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प्रकरण-12 "ललित वाङ्मय"
1 प्रास्ताविक रामायण, महाभारत और पुराण वाङ्मय के आख्यान-उपाख्यानों की रोचकता तथा रसात्मकता की अपूर्वता से प्रतिभासम्पन्न विद्वान साहित्यिक अतिप्राचीन काल से प्रभावित होते रहे। इस प्राचीन इतिहास-पुराणात्मक वाङ्मय का दृढ परिशीलन तथा व्याकरण, छन्दःशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र, अध्यात्मविद्या का महान अध्ययन, कथा-आख्यायिकाओं का पठन-श्रवण तथा लौकिक जीवन का सूक्ष्म अवलोकन इत्यादि के संस्कार से जिन की प्रतिभा पल्लवित हुई ऐसे लेखकों ने रस-रीति-अलंकार निष्ठ रमणीय पद्धति की रचना करने की प्रथा शुरू की। इस प्रकार की मधुर रचना का प्रारंभ किस काल में हुआ यह एक विवाद्य प्रश्न है। वास्तव में वेदों की "नारांशसी" गाथाओं तथा कुछ कथाओं एवं आख्यानों में रोचक या चित्ताकर्षक वाङ्मय का मूल स्रोत दिखाई देता है। पुराणों के अनेक आख्यानों, उपाख्यानों में उस रोचकता या रमणीयता का विकास हुआ। रामायण
और महाभारत प्रमुखतया इतिहासात्मक होते हुए भी उनके वर्णनों एवं संवादों में यह वाङ्मयीन रमणीयता का अंश इतनी मात्रा में विकसित हुआ है कि रामायण को आदिकाव्य माना गया और महाभारत को समस्त कविवरों का उपजीव्य आख्यान माना गया। वास्तव में समग्र पुराण वाङ्मय और रामायण, महाभारत तथा (पुराणान्तर्गत) श्रीमद्भागवत संस्कृत भाषा के प्रसन्न, मधुर एवं ओजस्वी, रसात्मक, अलंकारप्रचुर वाङ्मय के उपजीव्य ग्रंथ है। इस प्रकार के शब्द एवं अर्थ की विचित्रता तथा व्यंजकता से ओतप्रोत वाङ्मय को ही "ललित वाङ्मय" संज्ञा दी है। इस ललित वाङ्मय के गद्य, पद्य, महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पू, दूतकाव्य, स्तोत्रकाव्य, नाटकादि रूपक प्रकार, कथा, आख्यायिका इत्यादि अवांतर भेद माने गये हैं। इस ललित वाङ्मय को ही "साहित्य" संज्ञा दी गयी है। .
साहित्य शब्द "सहित" से बना है। इसमें शब्द और अर्थ का सहितत्व अथवा सहभाव अपेक्षित है। दर्शन, शास्त्र, विज्ञान जैसे विषयों के अतिरिक्त, रागात्मक, रसात्मक, तथा कल्पनात्मक रमणीय रचना को ही “साहित्य" कहते हैं। इस प्रकार के लक्ष्य ग्रन्थों का विवेचन करने वाले, भरत भामह, दण्डी, आनंदवर्धन आदि मनीषियों के ग्रंथ "साहित्यशास्त्र" के अन्तर्गत आते हैं और इस प्रकार की शास्त्रानुकूल रचना करने वाले कवि, नाटककार, चम्पूकार आदि लेखक "साहित्यिक" या "साहित्याचार्य" माने जाते हैं। अंग्रजी में लिटरेचर" और उर्दू में "अदब" शब्द साहित्य के अर्थ को धोतित करते हैं। संस्कृत भाषा में "साहित्य" शब्द के अर्थ में सामान्यतः काव्य शब्द का प्रयोग होता है। आचार्य भामह ने (ई.6 श.) "शब्दार्थों सहितौ काव्यम्--" इस अपनी काव्यव्याख्या में साहित्य और काव्य शब्द की समानार्थकता सूचित की है। पंडितराज जगन्नाथ की "रमणीयार्थप्रतिवादकः शब्दः काव्यम्" "इस काव्य व्याख्या में भी शब्द और अर्थ की रमणीयता का सहितत्व (साहित्य) अध्याहत है। मम्मट (ई. 12 वीं शती) की "तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि" इस सुप्रसिद्ध काव्यव्याख्या में, आचार्य हेमचंद्र की "अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थों काव्यम्" इस व्याख्या में और वाग्भट (ई. 12 वीं शती) की शब्दार्थों निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सालंकारौ काव्यम्" इस व्याख्या में निर्दोष, गुणयुक्त तथा अलंकारनिष्ठ शब्द और अर्थ के सहितत्व को ही काव्य कहा है, जिस का स्पष्ट अर्थ यही होता है कि साहित्य और काव्य दोनों शब्द प्रायः समानार्थक हैं।
साहित्यशास्त्रियों ने काव्य का वर्गीकरण अनेक प्रकारों से किया है। उसमें रचना की दृष्टि से "श्राव्य" और दृश्य"नामक दो प्रकार प्रमुख माने जाते हैं। श्राव्य काव्य के तीन भेद होते है :- गद्य, पद्य और मिश्र। गद्य काव्य छन्दों के बन्धनों से मुक्त होता है। फिर भी उसके अपने कुछ आवश्यक नियम होते हैं। गद्य काव्य के "कथा" (कल्पितवृत्तान्त) और "आख्यायिका" (ऐतिहासिक वृत्तान्त) नामक दो प्रमुख भेद होते हैं। कथा का उदाहरण है बाणभट्ट की कादम्बरी और आख्यायिका" का, उसी महाकवि की दूसरी रचना हर्षचरित ।
पद्य याने छन्दोबद्ध रचना। इस के दो भेद होते हैं :- (1) प्रबन्ध काव्य और (2) मुक्तक काव्य। "पूर्वापरार्थधटनै. प्रबन्धः" इस लक्षण के अनुसार पूर्वापर संबंध निर्वाहपूर्वक कथात्मक रचना को "प्रबन्ध" काव्य कहते है। मुक्तक काव्य के पद्य स्वतःपूर्ण होते हैं। स्फुट सुभाषितों एवं स्तोत्रों का स्वरूप मुक्तकात्मक होता है। प्रबन्धकाव्य के दो प्रकार माने जाते हैं :
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 239
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