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मिलती है। तदनुसार अयोध्या में विक्रमराजा के काल में, वसुबंधु के गुरु बुद्धमित्र को इन्होंने वादविवाद में परास्त किया था। विध्यारण्य में रहने के कारण ही उनका नाम विंध्यवास पडा, वैसे इनका मूल नाम रुद्रिक था। इनके 'हिरण्यसप्तती' ग्रंथ के खंडन में वसुबन्धु ने 'परमार्थ-सप्तति' नामक ग्रंथ लिखा था, किन्तु आज ये दोनों ही ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। विकटनितंबा - प्रसिद्ध कवयित्री- जन्म-स्थान काशी। इनके संबंध में अभी तक अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। राजशेखर ने 'सूक्ति-मुक्तावली' में इनके बारे में अपने विचार प्रकट किये है- (के वैकटनितंबन गिरां गुंफेन रंजिताः । निदंति निजकांतानां न मौग्ध्यमधुरं वचः' ।।) इनकी एक कविता का आशय इस प्रकार है- रे भ्रमर तेरे मर्दन को सह सकने वाली अन्य पुष्पलताओं में अपने चंचल चित्त को विनोदित कर। अनखिली केसर-रहित इन नवमल्लिका की छोटी कली को अभी असमय में क्यों व्यर्थ दुःख दे रहा है। अभी तो उसमें केसर भी नहीं है। बेचारी खिली तक नहीं है। इसे दुःख देना क्या तुझे सुहाता है। यहां से हट जा। कहा जाता है कि इनके पति अशिक्षित थे। विक्रम - पिता- संगम। रचना- नेमिदूत । मेघदूत की पंक्तियों
का समस्यारूप प्रयोग - इस काव्य की विशेषता है। विजयध्वजतीर्थ - द्वैतवादी- संप्रदाय के मुख्य भागवत-व्याख्याकार। इनकी टीका ‘पदरत्नावली' बडी ही प्रामाणिक रचना है और वह इस संप्रदाय के टीकाकारों का प्रतिनिधित्व करती है। संप्रदायानुसार ये पेजावर-पठ के अधिपति थे जो माध्वसंप्रदायी मठों में सप्तक मठ माना जाता है। 'पदरत्नावली' के उपक्रम में इन्होंने अनेक ज्ञातव्य बाते लिखी हैं, जो इनके जीवन पर प्रकाश डालती हैं। इस संबंध में डा. वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी लिखित 'श्रीमद्भागवत के टीकाकार' नामक ग्रंथ में भी पर्याप्त जानकारी अंकित है। आप विजयतीर्थ के शिष्य महेन्द्रतीर्थ के शिष्य थे। (मंगल श्लोक 7) इसमें आनंदतीर्थ की कृति 'भागवत- तात्पर्य- निर्णय' प्रतीत होती है परन्तु परम गुरु विजयतीर्थ की एतद्विषयक कृति गवेषणीय है। गोडीय दर्शनर इतिहास के अनुसार इन्हें नमस्कार तथा निर्देश करने वाले द्वैतवादी कृति को अपने लिये अनुकरण का विषय माना है। व्यास तत्वज्ञ का समय 1460 ई. है। फलतः ये इससे पूर्ववर्ती ग्रंथकार हैं। इनका समय अनुमानतः 1410 ई. - 1450 ई. के लगभग मानना उचित है (मोटे तौर पर 15 वीं शती का पूर्वार्ध)। अपनी 'पद-रत्नावली' में वेदस्तुति के अवसर पर आपने भागवत के पद्यों के लिये उपयुक्त आधारभूत श्रुतिमंत्रों का संकेत किया है। इससे आपके प्रगाढ वैदिक पांडित्य का परिचय मिलता है। विजयरक्षित - सन् 1240 में बंगाल में 'आरोग्यशालीय' पद पर थे। चक्रदत्त के व्याख्याकार निश्चलकर के गुरु । कृति-व्याख्या
