________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रकरण-13
अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय
गत शताब्दी से मैक्समूलर, विंटरनिट्झ, कीथ, मेक्डोनेल इत्यादि यूरोपीय पंडितों ने संस्कृत वाङमय का समालोचन एवं विवेचन करने वाले अनेक समीक्षात्मक इतिहासग्रंथ निर्माण किये। इस प्रकार संस्कृत वाङमय का परामर्श लेने वाले वाङ्मयेतिहासात्मक ग्रंथ इस के पूर्व निर्माण नहीं हुए थे। इन यूरोपीय समीक्षकों ने प्रायः 16 वीं शताब्दी तक निर्माण हुए विशिष्ट ग्रंथों का समालोचन करते हुए संस्कृत वाडमय का परिचय दिया और उसका मूल्यमापन करने का प्रयत्न किया। कुछ समीक्षकों ने यूरोपीय वाङ्मय के साथ संस्कृत वाडमय की तुलना प्रस्तुत करते हुए, अपने अनुकूल प्रतिकूल अभिप्राय प्रकट किए। परंतु इन समीक्षकों ने प्रायः 16 वीं शती तक निर्मित ग्रंथकारों का ही परामर्श लिया। पंडितराज जगन्नाथ को संस्कृत वाङमय का अंतिम प्रतिनिधि मानते हुए यह सारा विवेचन अथवा समीक्षण का कार्य इन विद्वानों ने किया।
यूरोपीय पंडितों का आदर्श सामने रखते हुए भारतीय विद्वानों ने भी इसी प्रकार के ग्रंथ बहुत बड़ी मात्रा में अंग्रजी एवं हिंदी-प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं में निर्माण हिए। परंतु इन भारतीय समीक्षाकारों ने प्रायः यूरोपीय विद्वानों का अनुकरण मात्र किया। जगन्नाथ पंडित के पश्चात् संस्कृत वाङ्मय का प्रवाह कुंठित हुआ, संस्कृत भाषा मृतवत् होने के कारण संस्कृत पंडितों की वाङ्मय निर्माण करने की क्षमता नष्टप्राय हुई, इस प्रकार का प्रचार सर्वत्र हुआ। इस प्रचार की वास्तवता या अवास्तवता का परीक्षण किये बिना भारतीय विद्वानोंने भी संस्कृत वाङ्मय का परामर्श लिया गया।
जगन्नाथोत्तर काल में निर्मित साहित्य की ओर संस्कृतज्ञों का ध्यान आकर्षित न होने के कुछ कारण हैं जिनमें प्रमुख कारण यह है कि संस्कृत के विद्वान व्यास, वाल्मीकि, कालिदास बाणभट्ट जैसे प्राचीन साहित्यिकों की लोकोत्तर कलाकृतियों में ही निरंतर रममाण रहे। उन स्वनामधन्य महासारस्वतों के अतिरिक्त अन्य साहित्यिकों एवं शास्त्री-पंडितों द्वारा निर्मित वाङ्मय का अवगाहन या आलोडन करने की इच्छा उनमें कभी अंकुरित नहीं हुई।
दूसरा उल्लेखनीय कारण यह भी कहा जा सकता है कि नवनिर्मित संस्कृत ग्रंथों का मुद्रण एवं प्रकाशन करने में किसी का सहकार्य न मिलने से नवनिर्मित साहित्य का प्रचार अत्यल्प मात्रा में हुआ। भारत के अन्यान्य प्रदेशों में रहने वाले संस्कृत लेखकों का परस्पर संपर्क न होने के कारण बहुत सारा प्रकाशित वाङ्मय भी अज्ञात सा रहा। अ.भा. प्राच्यविद्या परिषद् जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभागों ने भी अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का समुचित संकलन करने में यथोचित तत्परता नहीं बताई। 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का परामर्श लेने की प्रवृत्ति विद्वानों में अंकुरित हुई। डॉ. कृष्णम्माचारियर का "हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर", डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर का "अर्वाचीन संस्कृत साहित्य" 1963 में प्रकाशित (मराठी में), डॉ. हीरालाल शुक्ल का "आधुनिक संस्कृत साहित्य", 1971 में प्रकाशित (हिंदी में), डॉ. उषा सत्यव्रत का ट्वेंटिएथ सेंचुरी संस्कृत प्लेज् (1972 में प्रकाशित) इन ग्रंथों के कारण तथा उसके पूर्व सन 1956-57 में डॉ. वेंकटराम राघवन् द्वारा लिखित आधुनिक संस्कृत वाङ्मय विषयक कुछ अंग्रेजी स्फुट लेखों के कारण अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ।
17 वीं से 20 वीं शती तक का कालखंड संस्कृत वाङ्मय के इतिहास की दृष्टि से अर्वाचीन काल खंड माना जाता है। इस अवधि में पंडितराज जगन्नाथ के समकालीन 104 ग्रंथों के लेखक अप्पय्या दीक्षित, 60 ग्रंथों के लेखक रत्नखेट नीलकण्ठ दीक्षित, 64 ग्रंथों के लेखक घनश्याम कवि, 143 ग्रंथों के लेखक बेल्लंकोंड रामराय, 108 ग्रंथों के लेखक राधा मंडलम् नारायण शास्त्री, 93 नाटकों के लेखक म. म. लक्ष्मणसूरी, 135 ग्रंथों के लेखक पं. मधुसूदनजी ओझा, तथा भट् मथुरानाथ शास्त्री, महालिंग शास्त्री, क्षितीशचंद्र चटोपाध्याय, श्रीपादशास्त्री हसूरकर, काव्यकंठ वासिष्ठ गणपतिमुनि, ब्रह्मश्री कपाली शास्त्री, अखिलानंद शर्मा, स्वामी भगवदाचार्य, पं. दृषीकेश भटाचार्य, आप्पाशास्त्री राशिवडेकर, विधुशेखर भटाचार्य, प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज, वासुदेवानंद सरस्वती, पंडिता क्षमादेवी राव. डॉ. राघवन, डॉ. रामजी उपाध्याय, डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य इत्यादि अर्वाचीन संस्कृत साहित्यिकों कार्य अत्यंत श्लाघनीय है।
संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड/261
For Private and Personal Use Only