________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
3 संस्कृत की लिपि
मोहन जो दडो और हडप्पा में जो प्राचीनतम सामप्री प्राप्त हुई उसमें कुछ लेख भी हैं। ये ऐसी लिपि में हैं जो ब्राह्मी या खरोष्ट्री (जो भारत की प्राचीनतम लिपियां मानी गई हैं) से मेल नहीं खाती। उस लिपि का वाचन करने का प्रयास कुछ विद्वानों ने किया, परंतु उनके वाचन में एकवाक्यता न होने के कारण, वह लिपि अभी तक अवाचित ही मानी जाती है।
अजमेर जिले के बडली या बी गांव में और नेपाल की तराई में पिप्रावा नामक स्थान में दो छोटे छोटे शिलालेख मिले हैं। उनके अक्षर पढे गए हैं, परंतु जिस लिपि में वे लिखे गए है वह सम्राट अशोक से पूर्वकालीन मानी गई है।
वैदिक वाङ्मय, त्रिपिटक साहित्य, जैन ग्रंथ, पाणिनि की अष्टाध्यायी इत्यादि प्राचीन प्रमाणों से प्राचीन भारत की लेखनकला का अस्तित्व प्रतीत होता है और उन प्रमाणों से भारत को लिपिज्ञान पाश्चात्य या चीनी सभ्यता के संपर्क से प्राप्त हुआ इस प्रकार के यूरोपीय विद्वानों के मत का खंडन होता है। जैनों के पन्नवणासूत्र में और समवायंग सूत्र में 18 लिपियों के नाम मिलते हैं। बौद्धों के ललितविस्तर में 64 लिपियों के नाम आए हैं, जिनमें ब्राह्मी और खरोष्ट्री का भी निर्देश है। अशोक के शहाबाजगढी और मनसेहरा वाले लेख खरोष्ठी में है। इसके पूर्व का, इस लिपि का कोई लेख नहीं मिलता। अशोक के बाद यह लिपि भारत में विदेशी राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों में पाई गई है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश और पंजाब में खरोष्ठी के लेख मिले और शेष भाग में ब्राह्मी के लेख मिले हैं। खरोष्ठी, अरेबिक के समान, दाई से बाई और लिखी जाती है। पंजाब में तीसरी सदी तक इस लिपि का प्रचार कुछ मात्रा में था। बाद में वहां से भी वह लुप्त हुई।
भारत की प्राचीन लिपियों में ब्राह्मी अधिक सुचारु और परिपूर्ण लिपि थी। इसी कारण इसको साक्षात् ब्रह्मा द्वारा निर्मित माना गया। इस लिपि की भारतीयता के बारे में पाश्चात्य विद्वानों में दो मत हैं। विल्सन, प्रिंसेप, आफ्रेट मूलर, सेनार्ट, डीके, कुपेरी, विल्यम जोन्स, वेबर, टेलर, बूलर आदि विद्वान इसका मूल भारत के बाहर मानते हैं; परंतु एडवर्ड, टामस, डासन, कनिंघम जैसे पाश्चात्य पंडित और श्रीगौरीशंकर हीराचन्द ओझा, डा. तारापुरवाला जैसे भारतीय लिपि-शास्त्रज्ञों के मतानुसार, ब्राह्मी का उत्पत्तिस्थान भारत ही माना जाता है।
ई. पू. 5 वीं शती से 4 थी शती तक के प्राप्त लेखों में ब्राह्मी लिपि मिलती है। बाद में ब्राह्मी की पांच प्रकार की उत्तरी और छह प्रकार की अवांतर (पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कन्नडी, ग्रन्थलिपि, कलिंग लिपि और तमिल) लिपियां मिलती हैं।
___ उत्तरी ब्राह्मी लिपियों में ई. 8 वीं सदी से प्रचारित हुई नागरी लिपि विशेष महत्वपूर्ण मानी गई हैं। गुजराती और बंगला लिपि में इसका सादृश्य दिखाई देता है। मराठी और हिंदी भाषाओं की यही लिपि है। नेपाल की यह राजलिपि है और संस्कृत के बहुसंख्य प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ इसी लिपि में मिलते हैं। 10 वीं सदी से 12 वीं सदी तक, इस लिपि में यथोचित सुधार होता गया और 12 वीं सदी में उसका वर्तमान रूप सुस्थिर सा हो गया। टंकमुद्रण की सुविधा के लिए, वीर सावरकर, आचार्य विनोबाजी भावे, जैसे मनीषियों ने इस लिपि में कुछ विशेष सुधार सुझाए और स्वराज्यप्राप्ति के बाद भारतीय शासन ने उसका विद्यमान स्वरूप निश्चित किया, जिसमें अंकों के लिए यूरोपीय चिन्ह सार्वत्रिक समानता की दृष्टि से स्वीकृत किए हुए हैं। नागरी को देवनागरी और नन्दिनागरी भी कहते हैं।
अतिप्राचीन काल से संस्कृत भाषा विद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन का और विद्वानों के भाषण तथा लेखन का माध्यम संपूर्ण भारत भर में रहा। अशिक्षित या अल्पशिक्षित समाज में संस्कृत भाषा का लेशमात्र परिचय होने पर भी, उसके प्रति परम श्रद्धा थी और आज भी है। संस्कृत का कोई भी वचन, बहुजन समाज में प्रमाणभूत माना जाता रहा। जातिभेद की कट्टरता तथा छुआछूत की दुष्ट रूढी के कारण निकृष्ट स्तर के समाज में इस भाषा का प्रचार कुछ प्रदेशों में नहीं हुआ। वेदाध्ययन के लिए स्त्रियों तथा निकृष्ट वर्गीयों के लिए मनाई रही किन्तु लौकिक काव्यनाटकादि साहित्य के अध्ययन के लिए तथा पुराण-श्रवण के लिए यह मनाई नहीं थी। परंतु विद्याप्रेमी वर्ग, संपूर्ण भारत भर में संस्कृत का अध्ययन, अध्यापन और लेखन निरंतर करता आया। यह सारा संस्कृतज्ञ वर्ग, अपनी प्रादेशिक भाषा की लिपि के अतिरिक्त देवनागरी लिपि से परिचित रहा। गुजराती लेखन में तो जहां जहां संस्कृत वचन आते है वहां वे देवनागरी में लिखे जाते हैं।
भारत में भाषिक एकात्मता के साथ समान-लिपि का पुरस्कार सभी एकात्मतानिष्ठ सजनों ने सतत किया। संस्कृत के क्षेत्र में यह लिपि की समानता अभी तक सुरक्षित रही है। संस्कृत का प्रचार-प्रसार जिस मात्रा में सर्वत्र बढेगा उतनी मात्रा में भारतीय नेताओं की समान राष्ट्रीय लिपि की अपेक्षा बराबर पूरी होगी।
पाश्चात्य देशों में संस्कृत लेखन या मुद्रण के लिए, वहां की लिपि में, संस्कृत वर्णो के यथोचित उच्चारण के लिए यथावश्यक सुधार कर रोमन लिपि में ही संस्कृत का मुद्रण हो रहा है। परंतु उस आंतरराष्ट्रीय लिपि (इंटरनेशनल स्क्रिप्ट) का भारत के संस्कृतज्ञ समाज में पर्याप्त प्रचार ने होने के कारण, उसके पढने में वे असमर्थ रहते हैं।
अल्पशिक्षित मा वचन, बहुज में इ
4/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only