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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 निरुक्त भाषिक व्यवहार में अर्थ की अभव्यक्ति शब्दों द्वारा होती है। अर्थ मुख्य और उसे व्यक्त करनेवाले शब्द गौण माने जाते है। शब्द से अर्थ का आकलन प्रायः निरुक्ति द्वारा होता है। विशेषतः वैदिक शब्दों का अर्थ जानने में निरूक्ति ही प्राधान्य से सहायक होती है। ऋग्वेदियों के दशग्रंथ में यास्ककृत निरुक्त का अन्तर्भाव होता है। वस्तुतः यह निरुक्त निघंटु की टीका है। निघंटु याने वेदों के दुर्बोध शब्दों का कोश। महाभारत के अनुसार प्रजापति कश्यप निघंटु के कर्ता माने गए है। निघंटु के प्रारंभिक तीन अध्यायों को नैघण्टक काण्ड कहते हैं, जिसमें एकार्थवाही शब्दों का संग्रह किया हुआ है। चौथे नेगमकाण्ड में अनेकार्थवाही और पांचवे दैवतकाण्ड में वैदिक देवताओं के नाम संकलित किए है। निघंटु पर देवराज यज्वा की "निघंटुनिर्वचन" नामक टीका में नैघण्टुक काण्ड का विवेचन अधिक मात्रा में किया है। इस टीका के उपोद्धात में वेदों के सायणपूर्व भाष्यकारों के संबंध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। भास्करराय ने निघण्टु के सारे वैदिक शब्द अमरकोश की तरह श्लोकों में संग्रहीत किये हैं। यास्काचार्य की “निरुक्त नामक महत्वपूर्ण टीका के पश्चात् निघण्टु और निरुस्त दोनों को मिलाकर “निरुक्त" संज्ञा रूढ हुई । वेदपुरूष के षडंग में इसी निरुक्त की श्रोत्रस्थान में गणना होती है। निरुक्त में शब्दों के केवल अर्थ नहीं होते, अपि तु उसके अंशों की छानबीन कर, अर्थ का ग्रहण किया जाता है। गति, गमन, रति, रमण, जैसे नामों में मूल, गम्, रम् आदि धातुओं से नाम की व्युत्पत्ति की जाती है। वधू जैसे शब्द में वध् धातु दिखता है परंतु वह हिंसार्थक होने से, उस शब्द से मिलते-जुलते वह धातु से वधू शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है। अग्नि जैसे शब्द के विविध अर्थ ध्यान में लेकर उसके स्वर-व्यंजन विभाग कर व्युत्पत्ति की जाती है। शब्द कितना भी दुर्बोध हो तो भी इन प्रकारों में से किसी एक प्रकार से उसकी व्युत्पत्ति करना निरुक्तकार आवश्यक मानते हैं। अनेकार्थक शब्द की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न प्रकार से की जाती है। यास्क के निरुक्त में, नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात के लक्षण, भावविकारलक्षण, पदविभागपरिज्ञान, उपधाविकार, वर्णलोप, वर्णवपर्यय, संप्रसार्य तथा असंप्रसार्य धातु इत्यादि शब्द शास्त्रविषयक विविध विषयों का विवेचन होने के कारण, निरुक्त को व्याकरण का ही एक भाग माना जाता है। संस्कृत भाषा में सारे नाम धातुज होते हैं (नाम च धातुजम्) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन वैयाकरण शाकटायनाचार्य ने किया था। गार्य नामक आचार्य ने इस सिद्धान्त का खंडन किया था परंतु निरुक्तकार यास्क ने गार्ग्य के युक्तिवाद का खण्डन कर, "नाम च धातुजम्" इस सिद्धान्त को अपने वेदांग में प्रतिष्ठित किया। अर्वाचीन भाषाशास्त्री भी निरुक्तकार के इस सिद्धान्त को ग्राह्य मानते हैं। यास्काचार्य का काल पाणिनिपूर्व (ई. 800 से 1000) माना जाता है। उसके पहले भी वैदिक शब्दों का अर्थनिर्धारण करने वाले जो संप्रदाय थे उनका नामनिर्देश निरुक्त में हुआ है जैसे आधिदैवत आध्यात्म, आख्यानसमय, ऐतिहासिक, नैदान, पारिवाजक, याज्ञिक। इनमें 12 नैरुक्त अर्थात् निरुक्तिवादी भी थे :- आग्रायण, औपमन्यव, औदुंबरायण, और्णवाभ, कात्थक्य, क्रौष्टुकी, गार्ग्य, मालव, तैटीकी, आायणी, शाकपूणि और स्थौलष्ठीवी। यास्क ने अपने निरुक्त में शाकपूणि को विशेष मान्यता देते हुए उसके मतों का परामर्श किया है। यास्क के निरुक्त को ही उत्तरकालीन वेदभाष्यकारों ने प्रमाण मान कर वेदार्थ का निर्धारण किया है। निरुक्त के 14 अध्यायों में अंतिम दो अध्याय यास्ककृत नहीं माने जाते। अतः उन्हें परिशिष्ट कहते हैं। कौत्स ऋषि के मतानुसार वेद अर्थरहित माने गए थे। यास्क ने इस विचार का खण्डन, “नैष स्थाणोरपराधः यदेनम् अन्धो न पश्यति । पुरुषापराधः स भवति ।" (निरुक्त-1-16) याने अंधे को खंभा नही दिखता, यह खंभे का अपराध नहीं। यह तो पुरुष का अपराध है, इन तीखे शब्दों में किया है। ___ "स्थानुरयं भारहरः किलाभूत् । अधीत्य वेदान् न विजानाति योऽर्थम्।। योऽर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्रुते । नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।।" इस सुप्रसिद्ध वचन में, यास्क ने वेदों का पठन करने पर उसका अर्थ न जानने वाले की योग्यता भारवाहक स्थाणु के समान कही है। वेदों का अर्थज्ञान प्राप्त करने वाला, पापरहित होकर स्वर्गगमन करता है, इन शब्दों में अर्थज्ञान की प्रशंसा कर कौत्सवाद का खण्डन किया है। निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द पहेश्वर (गुजराथवासी, 7 वीं शती) और वररुचि की टीकाएं उपलब्ध हैं। दुर्गाचार्य ने अपनी वृत्ति में प्राचीन टीकाकारों के मतों का परामर्श किया है। वररुचि के निरुक्तनिचय में यास्काचार्य के सिद्धान्तों का 100 श्लोकों में प्रतिपादन मिलता है। 42 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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