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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वारा दिया पर ग्रंथ ज्योतिाव वेद भगवान में भारतीय नृपतियों द्वारा दिया हुआ भरपूर योगदान देखते हुए भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का एक अंश ध्यान में आता है। पाश्चात्य नृपतियों में इस प्रकार संगीतशास्त्र पर ग्रंथ लेखन करने वालों की संख्या इतनी बड़ी मात्रा में नहीं है। 16, ज्योतिर्विज्ञान भारत में ज्योतिर्विज्ञान या ज्योतिःशास्त्र की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। वेद भगवान् के षडंगों में ज्योतिःशास्त्र को नेत्र का स्थान दिया गया है- (ज्योतिषासायमन चक्षुः)। वेदों का निर्माण यज्ञों के लिए हुआ। यज्ञों का अनुष्ठान ऋतु, अयन, तिथि नक्षत्रादि शुभ काल के अनुसार होता है और काल का ज्ञान ज्योतिःशास्त्र के द्वारा होता है, अर्थात् ज्योतिःशास्त्र कालविधान का शास्त्र होने के कारण, सम्यक् कालज्ञान रखने वाला ज्योतिर्विद ही यज्ञ को ठीक समझ सकता है। यह आशय, ___ "वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालनुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिष वेद स वेद यज्ञान्" ।। इस सुप्रसिद्ध श्लोक में ग्रथित किया है। ज्योतिषशास्त्र के द्वारा सूर्यादि ग्रहों एवं संवत्सरादि काल का बोध होता है। इस शास्त्र में प्रधानतः आकाशस्थ ग्रह, नक्षत्र , धूमकेतु आदि ज्योतिःस्वरूप पदार्थो का स्वरूप, संचार, परिभ्रमण, काल ग्रहण इत्यादि घटनाओं का निरूपण एवं उनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का भी कथन किया जाता है। वेदांग ज्योतिष के ऋग्वेद ज्योतिष, यजुर्वेद ज्योतिष और अथर्ववेद ज्योतिष नामक तीन विभाग माने जाते हैं। ऋग्वेद ज्योतिष की श्लोकसंख्या 36 है और उसके कर्ता थे लगधाचार्य। इस पर सोमाकर ने भाष्य लिखा है। वेदमंत्रों में ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांत बिखरे हैं। इन मंत्रस्थ सिद्धान्तों के आधार पर ही कालान्तर में ज्योतिषशास्त्र का विकास हुआ। बारह राशियों की गणना, 360 दिनों का वर्षमान तथा अयन, मलमास, क्षयमास, सौरमास, चांद्रमास इत्यादि विषयों का ज्ञान भारतीयों को वेदकाल से ही प्राप्त हुआ था। यजुर्वेद ज्योतिष की श्लोकसंख्या 44 है। इसके कर्ता शेषाचार्य माने जाते हैं। अथर्व ज्योतिष में 14 प्रकरण एवं 162 श्लोक हैं। इसके प्रवक्ता पितामह और श्रोता थे कश्यप। वेदांग ज्योतिष में पांच वर्षों का युग माना जाता है। एक वर्ष में ग्रीष्म, शिशिर और वर्षा तीन ही ऋतुएं माने जाते थे। बाद में दो दो मासों के चार ऋतु और चार मासों की वर्षा ऋतु मिला कर पांच ऋतु माने गए। निमेश, लव, कल, त्रुटी, मुहूर्त, अहोरात्र इत्यादि कालमान वेदांग ज्योतिष में माने गये हैं। क्रांति-वत्त के. समप्रमाण 27 भागों को "नक्षत्र" संज्ञा दी गयी। चंद्रमा एक नक्षत्र में एक दिन रहता है। दिन और रात के 30 मुहुर्त या 60 नाड़ियां मानी जाती हैं। वराहमिहिर के पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रंथ में ज्योतिषशास्त्र