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5 प्रातिशाख्य
वेदांग व्याकरण, को वेदपुरुष का मुख माना है। भगवान पतंजलि ने अपने व्याकरण महाभाष्य में इसे प्रधान अंग कहा है। वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन उन्होंने अनिवार्य माना है। (रक्षार्थं वेदानाम् अध्येयं व्याकरणम्) ।
प्रातिशाख्य नामक वाङ्मय वेदों के शिक्षा, छंद और व्याकरण इन तीन अंगों से संबंधित है। प्रस्तुत ग्रंथ में व्याकरण वाङमय के साथ ही प्रातिशाख्य वाङ्मय का यथोचित परिचय दिया जा रहा है।
वेदों के जो सुप्रसिद्ध छह अंग माने गए हैं उनमें प्रातिशाख्य का निर्देश नहीं है। प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ है, “शाखां शाखां प्रति प्रतिशाखम्"। प्रतिशाखेषु भवं प्रातिशाख्यम्"। अर्थात जिस ग्रंथ में वेद की एक एक शाखा के नियमों का वर्णन हो, वह "प्रातिशाख्य" कहाता है। उपलब्ध प्रातिशाख्यों में एक एक चरण की सभी शाखाओं के नियमों का सामान्य रूप से उल्लेख मिलता है। प्रातिशाख्य के लिए प्राचीन ग्रंथों में पार्षद और पारिषद शब्द की भी प्रयोग होता है। व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि ने “सर्ववेदपारिषदं हि इदं शास्त्रम्"- इन शब्दों में प्रातिशाख्य शास्त्र की प्रशंसा की है।
इस विषय में दो मत हैं। एक मत के अनुसार प्रातिशाख्य, शिक्षा, छंद और व्याकरण इन तीन वेदांगों से संबंधित है। वह उन वेदांगों के सामान्य नियमों की विशेष रूप में स्थापना करता है। दूसरे मत के अनुसार उपर्युक्त तीन वेदांगों ने जिन नियमों का विधान किया, उनसे भिन्न नियमों का विधान इस में होने के कारण, प्रातिशाख्य वेदाध्ययन में अर्थज्ञान के लिए सहाय करने वाला स्वतंत्र शास्त्र है। प्रातिशाख्यों का महत्त्व, वैदिक संहिताओं के पाठ तथा स्वरूप के विषय में विशेष होने के कारण, आचार्य शौनक ने इसे, अनिंद्य, आर्ष और पूर्ण वेदांग कहा है- (कृत्स्रं च वेदांगमनिंद्यमार्षम्- 14-69) ।
व्याकरण शास्त्र के विकास की दृष्टि से प्रातिशाख्य उस शास्त्र की प्रारंभिक अवस्था का द्योतक है। पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में रूढ प्रायः सारे पारिभाषिक शब्द प्रातिशाख्य के ग्रंथों में प्रयुक्त हुए हैं। वैदिक संहिताओं के पाठ और उसका स्वरूप आज तक अविच्छिन्न रखने में, प्रातिशाख्यों के वैदिक भाषा विषयक सूक्ष्म नियम कारणीभूत हुए है। अतः वेदागों का परिचय देते समय, शिक्षा और व्याकरण के बीच में प्रातिशाख्य का परिचय देना अत्यावश्यक है।
ऋक्प्रातिशाख्य - रचयिता- महर्षि शौनक। इस पद्यबद्ध सूत्ररूप ग्रंथ में शिक्षा के विषयों का प्रतिपादन होने के कारण इसे शिक्षाशास्त्र भी कहते हैं। यह प्रातिशाख्य, ऐतरेय आरण्यक के संहितोपनिषद् का अक्षरशः अनुसरण करता है। तथा आरण्यक में निर्दिष्ट माण्डूकेय, माक्षव्य, आगस्त्य, शूरवीर नामक आचार्यों के संहिता विषयक मतों का प्रतिपादन करता है। इस ग्रंथ में ऋग्वेद की एकमात्र उपलब्ध शाकल शाखा की शैशिरीय नामक उपशाखा का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। इस के पारिभाषिक शब्द मौलिक एवं अन्वर्थक हैं। इस के चतुर्दश पटल में ग्रंथकार की भाषा-समीक्षा में सूक्ष्मेक्षिका का दर्शन, उच्चारण दोषों के सूक्ष्म विवरण में होता है।
इस प्रातिशाख्य के 18 पटलों में निम्न प्रकार से विषयों का विभाजन किया है :पटल- (1) स्वर, व्यंजन, स्वरभक्ति, रक्त, नाभि, प्रगृह्य आदि पारिभाषिक शब्दों के लक्षण ।
(2) प्रश्लिष्ट क्षैप, उद्ग्राह, भुग्न आदि नाना प्रकार की संधियों के लक्षण और उदाहरण ।
(3) में स्वरपरिचय और 4 से 9 तक विसर्ग की रेफ में परिणति, नकार के नाना विकार, नतिसंधि, अर्थात् स का ष में और न का ण में परिवर्तन, क्रमसंधि, (वर्ण का द्विर्वचन), व्यंजनसंधि, प्लुतिसंधि आदि विविध सन्धि प्रकारों का विवेचन ।
(10-11)- उदात्तादि स्वरों के परिवर्तन के नियम । (12-13)- पदविभाग, व्यंजनों के रूप तथा लक्षणों का प्राचीन ऋषियों के मतनिर्देश सहित विवेचन ।
(14)- वर्णों के उच्चारण में दोष ।
(15)- वेदपारायण की पद्धति का परिचय । (16 से 18)- गायत्री, उष्णिक्, बृहती, पंक्ति, आदि वैदिक छन्दों का विवेचन । फलतः वेदसमीक्षा के लिए शिक्षाशास्त्र में समाविष्ट विषयों के अतिरिक्त विषयों का प्रतिपादन प्रातिशाख्यों का विषय है। ऋक्प्रातिशाख्य में प्रतिपादित विषयों के परिचय से समग्र प्रातिशाख्य शास्त्र का प्रारूप समझ में आ सकता है।
ऋक्प्रातिशाख्य पर शुक्ल यजुर्वेद के भाष्यकार उवट का भाष्य प्रसिद्ध है। उवट, भोजराजा के शासन काल में (अर्थात् 11 वीं शताब्दी में) अवन्ती नगरी के निवासी थे। अतः ऋक्प्रातिशाख्य का समय 5 वीं या 6 ठी शताब्दी माना जाता है।
वाजसनेयी प्रातिशाख्य- रचयिता- कात्यायन मुनि। यह कात्यायन, पाणिनीय सूत्रों पर वार्तिक लिखने वाले से भिन्न हैं। इनका समय पाणिनि के पूर्व माना जाता है। इस प्रातिशाख्य में अध्याय संख्या आठ और कुल सूत्रसंख्या 734 है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 43
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