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संस्कृत की अखंड धारा
संस्कृत भाषा का विभाजन वैदिक और लौकिक इन दो प्रकारों में पाणिनि के समय से ही किया जाता था । पाणिनी अष्टाध्यायी के सूत्रों का प्रकरणशः वर्गीकरण कर, भट्टोजी दीक्षित (ई. 17 शती) ने "सिद्धान्त कौमुदी" नामक जो प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ निर्माण किया, उसमें भी लौकिक शब्दों का विवरण करने के बाद वैदिक शब्दों का विवरण स्वतंत्र खंड में किया है।
समग्र संस्कृत वाङ्मय का विभाजन भी इन्हीं दो विभागों में प्रायः किया गया है। आधुनिक काल में संस्कृत वाङ्मय का पर्यालोचन करने वाले अनेक ग्रंथ भारतीय और अभारतीय भाषाओं में लिखे गए। इन संस्कृत वाङ्मयेतिहास के ग्रंथों में कुछ ग्रंथ केवल वैदिक वाङ्मयेतिहास विषयक और कई ग्रंथ लौकिक संस्कृत वाङ्मय का पर्यालोचन करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध संस्कृत वाङ्मय जैन संस्कृत वाङ्मय तथा प्रादेशिक संस्कृत वाङ्मय का भी पृथक परामर्श लेने वाले इतिहास ग्रंथ प्रसिद्ध हुए हैं।
साहित्य, व्याकरण, तत्वज्ञान, इत्यादि शास्त्रीय विषयों के वाङ्मय के भी इतिहास प्रबन्ध पृथक् पृथक् लिखे गए हैं। हिंदी भाषा में इन सभी प्रकारों के इतिहास प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक शोधछात्र संस्कृत वाङ्मय के किसी विशिष्ट अंग या अंश का सर्वंकष विवेचन करनेवाले शोधप्रबन्ध निर्माण कर रहे हैं। इन सब वाङ्मयेतिहास के लेखकों ने प्रायः 12 वीं या अधिक से अधिक 15 वीं शताब्दी तक निर्माण (और आधुनिक मुद्रणयुग में मुद्रित) हुए वाङ्मय का ही परामर्श लिया है।
संस्कृत वाङ्मय के हस्तलिखित ग्रंथों की सूचियां भी अनेक विश्वविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों के द्वारा निर्माण हुई हैं और हो रही हैं । परंतु इन सभी के लेखकों एवं संपादकों ने 15 वीं या 16 वीं शताब्दी के बाद भी जो भरपूर संस्कृत वाङ्मय सारे भारत के सभी प्रदशों में निर्माण होता रहा और जिसका कुछ अंश प्रकाशित भी हुआ, उसका परामर्श अपने ग्रंथों में नहीं किया। संस्कृत वाङ्मय के इस उपेक्षित निधान की ओर स्वराज्य प्राप्ति के बाद कुछ संस्कृतोपासकों का ध्यान आकृष्ट हुआ उन्होंने अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का सर्वकष परामर्श करने वाले समीक्षात्मक शोध प्रबन्ध लिखे अर्वाचीन संस्कृत साहित्य विषयक प्रबन्धों ने जो एक बड़ा कार्य किया है वह याने यूरोपीय विद्वानों ने 12 वीं शताब्दी के बाद निर्माण हुए संस्कृत वाङ्मय की उपेक्षा करते हुए यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया था कि उस कालमर्यादा के बाद संस्कृत में वाङ्मय निर्मिति हुई नहीं इसका कारण वह "मृत" या "मृतवत्" हो गई थी। लोगों के भाषण व्यवहार में उपयोग न होना और नवीन वाङ्मय की निर्मिति न होना, ये दो प्रमुख कारण, संस्कृत को मृतभाषा घोषित करने के लिए दिए गए और सर्वसामान्य स्तर के सुशिक्षितों ने उन्हें प्रमाणभूत मान कर, संस्कृत को मृतभाषा कहना शुरू किया था। संस्कृत वक्ताओं ने अपने भाषणों द्वारा उसकी सजीवता का प्रमाण निरंतर स्थापित किया और आज भी वे कर रहें हैं। परंतु साहित्यनिर्मिति का प्रमाण उपलब्ध करना कठिन था । अर्वाचीन संस्कृत साहित्य विषयक प्रबन्धों ने वह भी प्रमाण स्थापित कर दिया।
संस्कृत भाषा की और संस्कृत वाङ्मय की, अति प्राचीन काल से अद्यावत् अखिल भारतीयता, उसके प्रति भारत के सभी भाषाभाषी सुबुद्ध जनता की श्रद्धायुक्त आत्मीयता, भारत की विद्यमान सभी प्रादेशिक भाषाओं की शब्दसमृद्धि बढाने की उसकी अद्भुत नवशब्द- निर्माण क्षमता इन तीन कारणों से किसी एक प्रदेश की राज्यभाषा न होते हुए भी संस्कृत समस्त भारत की एक सर्वश्रेष्ठ तथा अग्रपूज्य भाषा मानी जाती है। भारतीय संस्कृति का मूलग्राही एवं सर्वंकष ज्ञान संस्कृत वाङ्मय के अवगाहन से ही हो सकता है यह निर्विवाद सत्य होने के कारण, भारत के बाहर अन्यान्य राष्ट्रों के प्रमुख विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन बड़े आदर से होता है।
आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों के मतानुसार दक्षिण भारत की तमिल, मलयालम, तेलुगु, तुळू, कोडगू, तोडकोटा और कैकाडी भाषाओं को द्राविड भाषा परिवार के अन्तर्गत माना जाता है। साथ ही मध्य भारत की गोंडी, कुरुख, माल्टो, कंध, कुई, और कोलामी जैसी वन्य जातियों की भाषाएं भी द्राविड भाषा परिवार के अन्तर्गत मानी जाती हैं। काल्डवेल नामक भाषा वैज्ञानिक ने, द्राविड भाषाओं का तौलानिक अध्ययन अपने शोध प्रबन्ध द्वारा प्रस्तुत किया है, जिसमें संस्कृत और तमिल भाषा में दृश्यमान भेद विशद करने का प्रयास किया है। इस विभिन्नता के बावजूद, भारत की आर्यपरिवारान्तर्गत भाषाओं के विकास में जिस मात्रा में संस्कृत की सहायता मिली है, उसी मात्रा में द्रविड परिवार की प्रमुख दाक्षिणात्य भाषाओं के विकास में भी संस्कृत की पर्याप्त सहायता मिली है। मलयालम भाषा में तो संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्दों का प्रमाण प्रतिशत 80 तक माना जाता है। भारतीय भाषाओं में जो विभाजन रेखा पाश्चात्य भाषविज्ञों ने निर्माण की है उसे मानने पर भी उत्तर और दक्षिण भारत की न्यान्य भाषाओं को एकात्मक एवं एकरूप करनेवाली भाषा संस्कृत ही है । इस दृष्टि से भारत की भाषिक एकात्मता चाहने वाले सभी सज्जनों को संस्कृत की श्रीवृद्धि करना अत्यावश्यक है ।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 5