के पांच सिद्धान्त बताए हैं :--- (1) पितामह सिद्धान्त, (2) वसिष्ठ सिद्धान्त, (3) रोमक सिद्धान्त, (4) पोलिश सिद्धान्त, एवं (5) सूर्य सिद्धान्त। इनमें रोमक सिद्धान्त ग्रीस देश का और पौलिश सिद्धान्त अलेक्जेंड्रियावासी पौलिश का माना जाता है। सूर्य सिद्धान्त के कर्ता सूर्य नामक आचार्य थे। इसमें मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, त्रिप्रश्राधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, परलेखाधिकार, ग्रहयूत्यधिकार, नक्षत्र-ग्रहयूत्यधिकार, उदयादत्ताधिकार, शृंगोन्नत्यधिकार, पानाधिकार तथा भूगोलाधिकार नामक 10 प्रकरणों में ज्योतिषशास्त्र के महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन हुआ है। विकासकाल ई. 5 वीं शती के बाद ज्योतिष शास्त्र में होरा, बीजगणित, अंकगणित, रेखागणित एवं फलित इत्यादि शाखाओं का विकास हुआ। इस कालखंड में बृहज्जातककार वराहमिहिर, सारावलीकार कल्याणवर्मा (ई. छठी शती) षट्पंचाशिकाकार पृथुयशा, खण्डखाद्यक एवं ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के कर्ता ब्रह्मगुप्त, लघुमानसकार मुंजाल, ग्रहगणित एवं गणितसंग्रह के कर्ता महावीर, रत्नसारपद्धति जैसे ग्रंथों के लेखक श्रीपति, गणितसार और ज्योतिर्ज्ञान के लेखक श्रीधराचार्य इत्यादि विद्वानों ने इस शास्त्र का विकास प्रभूत मात्रा में किया। ई. 10 वीं शती के पश्चात् फलज्योतिष के जातक, मुहूर्त, सामुद्रिक, तांत्रिक, रमल एवं प्रश्न प्रभृति अंगों का विकास हुआ। रमल एवं तांत्रिक का भारतीय ज्योतिष में प्रवेश यवनों के प्रभाव के कारण हुआ। इस कालखंड में सिद्धान्तशिरोमणि एवं मुहूर्तचिन्तामणि के लेखक भास्कराचार्य (ई. 12 वीं शती), अद्भुतसागरकार बल्लालसेन (मिथिला नरेश के पुत्र), ताजिकनीलकण्ठीकार नीलकण्ठ दैवज्ञ, मुहूर्तचिन्तामणिकार रामदैवज्ञ (नीलकण्ठ के अनुज) इत्यादि महान् ज्योतिर्विदों ने इस शास्त्र की प्रगति की। अनेक टीकाग्रंथों का प्रणयन इसी कालखंड में हुआ। ई. 16 वीं शती के बाद शतानंद, केशवार्क, कालिदास, महादेव, गंगाधर, भक्तिलाभ, हेमतिलक, लक्ष्मीदास, ज्ञानराज, अनन्तदेवज्ञ, दुर्लभराज, हरिभद्रसूरि, विष्णु दैवज्ञ, सूर्य दैवज्ञ, जगदेव, कृष्ण दैवज्ञ, रघुनाथ, गोविन्द दैवज्ञ, विश्वनाथ, विठ्ठल दीक्षित, आदि ज्योतिःशास्त्रज्ञ हुए। आधुनिक काल में पाश्चात्य गणित शास्त्र के कुछ ग्रंथों के अनुवाद संस्कृत में हुए। राजस्थान के महाराजा जयसिंह ने जयपुर, दिल्ली, उज्जयिनी, वाराणसी एवं मथुरा में वेधशालाओं का निर्माण कर इस शास्त्र के अध्ययन की विशेष सुविधा उपलब्ध की। पंचाग ज्योतिर्विदों एवं दैवज्ञों के व्यवहार में “पंचांग" का उपयोग सर्वत्र होता है। जिस पुस्तक में तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण, इन काल के पांच अंगों को सविस्तार जानकारी दी जाती है उसे "पंचांग" कहते हैं। कालगणना एवं कालनिर्देश, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/63 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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