________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
और इन पर उनका प्रभाव दिखाई देता है। संस्कृत के ललित वाङ्मय में, अलंकृत महाकाव्यों का ही प्रवाह अखंडित चल रहा है और इस प्रकार के काव्यों की संख्या भरपूर है। अलंकृत काव्यों में बहुसंख्य काव्य पौराणिक विषयों पर आधारित है। ऐतिहासिक काव्यों की संख्या उनसे कम है। तीसरे शास्त्रीय महाकाव्य हैं जिनमें काव्यशास्त्रियों द्वारा प्रणीत शास्त्रों के नियमों का शत-प्रतिशत पालन करने का प्रयास होता है और इस प्रयास के कारण उसमें कथावस्तु को गौणत्व और अलंकार तथा पाण्डित्यप्रदर्शन को प्राधान्य मिलता है। भारविकृत किरातार्जुनीय, माधकृत शिशुपालनवध, श्रीहर्षकृत नैपधीय, वस्तुपालकृत नरनारायणानन्द आदि इस प्रकार के उदाहरण हैं । महाकाव्यों में पाण्डित्यप्रदर्शन करने की एक स्पर्धा सी संस्कृत साहित्यिकों में चलती रही।
इस स्पर्धा में सुबन्धु ने वासवदत्ता नामक "प्रत्यक्षर-श्लेषमयः प्रबन्धः “लिख कर जो पांडित्यपूर्ण कवित्व का आदर्श प्रस्थापित किया, उसका अनुसरण करते हुए अपने काव्यग्रन्थों में विविध प्रकार की क्लिष्टता निर्माण करने वाले साहित्यिकों की एक पृथक् परंपरा प्रचलित हुई। 12 वीं शताब्दी में कविराज ने राघव-पाण्डवीय नामक द्वयर्थी काव्य (जिस में रामायण और भारत की कथा श्लेष के आधार पर एकत्र रची हुई है।), लिख कर "संधान" (या अनेकार्थक) काव्य की प्रथा शुरू की। एक अर्थ के अनेक पर्यायवाची शब्द और एक शब्द के अनेक वस्तुवाचक अर्थ, संस्कृत भाषा के कोष में भरपूर मात्रा में मिलते हैं। संस्कृत शब्दों की इस विशेषता का स्वच्छंद उपयोग करने की शक्ति जिन कवियों में रही उन्होंने इस प्रकार के "संधान" काव्यों की रचना की।
इस परंपरा में उल्लेखनीय काव्य :नाभेय नेमिद्विसंधान काव्य :- ले-सुराचार्य। ई. 12 वीं शती। इसमें नेमिनाथ और ऋषभदेव की कथाएं एकत्रित की हैं। इस प्रकार का अज्ञातकर्तृक और भी एक काव्य उपलब्ध है। कुमारविहार प्रशस्तिकाव्य :- ले. हेमचंद्र के शिष्य वर्धमान गणि। इस काव्य में कुमारपाल, हेमचंद्राचार्य और वाग्भट मंत्री के संबंध में विविध अर्थ निकलते हैं। इस काव्य के 87 वें पद्य के 116 अर्थ निकाले गये हैं। शतार्थिक काव्य :- ले. सोमप्रभाचार्य (वर्धमानगणि के समकालिक)। यह काव्य याने एक मात्र पद्य है, जिससे "स्वयं कवि ने अपनी टीका में 106 अर्थ निकाले हैं, जिनमें 24 तीर्थंकर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तथा चालुक्य नृपति जयसिंह, कुमारपाल, अजयपाल आदि के संबंध में अर्थ निकलते हैं। अष्टलक्षी :- ले. समयसुन्दर। ई. 16 वीं शती। चतुःसन्धान काव्यः- ले. मनोहर और शोभन । सप्तसन्धानकाव्य :- ले. जगन्नाथ। चतुर्विशतिसंधानः :- ले. जगन्नाथ। इसके एक ही श्लोक से 24 तीर्थंकरों का अर्थबोध होता है। सप्तसंन्धान काव्य :- ले. मेघविजय गणि। ई.18 वीं शती। सर्ग-9। प्रत्येक श्लेषमय पद्य से ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व और महावीर इन तीर्थंकरों एवं राम और कृष्ण इन सात महापुरुषों के चरित्र का अर्थ निकलता है। यादवराघवीयम् :- ले. वेंकटध्वरी (विश्वगुणादर्शचम्पूकार) ई.17 वीं शती। राघव-यादव-पाण्डवीयम् (त्रिसंधान काव्य) : ले. चिदम्बर कवि। ई. 17 वीं शती। इस काव्य पर कवि के पिता अनन्तनारायण ने टीका लिखी है। पंचकल्याणचम्पू : ले. चिदम्बर कवि । इसमें राम, कृष्ण, विष्णु, शिव और सुब्रह्मण्य इन पाच देवताओं के विवाहोत्सवों का वर्णन मिलता है। भागवतचम्पू : चिदम्बर कवि । यादव-राघव-पाण्डवीयम् : ले. अनन्ताचार्य। उदयेन्द्रपुर (कर्नाटक) के निवासी। राघवनैषधीयम् : ले. जयशंकरपुत्र हरदत्त । ई. 18 वीं शती। सर्ग 2। कवि ने स्वयं टीका लिखी है। यादव-राघवीयम् : ले. नरहरि । नैषधपारिजातम् : ले. कृष्ण (अय्या) दीक्षित। विषय : नलकथा और भागवत की पारिजातहरण कथा। . कोसल-भोसलीयम् : ले. शेषाचलकवि। सर्ग : 61 प्रस्तुत काव्य में तंजौर नरेश शहाजि (एकोजी का पुत्र) और प्रभु रामचंद्र का चरित्र मिलता है। अबोधाकरम् : ले. तंजौर के तुकोजी भोसले का मंत्री घनश्याम। इसमें नल, कृष्ण और हरिश्चन्द्र के चरित्र मिलते हैं। इसी घनश्याम कवि ने कलिदूषणम् नामक संधान काव्य लिखा है जिसमें संस्कृत और प्राकृत भाषा में अर्थ मिलते हैं। घनश्याम ने प्रचण्डराहूदय नामक लाक्षणिक नाटक भी लिखा है।
16
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 241
For Private and Personal Use Only