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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विज्ञानेश्वर ई. 11-12 वीं शती। धर्मशास्त्र और याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिताक्षरा नामक टीका लिखी। भारद्वाज गोत्री । पिता - पद्मनाथ भट्टोपाध्याय । गुरु- उत्तमपाद। आंध्रप्रदेश के कल्याणी नामक स्थान पर छठे विक्रमादित्य के दरबार में आप थे। धर्मशास्त्रवियषक वाङ्मय में विज्ञानेश्वर की 'मिताक्षरा' टीका का महत्त्व अत्युच्च है। दो हजार वर्ष पूर्व के धर्मशास्त्रविषयक विचारों का सार इस ग्रंथ में दिया गया है। अतः दत्तक, उत्तराधिकार आदि हिन्दू कानून में यह ग्रंथ प्रमाण माना जाता है (ग्रंथ-रचना काल 1070-1100 ई. के बीच ) । विज्ञानेश्वर ने दाय को दो भागों में विभक्त किया हैअप्रतिबंध एवं सप्रतिबंध इन्होंने आग्रहपूर्वक कहा है कि वसीयत पर पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। विट्ठल समय- वि.सं. 16 वीं शती । प्रक्रिया-कौमुदी की प्रसाद टीका के लेखक । इन्होंने शेषकृष्ण के पुत्र रामेश्वर (वीरेश्वर) के पास व्याकरण का अध्ययन किया। ये प्रक्रिया- कौमुदीकार रामचंद्र के पौत्र थे । विठ्ठलदेवुनि सुंदरशर्मा देवज्ञशिखामणि वीरराघव शर्मा के छठवें पुत्र माता श्रीगौरी अंबा हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के शोधविभाग में आप कार्यरत रहे। मकुटशतकों की रचना आपकी विशेषता है मकुटनियम याने काव्य के प्रारंभ में और अंतिम चतुर्थ पंक्ति में एकता रखना सुंदरशर्मा ने श्रीनिवासशतक, देवीशतक, वीरांजनेयशतक और शंभुशतक नामक चार शतकों की रचना की है। इन सभी भक्तिप्रधान शतकों में मकुटनियम का पालन किया गया है। आंध्र प्रादेशिक साहित्य में यह पद्धति विशेष लोकप्रिय है । 29 www.kobatirth.org - विट्ठलनाथजी समय- ई. 1515 1594 जन्म- पौष कृष्ण नवमी को काशी के निकटवर्ती क्षेत्र चरणाद्रि (चुनार) में। जगन्नाथपुरी जाते समय इनके पिता आचार्य वल्लभ सपत्नीक यहां रुके थे। यहीं पर वर्तमान आचार्य-व -कूप है। इसी स्थान पर इनका जन्म हुआ। कहा जाता है कि यात्रा में नवजात शिशु की रक्षा न हो सकेगी इस आशंका से आचार्य वल्लभ ने इन्हें यहीं छोड दिया था परंतु जगन्नाथ की तीर्थ यात्रा से लोटने पर किसी अज्ञात व्यक्ति की गोद में शिशु विठ्ठल सुरक्षित मिला उस व्यक्ति ने शिशु को उसके माता-पिता के हाथों सौंपा और स्वयं अदृश्य हो गया। वल्लभाचार्य, विट्ठल को अपने आवास स्थान अडैल (प्रयाग में त्रिवेणी के दक्षिण पार) ले गए। यहाँ पर विठ्ठल के संस्कार एवं शिक्षा-दीक्षा हुई। 