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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सोलह संवत् भारतीय काल गणना में 16 प्रकार के संवत् जाते हैं। वे विशिष्ट महापुरुषों के आविर्भाव से संबंधित हैं कल्प संवत् सृष्टि संवत्, वामन संवत् श्री राम, श्री कृष्ण, युधिष्ठिर, द्ध, गावी श्री शंकराचार्य, विक्रम, शालिवाहन कलचुरि क्लची नागार्जुन, बंगाल और हर्ष । सतरहवां शिव संवत् शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से संबंधित है। ज्योतिषशास्त्र के 18 प्रवर्तक :- सूर्य पितामह, व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पुलिश, च्यवन, पवन, भृगु और शौनक । ज्योतिष शास्त्र के 18 सिद्धांत : ब्रह्म सिद्धांत, सूर्य, सोम, वसिष्ठ, रोमक, पौलस्त्य, बृहस्पति, गर्ग, व्यास, पराशर, भोज, वराह, ब्रह्मगुप्त सिद्धान्तशिरोमणि, सुन्दर, तत्वविवेक, सार्वभौम और लघुआर्य सिद्धांत। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 नक्षत्रों के नाम : अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृग, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शततारका, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तरा भाद्रप्रदा और रेवती । इनमें अश्विनी से चित्रा तक 14 देवनक्षत्र और स्वाती से रेवती तक 13 यम-नक्षत्र कहलाते हैं। मृग से हस्त तक नौ नक्षत्र पर्ज्यन्यदायक होते हैं। साठ संवत्सरों के नाम: प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृष, चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, व्यय, सर्वजित् सर्वधारी, विरोधी, विकृति, स्वर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमसंधी, विसंपी, विकारी, शार्वरी, पल्लव, शुभकृत् शोभिन, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्रवेग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत परिधावी, प्रमादी, आनंद, राक्षस, नल, पिंगल, कालयुक्त, सिद्धार्थी, रौद्री दुर्मति, इंदुभी, रुधिरोद्गारी, रक्तरक्षी, क्रोधन ओर क्षय । 17 आयुर्विज्ञान वैदिक विज्ञान के अंतर्गत आयुर्विज्ञान भी परंपरावादियों के मतानुसार अनादि माना जाता है। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में ईश्वर को ही आद्य वैद्य कहा है। वैदिक गाथाओं में वैद्यक शास्त्र से संबंधित कुछ आख्यायिकाएँ प्रसिद्ध हैं जैसे- (1) अश्विनी कुमारों ने वृद्ध च्यवन भार्गव को यौवन मिला दिया। (2) दक्ष का कटा हुआ मस्तक फिर से जुड़ा दिया। (3) इन्द्र को बकरे का शिश्न लगाया गया। ( 4 ) पूषा को नये दांत दिये गये । (5) भग का अंधत्व निवारण किया गया इत्यादि । अथर्ववेद में आयुर्विज्ञान से संबंधित अनेक विषयों का वर्णन होने के कारण, अथर्ववेद को ही “आद्य आयुर्वेद" कहा जाता है। वैस ही आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद तथा अथर्ववेद का उपांग कहा जाता है अथर्ववेद में अस्थती, अपामार्ग, पृविपण इत्यादि वनस्पतियों का औषधि दृष्ट्या उपयोग बताया है, साथ ही मंत्र-तंत्रादि दैवी उपचार भी रोग निवारणार्थ पर्याप्त मात्रा में कहे गये हैं। आयुर्वेद के शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्य, ग्रह, विष ( अगदतंत्र ) और वाजीकरण नामक आठ विभाग प्रसिद्ध हैं। इसी कारण "अष्टांग आयुर्वेद" यह वाक्यप्रचार रूढ है। चरक, सुश्रुत, वाग्भट, धन्वंतरि माधव, भावमिश्र इत्यादि आचार्यो के आयुर्वेद विषय ग्रंथ सर्वत्र प्रमाणभूत माने जाते हैं। अथर्ववेदीय प्रमाणों के अनुसार राक्षसों द्वारा रोगों का प्रादुर्भाव माना जाता है। अतः रोग निवारणार्थ अथर्ववेद में औषधिमंत्रों के प्रयोग बताये गये हैं। चरक-सुश्रुतादि के शास्त्रीय ग्रंथो में भी भूत-पिशाच बाधा के कारण मानसिक रोगों की पीडा मानी गयी है। पूर्वजन्म के पाप इस जन्म में रोग निर्माण करते हैं और इस जन्म में घोर पातक करने वाला अगले जन्म में रोगग्रस्त होता है, जैसे-ब्रह्महत्या करने वाला भावी जन्म में क्षय रोगी होता है। मद्यपान करने वाले के दांत काले होते हैं, अन्न चुराने वाला अग्निमांध से पीड़ित होता है। आधुनिक आयुर्विज्ञान में जंतु के कारण कई रोगों की उत्पति मानी जाती है। प्राचीन आयुर्विज्ञान के ग्रंथों में भी यह जंतु सिद्धांत माना गया था। भगवान बुद्ध के समकालीन जीवक नामक वैद्य बालरोग विशेषज्ञ थे। आयुर्वेद के कुमारभृत्या नामक विशिष्ट अंग के प्रवर्तक, जीवक ही माने जाते हैं। वाग्भट के ग्रंथ में प्रतिपादित शल्यतंत्र या शल्यक्रिया आधुनिक यूरोपीय शस्त्रक्रिया पद्धति (सर्जरी) की जननी मानी जाती है। भारतीय वैद्यों तथा वैद्यक-ग्रंथों को बाहरी देशों में विशेष मान्यता थी। एक कथा के अनुसार वाग्भट की मृत्यु मिस्र देश में हुई थी। चरक और सुश्रुत के ग्रंथ सर्वमान्य थे, अतः उन पर अनेक टीका- उपटीकाएँ लिखी गयीं। बाद में नाडी परीक्षा, रसायन जैसी नई शाखाए निर्माण हुई, किन्तु यथावसर आयुर्वेद की प्रगति कुंठित सी रही रसायनतंत्र का उपयोग आयु तथा बुद्धिसामर्थ्य की वृद्धि करने में विशेष लाभदायक माना जाता है। रसतंत्रकारों में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । नागार्जुन के नाम पर उपलब्ध रसरत्नाकर, रसेन्द्रमंगल, रसकच्छपुट, सिद्धनागार्जुन, आरोग्यमंजरी, योगसार एवं रतिशास्त्र नामक ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं। 5 आयुर्विज्ञान की भारतीय परंपरा अति प्राचीन होने के कारण इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन महर्षियों के तथा उनकी संहिताओं के नामों का उल्लेख होता है। परंपरा के अनुसार ब्रह्मा ने लक्ष श्लोकात्मक ब्रह्मसंहिता निर्माण की थी जिसमें निर्दिष्ट 16 से अधिक योग आयुर्विज्ञान विषयक ग्रंथों में आज भी मिलते हैं। For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 65
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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