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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दैतवादी, अद्वैतवादी पक्षों के युक्तिवादों का संक्षेपतः परिचय : (1) औतवाद - उपनिषद वेदमूलक हैं। वेदों की "द्वा सुपर्णा सयुजा सखायः (ऋ. 1-164-16) जैसी ऋचाओं में जीवात्मा और परमात्मा का द्वैत स्पष्टतया प्रतिपादन किया है। अर्थात् उपनिषदों में भी उसी द्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन होना चाहिये। औतवाद - द्वैतवाद के प्रतिकूल अद्वैतवादी कहते हैं कि, "ऐतादात्यमिदं सर्वम्, तत् सत्यम् स आत्मा, तत् त्वमसि वेतकेतो। (छांदोग्य अ. 6) “य एवं वेद अहं ब्रह्माऽ स्मीति, स इदं सर्व भवति । तस्य ह न देवाश्च न भूत्या ईशते । आत्मा ह्येषा भवति (बृहदारण्यक) "ओमित्यदक्षरमिदं सर्व तस्य उपव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वम् ओंकार एव । यच्च अन्यत् त्रिकालातीतं तदपि ओंकार एव (माण्डूक्य) इत्यादि वेदवचनों में जीवात्मा, परमात्मा और जगत् इनका अभेद अर्थात अद्वैत स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन किया है, अतः औतवाद ही उपनिषदों का मुख्य सिद्धान्त है। चैतवाद - "ईशावास्यमिदं सर्वम्," "उद्वयं तमस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम्" इत्यादि वैदिक मंत्रों में ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीन तत्वों का स्पष्ट निर्देश होने के कारण "त्रैतबाद" ही वेद-वेदान्त का प्रतिपाद्य सिद्धान्त है। ज्ञान-कर्म-वादी-उपनिषदों में (1) तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति (श्वेताश्व 6/15) (2) तरति शोकम् आत्मवित् (छान्दोग्य-7-1-3) (3) विद्याऽमृतमश्नुते (ईश-11)। इस अर्थ के अनेक वचन मिलते हैं जिन में ज्ञानमार्ग को ही मोक्षसाधन कहा है। कर्ममार्गवादी कहते हैं कि- (1) “अपाम सोमम् अमृता अभूम" (2) अक्षय्यं वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति"। इत्यादि अनेक वचनों में कर्ममार्ग को ही अमृतत्व (अर्थात् मोक्ष) की प्राप्ति का साधन कहा है। ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी- (1) "अविद्यया मृत्यु तीर्खा विद्ययाऽमृतमश्नुते।” (2) तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते।" (3) तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम् । इत्यादि वचनों का प्रमाण लेते हुए, ज्ञान और कर्म का समुच्चय ही मोक्षसाधन मानते हैं। उपनिषदों में ज्ञान, कर्म, द्वैत, अद्वैत इत्यादि सिद्धान्तों के उपोबलक प्रमाण-वचनों का युक्तिपूर्वक समन्वय लगाकर, भाष्यकारों ने अपने अपने सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस प्रकार उपनिषदों का मूलभूत सिद्धान्त यह अत्यंत विवाद्य विषय हुआ है। इन विवादों के अनेकविध मार्मिक युक्तिवाद जानने की इच्छा रखने वालों को श्री शंकराचार्यादि भाष्यकारों के ग्रंथों का पांक्त अध्ययन करता आवश्यक है। भाष्यकारों के शास्त्रार्थ से अलिप्त रहते हुए उपनिषदों के केवल मूलमंत्रों का परिशीलन करने पर एक बात ध्यान में आती है कि सारे ही उपनिषदों में सर्वव्यापी तथा सर्वान्तर्यामी चैतन्यमय परमात्मा का साक्षात्कार करना और जीवात्मा-परमात्मा की एकता का अथवा अद्वैतता की अनुभूति के लिए धारणा और ध्यान की विविध साधनाओं का प्रतिपादन मुख्यतया किया हुआ है। ये साधनाएं अथवा उपासनाएं ही ब्रह्मजिज्ञासुओं के लिए उपनिषदों का विहित आचारधर्म है। वेदों के संहिता-ब्राह्मणात्मक कर्मकाण्ड में प्रतिपादित आचारधर्म और आरण्यक-उपनिषदात्मक ज्ञानकाण्ड में प्रतिपादित आचारधर्म में पर्याप्त अंतर है। कर्मकाण्ड में स्वर्गप्रद ऋतु तथा यज्ञ को महत्त्व है, किंतु ज्ञानकांड में अपवर्गप्रद धारणा तथा ध्यान (अर्थात् अंतरंग योग) पर सारा महत्त्व केंद्रित है। कर्मकाण्ड का उद्दिष्ट ही स्वर्गसुख है किन्तु ज्ञानकांड का उद्दिष्ट मोक्षसुख या ब्रह्मानंद है। परिशिष्ट- ए - वेद और आरण्यक ऋग्वेद से संबंधित ऐतरेय और सांख्यायन आरण्यक। यजुर्वेद कृष्ण से संबंधित तैत्तिरीय, सांख्यायन आरण्यक । यजुर्वेद शुक्ल बृहदारण्यक सामवेद (आरण्यक नहीं है) परिशिष्ट- ओ वेद और उपनिषद ऋग्वेद से संबंधित ऐतरेय, माण्डूक्य, कौषीतकी यजुर्वेद (कृष्ण) से संबंधित तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर यजुर्वेद (शुक्ल) से संबंधित बृहदारण्यक, ईश सामवेद से संबंधित केन, छांदोग्य अर्थर्ववेद से संबंधित प्रश्न, मुण्डक, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 27 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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