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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1) महाकाव्य और (2) कथाकाव्य। महाकाव्य का सविस्तर लक्षण विश्वनाथ ने अपने साहित्य दर्पण में बताया है : "सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः। सवंशः क्षत्रियो वाऽपि धीरोदात्त-गुणान्वितः ।। एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा। शृंगारवीरशान्तानाम् एकोऽङ्गी रस इष्यते ।। अंगानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः। इतिहासोद्भवं वृत्तम् अन्यद् वा सज्जनाश्रयम्।। चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युः तेष्वेकं च फलं भवेत्। आदौ नमस्क्रियाशीर्व। वस्तुनिर्देश एव वा।। क्वचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम्। एकवृत्तमयैः पद्यैः अवसानेऽन्यवृत्तकैः ।। नातिस्वल्पा नातिदीर्घा सर्गा अष्टाधिका इह। नानावृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन दृश्यते।। सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत्। सन्ध्या-सूर्येन्दु-रजनी-प्रदोष-ध्वान्तवासराः ।। प्रातर्मध्याह्नमृगया शैलर्तुवनसागराः। सम्भोग-विप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः ।। रणप्रयाणोपयम-मन्त्रपुत्रोदयास्तथा। वर्णनीया यथायोगं साङ्यपोपाङ्गा अमी इह ।। कवेत्तस्य वा नाम्ना नायकस्येतरस्य वा। नामास्य स्यादुपादेयकथाया सर्गनाम तु ।। (साहित्यदर्पण - 4-315-25) साहित्यदर्पण का यह महाकाव्य-लक्षण सर्वमान्य हो चुका है। यह लक्षण कालिदास, भारवि, माघ इत्यादि प्राचीन महाकवियों के प्रख्यात महाकाव्यों को लक्ष्य रख कर लिखा गया है। इस लक्षण-श्लोकावली के अनुसार महाकाव्य का स्वरूप निम्न प्रकार होना चाहिए: (1) उसका विभाजन सर्गों में होना चाहिए। (2) उसका नायक धीरोदात्त गुणयुक्त कुलीन श्रत्रिय या देवता या एक वंश के अनेक राजा हो। (3) शृंगार, वीर या शान्त अङ्गी रस और अन्य सभी रस अङ्गभूत हों। (4) नाटक के पांचों सन्धियों में कथानक का विभाजन हो। (5) उस का वृत्तान्त ऐतिहासिक या किसी सत्पुरुषों के चरित्र से संबंधित हो। (6) प्रारंभ में नमन, आशीर्वाद, दुर्जननिंदा, सुजनस्तुति हो। (7) उसमें चतुर्विध पुरुषार्घ का प्रतिपादन हो। (8) सर्ग में एक ही वृत्त हो किन्तु अन्त में भिन्न वृत्त में श्लोकरचना हो। सर्गों की संख्या 8 से अधिक हो और उनका विस्तार समुचित हो। किसी एक सर्ग में नाना प्रकार के वृत्तों में श्लोकरचना हो। सर्ग के अन्त में भावी कथा की सूचना हो। (9) निसर्गसौंदर्य तथा नगर, आश्रम, मृगया, युद्ध, शृंगारचेष्टा आदि के वर्णन यथास्थान अवश्य हो। (10) महाकाव्य का नाम कविनाम, नायकनाम इत्यादि से संबंधित हो। सर्ग का नाम, उसमें वर्णित घटना के अनुरूप हो। इसी प्रकार का महाकाव्य का लक्षण दण्डी ने अपने काव्यादर्श में कर रखा है जो प्रस्तुत लक्षण से मिलता जुलता एवं संक्षिप्त है। ___ संस्कृत वाङ्मय में कालिदासकृत रघुवंश, कुमारसंभव, भारविकृत किरातार्जुनीय, माघकृत शिशुपालवध, और श्रीहर्षकृत नैषधचरित, ये "पंच महाकाव्य" सर्वश्रेष्ठ माने जाते है। इनमें उत्कृष्ट कवित्व और श्रेष्ठ पाण्डित्य, दोंनों गुणों का प्रकर्ष दिखाई देता है, अतः इन्हींका अध्ययन प्रायः सर्वत्र होता आ रहा है। 2 महाकाव्य इन सुप्रसिद्ध पंच महाकाव्यों के अतिरिक्त महाकाव्य लक्षणानुसार लिखे गये महाकाव्यों की संख्या बहुत बडी है। इस विभाग के अन्यान्य प्रकरणों में संदर्भानुसार उनका उल्लेख हुआ है। अतः यहां उनकी सूची देने की आवश्यकता नहीं है। महाकाव्यों की परंपरा प्रायः पाणिनि कृत पातालविजय या जाम्बवतीजय महाकाव्य से मानी जाती है। वैयाकरण पाणिनि और महाकवि पाणिनि को डॉ. भांडारकर, पीटरसन, आदि विद्वान विभिन्न मानते हैं, किन्तु डॉ. ओफ्रेक्ट तथा डॉ. पिशेल दोनों में अभेद मानते हैं। पंतजलि ने अपने व्याकरण-महाभाष्य में वररुचि-(वार्तिककार कात्यायन का नामान्तर) कृत काव्य (वाररुचं काव्यम्) का तथा वासवदत्ता, सुमनोहरा, भैमरथी नामक गद्य आख्यायिकों का (जो अनुपलब्ध है) उल्लेख किया हैं। पिंगलमुनि के छन्दःसूत्रों में जिन लौकिक छन्दों का विवरण हुआ है, उनके नामों की काव्यात्मकता एवं शृंगारात्मकता की ओर संकेत करते हुए डॉ. याकोबी ने संस्कृत काव्यों में उनका प्रयोग विक्रमपूर्व शताब्दियों में माना है। इन प्रमाणों के आधार पर संस्कृत भाषा के सरस एवं सालंकृत ललितवाङ्मय का अथवा काव्यों का उदय विक्रमपूर्व शताब्दियों में माना जाता है। महाकाव्यों की यह परंपरा आज की 20 वीं शताब्दी तक अखंडित रूप से चल रही है। वह कभी भी खंडित नहीं हुई। पाश्चात्य समीक्षाशास्त्रियों ने महाकाव्य के दो रूप स्वीकृत किए हैं : 1) संकलनात्मक महाकाव्य (एपिक ऑफ ग्रोथ) और 2) अलंकृत महाकाव्य (एपिक ऑफ आर्ट) रामायण और महाभारत को उन्होंने संकलनात्मक महाकाव्य माना है जिन्हें (उनके मतानुसार) समय समय पर विद्वानों ने परिवर्धित किया है। अर्थात वे इन महाकाव्यों को एककर्तृक नहीं मानते। अलंकृत महाकाव्यों का प्रादुर्भाव रामायण- महाभारत के पश्चात् ही हुआ 240/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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