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पंचांग के आधार पर किया जाता है। सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों की गति के कारण, काल के प्रस्तुत पांच अंग होते हैं। आकाशस्थ ग्रहों के समयानुसार स्थान का पता ज्योतिर्विद विद्वान पंचांग के आधार पर निर्धारित करते हैं। पंचांग का विकास यथाक्रम होता गया। प्रारंभ में (ई. 16 वीं शती) तिथि और नक्षत्र इन दो अंगों का विचार होता था। बाद में वार और करण का विचार उनके साथ होने लगा। ई. 7 वीं शती में पांचवे अंग "योग" का भी विचार होने लगा। गत दो हजार वर्षो में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, गणेश दैवज्ञ जैसे महान् ज्योतिःशास्त्रज्ञ भारत में हुए । उनके अनुयायी वर्ग द्वारा अन्यान्य पंचांग स्थापित हुए । आज भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जो पंचांग प्रचलित हैं, उनकी निर्मिति सौर, ब्राह्म या आर्य सिद्धान्त के अनुसार हुई है। अतः उनमें एकवाक्यता नहीं है। आज भारत में 30 पंचांग प्रचलित हैं। उन में वर्षारंभ, मासारंभ की एकता नहीं दिखाई देती । मासों के नामों में भी समानता नहीं है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और आन्ध्र में ग्रहलाघव पर आधारित पंचांग होते हैं तामिलनाडु, केरल में आर्वपक्षीय पंचांग होते हैं। बंगाल, ओड़िसा में सौर पंचांग प्रचलित है उत्तर भारत में मकरंद ग्रंथ पर आधारित, मारवाड़ में ब्राह्मणपक्षीय और काश्मीर में खंडखाद्य ग्रंथ पर आधारित पंचांग प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त श्री वैष्णव स्मार्त, माध्व इत्यादि संप्रदायों के भी पंचांग स्वतंत्र होते हैं। इन भारतीय पंचांगों के अतिरिक्त पारसी, मुसलमान और ईसाई संप्रदायों के भी अपने-अपने पंचांग प्रचलित हैं।
पंचांग में सुधार करने के प्रयत्न बार-बार होते रहे। 1904 में लोकमान्य तिलक ने विविध पंचांगों में एकवाक्यता लाने का प्रयत्न किया। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद भारत सरकार ने मेघनाद साह की अध्यक्षता में पंचांग सुधारसमिति नियुक्त की । प्रस्तुत समिति ने 1955 में शालिवाहन शक की वर्षगणना तथा आर्तव वर्षमान स्वीकार कर नया अखिल भारतीय पंचांग प्रचलित किया है, परंतु लोकव्यवहार में उसे अभी तक कोई प्रतिष्ठा नहीं मिली ।
फल ज्योतिष से संबंधित शकुनशास्त्र, निमित्तशास्त्र, स्वशास्त्र, चूड़ामणि शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, रमल शास्त्र, (या पाशक विद्या) लक्षण शास्त्र आय शास्त्र इत्यादि शास्त्रों पर लिखित संस्कृत ग्रंथ अल्पमात्रा में विद्यमान हैं। विज्ञाननिष्ठ नव शिक्षित समाज में इन शास्त्रों के प्रति श्रद्धा नहीं है। ज्योतिष शास्त्रीय परिभाषा :- एक नाडी
स्त्री या पुरुष के जन्म नक्षत्र के अनुसार, आद्य, मध्य और अन्त्य नाड़ी निर्धारित होती है। जन्म नक्षत्रानुसार जिनकी एक ही नाडी होती है, उन स्त्री-पुरुषों का विवाह निषिद्ध माना जाता है।
दक्षिणायन और उत्तरायण। दक्षिणायन का प्रारंभ कर्क संक्रांति से और उत्तरायण का आरंभ मकर संक्रमण से
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दो अयन होता है। दक्षिणायण में सूर्य का अयन (गति) दक्षिण दिशा की और तथा उत्तरायण में वह उत्तर दिशा की ओर दीखता है।
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दो पक्ष शुक्ल और कृष्ण । अमावस्या से पौणिमा तक शुक्ल और पौर्णिमा से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष कहा जाता है।
तीन अमावस्या
(1) आषाढ़ वद्य अमावस्या (दीप पूजा) (2) श्रावण वद्य अमावस्या (पिठोरी) और (3) भाद्रपद वद्य अमावस्या ( सर्वपित्री) ज्योतिष शास्त्र में विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। तीन गण- (1) देव गण (2) मनुष्य गण और (3) राक्षस गण। विवाह संबंध में स्त्री-पुरुष के गण का विचार किया जाता है। साढ़े तीन सुमुहूर्त (1) वर्ष प्रतिपदा (2) अक्षय्य तृतीया (3) विजया दशमी और (4) बलि प्रतिपदा यह अर्ध मुहूर्त माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी मंगल कार्य का शुभारंभ करने के लिए ये मुहूर्त लाभप्रद माने गये हैं ।
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चातुर्मास्य आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का काल । घात चतुष्टय (1) घात चंद्र (2) घात तिथि (3) पंचांग (1) तिथि, (2) वार, (3) नक्षत्र, (4) पंच पर्वकाल- (1) व्यतीपात, (2) वैधृति, (3) अमावस्या तथा पौर्णिमा और रविसंक्रांति ।
षड् ऋतु (1) वसंत = चैत्र बैशाख, (2) ग्रीष्म= ज्येष्ठ-आषाढ, (3) वर्षा श्रावण भाद्रपद, (4) शरद आश्विन कार्तिक । (5) हेमन्त - मार्गशीर्ष पौष । (6) शिशिर माघ-फाल्गुन
कपिला षष्ठी योग = भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की षष्ठी तिथि पर मंगलवार, रोहिणी नक्षत्र और व्यतीपात आने पर कपिला
षष्ठी नामक शुभ योग माना जाता है। यह योग साठ वर्षों में एक बार आता है।
छह काल विभाग (1) वर्ष (2) अयन (3) ऋतु ( 4 ) मास (5) पक्ष और (6) दिन ।
नव ग्रह चन्द्र, सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शनि, राहु और केतु । आधुनिक ज्योतिषी हर्षल (वरुण) नेपच्यून ( प्रजापति) और प्लूटो नामक अन्य तीन ग्रहों का भी विचार करते हैं।
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64 / संस्कृत वाङमय कोश ग्रंथकार खण्ड
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घात नक्षत्र और (4) घात वार ।
द्वादश स्थान तनुस्थान, धन स्थान, पराक्रम स्थान, मातृ, संतति, शत्रु, जाया, मृत्यु, भाग्य, पितृ, लाभ और व्यय । जन्म कुंडली देखते समय इन स्थानों का विचार होता है।
बारह राशियाँ मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ और मीन
योग और (5) करण ।
संक्रांति, (4) पौर्णिमा और (5) अमावस्या अथवा अष्टमी, चतुर्दशी,
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