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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुसलमानी शासन के प्रदीर्घ काल में भारत की नाट्यकला केवल दक्षिण में जीवित सी थी। सर विल्यम जोन्स को भारतीय नाटक का परिचय संस्कृत नाटकों का वाचन करने से हो सका। प्रत्यक्ष प्रयोग वे देख नहीं सके। नाट्यग्रंथों के वाचन से नाटक याने ड्रामा यह अर्थ उनकी समझ में आ सका। उर्दू नाटकों का प्रारंभ मुगल सल्तनत् समाप्त होने के बाद होता है। उस भाषा के रसिकों ने अपने निजी विषयों के अतिरिक्त, नलदमयंती, वीर अभिमन्यु, रुक्मिणीविवाह, गंगावतरण, राजा भर्तृहरि, रामायण-महाभारत के आख्यान आदि संस्कृत विषयों पर नाटक निर्माण किये और उनमें से कुछ लोकप्रिय हुए। महाराष्ट्र में 1841 से नाट्य संस्था का उद्गम सांगली राज्य के अधिपति श्रीमंत आप्पासाहेब पटवर्धन और उनके आश्रित लेखक श्री विष्णुदासजी भावे के प्रयत्नों से हुआ। इससे पहले मराठी में नाटक नहीं थे। श्री विष्णुदास भावेजी का पहला नाटक था सीतास्वयंवर। उनके अन्य सभी नाटक पौराणिक आख्यानों पर आश्रित है। प्रारंभिक मराठी नाटकों की निम्न लिखित नामावली से संस्कृत साहित्य के प्रभाव की कल्पना आ सकती है - __मराठी नाटक :- सुभद्राहरण, वत्सलाहरण, सीताहरण, कीचकवध, दुःशासनवध, वृत्रासुरवध, रावणवध, दक्षप्रजापतियज्ञ, कच-देवयानी, सुरत-सुधन्वा, बाणासुरवध, रासक्रीडा, नरनारायणचरित्र, कौरव पाण्डव युद्ध, किरातार्जुन युद्ध, इन्द्रजितवध, हरिश्चन्द्र इत्यादि। इन संस्कृत आख्यानोपजीवी नाटकों के अतिरिक्त शाकुन्तल, उत्तररामचरित प्रसन्नराघव इत्यादि उत्कृष्ट संस्कृत नाटकों के अनुवादों ने मराठी नाट्यवाङ्मय का पोषण किया है। हिंदी में वाराणसी के बाबू हरिश्चन्द्र से जो नाट्य वाङ्मय की परम्परा निर्माण हुई उसमें, संस्कृत-आख्यानोपजीवी नाटकों की संख्या पर्याप्त मात्रा में बड़ी है। भारत के सभी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्येतिहास अब प्रकाशित हो चुके हैं। उन सभी भाषाओं के नाट्य वाङ्मय के प्रारंभिक काल में संस्कृत आख्यानों एवं नाट्य ग्रन्थों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। 17 अर्वाचीन संस्कृत नाटक प्रादेशिक भाषाओं में नाटक वाङ्मय की निर्मिति का प्रारंभ 19 वीं शती में हुआ। संस्कृत की नाट्य वाङ्मय परम्परा अति प्राचीन काल से अखिल भारत में अखंड चालू रही। नाट्य ग्रंथों की निर्मिति (और उन नाट्यों के प्रयोग) संस्कृत जगत् में कभी बंद नहीं रही। कराल काल के प्रभाव से अभी तक कितने नाटकों का विलय हुआ यह कहना असंभव है। फिर भी आज जितना नाट्य वाङ्मय उपलब्ध है उसमें निर्मिति का कार्य सतत दिखाई देता है। पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत वाङ्मय का परामर्श लेने वाले अपने ग्रंथों में 16 वीं शताब्दी के बाद की संस्कृत साहित्य की निर्मिति की और ध्यान न देते हुए, उस वाङ्मय प्रवाह को खंडित मान कर, संस्कृत को "मृत" कहने का दुस्साहस किया। परंतु उस 16 वीं शताब्दी के बाद जो विपुल वाङ्मय सभी विषयों में संस्कृत के विद्वानों ने निर्माण किया, उसमें नाट्य ग्रंथों का प्रमाण भरपूर है। प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश में अनेक आधुनिक नाटकों एव नाटकलेखकों का परिचय यथाक्रम दिया है। इन आधुनिक नाटकों में कालिदास, भवभूति वाङ्मय के अध्ययन के कारण, उस नवीन पद्धति का अनुसरण तथा पाश्चात्य नाट्यवाङ्मय के अध्ययन के कारण, उस नवीन पद्धति का भी अनुकरण अनेक लेखकों ने किया है। इस आधुनिक कालखंड में पचास से अधिक प्रतिभासंपन्न नाटककार और उनके द्वारा लिखित सवासौ से अधिक उत्कृष्ट नाट्य ग्रंथों का प्रणयन हुआ है। मध्यम और निकृष्ट श्रेणी की रचनाओं को ध्यान में लेते हुए यह संख्या काफी बड़ी होती है। प्रादेशिक भाषाओं के अर्वाचीन नाट्यवाङ्मय में, देशकाल परिस्थिति के प्रभाव के कारण, जितनी विविधता निर्माण हुई, उतनी आधुनिक संस्कृत नाट्य वाङ्मय में भी दिखाई देती है। दुर्भाग्य यही है की आज की विशिष्ट परिस्थिति में, अनेक कारणों से संस्कृत भाषा और संस्कृत विद्या का मौलिक अध्ययन करने वालों की संख्या में सर्वत्र हास होने के कारण, संस्कृत साहित्यिकों के इस कर्तृत्व की ओर शिक्षित वर्ग का भी ध्यान नहीं है। -238 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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