15 वर्ष की आयु में ही इनके पिता आचार्य वल्लभ ने अपना शरीर त्यागा। फिर भी इन्होंने वेद-वेदांगों का अध्ययन एवं साप्रदायिक साहित्य का अनुशीलन किया । वल्लभ के ये द्वितीय पुत्र थे । गोसाईजी के नाम से अधिक प्रसिद्ध । अपने पिता के समान विट्ठलनाथ भी गृहस्थ थे। उन्हीं के - - समान गृहस्थों में रह कर ही इन्होंने परमार्थ-चिंतन की अपूर्व निष्ठा निभाई। इन्होंने दो विवाह किए थे। प्रथम पत्नी रुक्मिणी से 6 पुत्र और 4 पुत्रियां थी गढ़ा की रानी दुर्गावती के अत्यधिक आग्रह पर इन्होंने दूसरा विवाह सागर की पद्मावती से किया, जिससे एकमात्र पुत्र घनश्याम हुए। रानी ने मथुरा में इनके निवास हेतु एक भव्य वास्तु का निर्माण कराया, जो सतघरा के नाम से प्रसिद्ध है। सन् 1542 में दुर्गावती ने आचार्य को अपनी राजधानी गढा मंडला में आमंत्रित कर उनका सम्मान किया। सं. 1587 में आचार्य वल्लभ के महाप्रयाण के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी सांप्रदायिक गद्दी के उत्तराधिकारी हुए, किन्तु कुछ ही वर्षों में उनकी लीला समाप्त हुई गोपीनाथ जी की विधवा ने अपने पुत्र पुरुषोत्तम को गद्दी का अधिकारी करवाया। कृष्णदास ने भी पुरुषोत्तमक का ही पक्ष लिया। मतभेद होने के कारण श्रीनाथजी का होही दर्शन विट्ठलनाथ के लिये बंद हो गया दुखी होकर ये पारसोली चले गए और वहीं से नाथद्वारा के मंदिर में झरोखे की ओर देखा करते थे । इसी वियोग- काल में इन्होंने 'विज्ञप्ति' की रचना की, जो आध्यात्मिक काव्य की दृष्टि से एक सुंदर ग्रंथ माना जाता है। कहते हैं कि मथुरा के 'हाकिम' की आज्ञा से जब कृष्णदास बंदी बना लिये गए, तो इन्होंने दुखित होकर अन्न-जल का त्याग कर दिया। कृष्णदास के मुक्त किये जाने पर ही भोजन ग्रहण किया। इस उदात्तता से प्रभावित कृष्णदास ने इनके उत्तराधिकार को स्वीकार कर लिया । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्टि-संप्रदाय की ग्रंथ संपदा वृद्धि, आर्थिक स्रोत- वृद्धि, विस्तार एवं व्याख्या सभी का सब श्रेय इन्हीं का है। ये बड़े विद्वान् तथा आध्यात्मिक विभूति थे। बादशाह अकबर तथा उसके प्रधान दरबारी राजा टोडरमल, राजा बीरबल प्रभृति से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी इसी व्यक्तित्व के वशीभूत होकर अकबर ने गोकुल तथा गोवर्धन की भूमि इन्हें भेट कर दी थी। इस संबंधी दो शासकीय फर्मान आज भी मिलते हैं । तदनुसार ब्रज मंडल में गउएं चराने आदि अनेक करों की माफी का हुक्म गोसाई विट्ठलनाथजी कों बादशाह की ओर से प्राप्त हुआ था । बादशाह की ओर से इन्हें न्यायाधीश के अधिकार भी प्राप्त थे । - - इन्होंने अपने पिता आचार्य वल्लभ के ग्रंथों का गूढ नहीं समझाया, प्रत्युत नवीन ग्रंथों की रचना कर वल्लभ संप्रदाय के साहित्य की वृद्धि की। इनके ग्रंथ प्रौढ, युक्तिपूर्ण एवं विवेचनामंडित हैं। मुख्य ग्रंथों के नाम हैं- (1) अणु-भाष्य-अंतिम डेढ अध्यायों की रचना द्वारा अपने पिता के अपूर्ण ग्रंथ की पूर्ति की, (2) विद्वन्डन, (3) भक्ति-हंस (4) भक्ति-निर्णय, (5) निबंध प्रकाश टीका, (6) सुबोधिनी टिप्पणी और (7) श्रृंगार रस-मंडन। ग्रंथों की कुल संख्या 46 बतायी जाती है। संस्कृत वाङ्मय कोश For Private and Personal Use Only ग्रंथकार खण्ड / 449
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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