का परम कर्तव्य है। आत्मसाक्षात्कार की साधना इस अवसर पर मृत्युदेव ने सविस्तर बताई है। इस साधना को ही "योग" कहा है। तदनुसार आत्मज्ञान पानेवाले का शोक नष्ट होता है। यही आत्मज्ञानी का लक्षण है। कठोपनिषद के अन्त में अमृतत्व की प्राप्ति के लिए एक गूढ यौगिक साधना बताई है। तदनुसार मनुष्य शरीर में हृदयस्थान से निकलनेवाली एक सौ एक नाडियों में से सुषुम्ना नामक नाडी द्वारा, हृदयस्थ अन्तरात्मा का शरीर से बाहर संक्रमण होने पर, अमृतत्व की प्राप्ति होती है (तयोर्ध्वमायन् अमृतत्वमेति)। श्वेताश्वतर उपनिषद - कृष्ण यजुर्वेदान्तर्गत इस महत्त्वपूर्ण उपनिषद के प्रवक्ता श्वेताश्वतर ऋषि को, तपःप्रभाव से और देवप्रसाद से जो ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ वह उन्होंने "अत्याश्रमी" (अर्थात परमहंस) ऋषियों को निवेदन किया। इस उपनिषद के छः अध्यायों के 173 मंत्रों में यह तत्त्वज्ञान बताया गया है, जिस में योग, सांख्य, द्वैत, अद्वैत, सगुण, निर्गुण इत्यादि विविध तात्त्विक विषयों का अन्तर्भाव हुआ है। उपनिषदों का अन्तरंग वेदमंत्रों का आध्यात्मिक अर्थ अत्यंत गूढ होने के कारण उसे विशद करने के हेतु उपनिषदों का आविर्भाव हुआ। इसका अर्थ यही है कि अध्यात्मविद्या के विषय में वेदों का जो आशय वही उपनिषदों का भी आशय है। तथापि उपनिषदों के मुख्यतम सिद्धान्त के विषय में मध्ययुगीन श्रेष्ठ विद्वानों में तीव्र मतभेद प्रकट हुए। अन्यान्य आचार्यों ने उपनिषदों का रहस्यभूत सिद्धान्त विभिन्न प्रकार बताया है। जैसे:- (1) श्री शंकराचार्य - अद्वैतवाद, (2) श्री रामानुजाचार्य- विशिष्टाद्वैतवाद, (3) श्री वल्लभाचार्य - विशुद्धाद्वैतवाद, (4) श्रीनिंबार्काचार्य - द्वैताद्वैतवाद (5) श्रीमध्वाचार्य- द्वैतवाद । इस प्रकार आचार्यों ने परस्परविरोधी सिध्दान्त उपनिषदों से कैसे सिद्ध किए इस विषय में बड़ा ही आश्चर्य मालूम होता है और सामान्य स्थूल बुद्धि के जिज्ञासु का संदेह कायम रह जाता है। साम्प्रदायिक लोग अपने अपने आचार्य का सिद्धान्त ही उपादेय मानता है। उपनिषदों का रहस्य प्रतिपादन करने के हेतु भगवान् बादरायण (व्यास ऋषि) ने ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता की रचना की। परंतु उन के भी तात्पर्य के विषय में आचार्यों ने अपने मतभेद कायम रखे हैं। महापंडितों के इस प्रखर मतभेद के कारण, उपनिषदों का सिद्धान्त अब बुद्धिवाद का नहीं अपितु श्रद्धा का विषय बना है। 26 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy