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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वेंकट ( पिता - वेदान्तदेशिक) शंकरनारायण श्रीनिवास श्रीनिवास वेदान्ताचार्य रंगनाथ महादेशिक श्रीनिवास (वरदाचार्य पुत्र) रामचंद्र विजिमूर राघवाचार्य गीर्वाणेन्द्र (पिता- नीलकंठ दीक्षित) काश्यप (अभिनव कालिदास) गोपालराय वैद्यनाथ (पिता- कृष्णकवि) अविनाशीश्वर राजचूडामणि दीक्षित नृसिंह (मदुरानिवासी) रामव युवराज कोरड रामचंद्र रामभद्र वेंकटाचार्य (सुरपुरवासी) www.kobatirth.org | | | | | | 1 रसिकजनरसोल्लास. रसिकामृत. रसिकरंजन. रसोल्लास संपतकुमार विलास. (अथवा माधवभूषण) शारदानंदन. सरसकविकुलानंद, शृंगारदीपक. शृंगारकोश. संगार कोश. शृंगारमंजरी (श्रीरंगराज) शृंगार पावन. शृंगारसर्वस्व शृंगारसर्वस्व. शृंगारस्तबक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शृंगार सुधाकर. शृंगारसुधार्णव. शृंगारतरंगिणी शृंगारतरंगिणी इनके अतिरिक्त कुछ अप्रसिद्ध लेखकों के भाण :- चंद्ररेखाविलास, कुसुमकल्याणविलास, मदनभूषण, पंचबाणविलास, शृंगारचन्द्रिका और शृंगारजीवन । भाणों की इस नामावली में निर्दिष्ट नामों से इनके अंतरंग का शृंगारिक तथा कामप्रधान स्वरूप ध्यान में आ सकता है। अनेक भाणों से संकलित की गई कथावस्तु में कुक्कुटयुद्ध, अजयुद्ध, मल्लयुद्ध, सपेरों एवं जादुगरों के खेल, उन्मत्त हाथी के कारण भगदड़, वेश्याओं की बस्तियों का कामुक वातावरण, व्यभिचारी युवक वर्ग, इस प्रकार के दृश्य चित्रित किए हैं। सामान्य रसिकों के मनोरंजन में ऐसे दृश्य सहायक होने के कारण भाण रूपक लिखने में अच्छे ख्यातनाम साहित्यिकों ने भी रुचि दिखाई है For Private and Personal Use Only मिश्रभाण :- इस रूपक प्रकार का निर्देश, शाहूदेव कृत संगीतरत्नाकर (13 वीं शती) की काशीपति कविराज कृत टीका में किया हुआ है। इसी कविराज ने मुकुंदानंद नामक मिश्रभाण लिखा है। रामसुकविशेखर (अथवा लिंगमगुंटराम) का शृंगाररसोदय भी मिश्र भाग है। मुकुंदानंद में नायक भुजंगशेखर कृष्णरूपी होकर गोपियों से क्रीडा करता है। इस प्रकार एक ही पात्र की दो भूमिका के कारण इस रूपक को "मिश्रभाण" संज्ञा दी गई होगी। कुछ नाट्यशास्त्रियों ने "भाणिका" नामक एक रूपक प्रकार माना है। रूपगोस्वामी की दानकेलिकौमुदी भाणिका मानी जाती है। साहित्यदर्पण में निर्दिष्ट श्रीगदित नामक उपरूपक प्रकार के अंतर्गत माधवकृत सुभद्राहरण की गणना की जाती है। 16 संस्कृत नाट्य का सर्वात्रिक प्रभाव प्राचीन काल में भारत ने बाहर के देशों में अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक योगदान दिया है रामायण, महाभारत और बौद्ध कथाओं तथा पंचतंत्र की राजनीतिक कथाओं का बाह्य देशों में मध्ययुग में प्रचार हुआ था। पूर्व और मध्य एशिया के अनेक राष्ट्रों में इन के अनुवाद योजनापूर्वक करवाए गए। जावा में 11 वीं शताब्दी से पहले ही नाट्यकला का विकास हुआ था । विशेषतः छायानाटकों के प्रयोग उस देश में विविध प्रकारों से प्रदर्शित होते है उनमें "व्यंग पूर्वा" नामक छायानाटकों के संविधानक, रामायण, महाभारत और उस देश के मनिकमय नामक ग्रंथों के आख्यानों पर आधारित होते है । जावानी नाटकों में भारतीय नाटकों का "सूत्रधार" "दलंग" नाम से पहचाना जाता है। "दलंग" शब्द का अर्थ है सूत्र हिलाने वाला । 1 मलाया, ब्रह्मदेश, सयाम और कांबोडिया में, रामचरित्र परक नाटकों के प्रयोग आज भी लोकप्रिय हैं। इन सभी पौरस्त्य देशों में छायानाटक विशेष प्रचलित हैं। संस्कृत वाङ्मय में एकमात्र "दूतांगद" छाया नाटक प्रसिद्ध है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रयोग प्रकार उन देशों के संपर्क के कारण भारत में प्रचलित हुआ परंतु वह यहां सर्वत्र लोकप्रिय नहीं हो सका। चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण वहां की नाट्यसृष्टि में भी अहिंसादिक बौद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले धार्मिक नाट्यमंच निर्माण हुए। संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 237
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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