मधुकोश जो माधवनिदान नामक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रंथ पर टीका है। विजयराघवाचार्य - तिरुपति देवस्थान के ताम्रपटशिलालेखाधिकारी। रचनाए- सुरभिसन्देश, पंचलक्ष्मी-विलासः (5 सहस्र श्लोक), नीतिनवरत्नमाला, अभिनवहितोपदेशः, कवनेन्दुमण्डली, वसन्तवास, ध्यान-प्रशंसा, दिव्यक्षेत्रयात्रामाहात्म्य, आत्मसमर्पण, नवग्रहस्तोत्र, दशावतारस्तवः, लक्ष्मीस्तुतिः
और गुरुपरंपराप्रभाव। विजयवर्णी - ई. 13 वीं शती। मुनीन्द्र विजयकीर्ति के शिष्य । राजा कामराय से व्यक्तिगत संपर्क था। ग्रंथ-श्रृंगारार्णवचन्द्रिका (दस परिच्छेदों में विभक्त)। विजयविमलगणि - जैनधर्मी तपागच्छीय आनन्दविमलसूरि के शिष्य। समय- ई. 16 वीं शती। ग्रंथ- गच्छाचारवृत्ति नामक विस्तृत ग्रंथ। गच्छाचार पर ही तपागच्छीय विद्वान आनन्द विमलसूरि के ही शिष्य वानरर्षि की टीका उपलब्ध है। विज्जिका (विद्या) - सुप्रसिद्ध कवयित्री। इनकी किसी भी रचना का 'अभी तक पता नहीं चला है, पर सूक्ति-संग्रहों में कुछ पद्य प्राप्त होते हैं। इनके 3 नाम प्राप्त होते हैं- विज्जका, विज्जिका व विद्या। विज्जिका के अनेक श्लोक, संस्कृत
आलंकारिकों द्वारा उद्धृत किये गए हैं। मुकुलभट्ट ने 'अभिधावृत्ति-मातृका' में तथा मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में इन्हें उद्धृत किया है। मुकुलभट्ट का समय 925 ई. के आसपास है। अतः विज्जिका का अनुमानित समय 710 और 850 ई. के बीच माना जा सकता है।। इनके बारे में केवल इतनी ही जानकारी उपलब्ध है कि इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ। इन्हें अपने कवित्व पर कितना अभिमान था, यह इस श्लोक से स्पष्ट है -
नीलोत्पलदलश्यामां विजकां मामजानता। वृथैव दण्डिना प्रोक्तं 'सर्वशुक्ला सरस्वती" ।। अर्थात्- नीलकमल के पत्ते की तरह श्याम वर्ण वाली मुझे समझे बिना ही दंडी ने व्यर्थ ही सरस्वती को 'सर्वशुक्ला' कह दिया। इनकी कविताएं शृंगार-प्रधान है। विज्ञमूरि राघवाचार्य - ई. 19 वीं शती का अंतिम चरण। विजयवाडा के हाइस्कूल में अध्यापक। कृतियां- शृंगार-दीपक (भाण), नरसिंह-स्तोत्र, मानस-संदेश, हनुमत्-सन्देश, रघुवीर-गद्य-व्याख्या और रामानुज-श्लोकत्रयी। विज्ञानभिक्षु - समय- ई. 16 वीं शती का प्रथमाई। काशी के निवासी। इन्होंने सांख्य, योग व वेदांत तीनों ही दर्शनों पर भाष्य रचना की है। सांख्य-सूत्रों पर इनकी व्याख्या 'सांख्यप्रवचनभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने योगसूत्रों के व्यास-भाष्य पर 'योगवार्तिक' तथा ब्रह्मसूत्रपर 'विज्ञानामृत-भाष्य' की रचना की है। इनके अन्य दो ग्रंथ हैं- 'सांख्य-सार' व 'योगसार', जिनमें तत्तत् दर्शनों के सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन है।
448 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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