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कंकणबन्धरामायण : ले. कृष्णमूर्ति । ई. 19 वीं शती । इस एक अनुष्ठभ् श्लोकात्मक रामायण में 64 अर्थ मिलते हैं। यह श्लोक कंकणाकृति या मंडलाकार लिखा जाता है, और सव्य तथा अपसव्य दिशा से पढ़ा जाता है। इसी प्रकारका कंकणबन्ध रामायण चारला भाष्यकार नामक कवि ने (ई. 20 वीं शती) लिखा है। निवासस्थान: काकरपर्ती (कृष्णा ज़िला आंध्र प्रदेश) ।
जैन स्तोत्र साहित्य में इसी अनेकार्थक पद्धति से रचित कुछ स्तोत्र उपलब्ध हैं।
नवखंड पार्श्वस्तव : ले. ज्ञानसूरि । विविधार्थमय सर्वज्ञस्तोत्र : ले. सोमतिलकसूरि । नवग्रहगर्भितपार्श्वस्तवन : ले. राजशेखरसूरि । पंचतीर्थीस्तुति: ले. मेघविजय । द्वयर्थकर्ण पार्श्वस्तव : ले. समयसुन्दर । इत्यादि । (प्राचीन साहित्योद्धार ग्रन्थावली ( अहमदाबाद ) द्वारा प्रकाशित अनेकार्थ साहित्य संग्रह नामक ग्रंथ में इस प्रकार के कुछ जैन काव्यों का संकलन किया गया है। ये सारे सन्धानकाव्य, व्याख्या के बिना दुर्बोध होते हैं। अतः इन काव्यों के लेखकों या उनकी परंपरा के अन्य विद्वानों को उन पर टीकाएं लिखनी पडी।
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इस प्रकार के “व्याख्यागम्य" काव्यों का और एक प्रकार चौथी या पांचवी शताब्दी में प्रारंभ हुआ। इन काव्यों रयचिताओं ने अलंकार तथा व्याकरण शास्त्र का बोध अपने शिष्यों तथा पाठकों को देने के हेतु ग्रंथनिर्मिती की । भट्टिकाव्य इस प्रकार का प्रथम काव्य है जिसकी रचना ई. 4-5 वीं शती में हुई। इस महाकाव्य के प्रकीर्ण, प्रसन्न, अलंकार और तिङन्त नामक चार भाग हैं। इनमें पाणिनीय सूत्रों के क्रमानुसार व्याकरण शास्त्र के सारे उदाहरण उपलब्ध होते हैं। दसवें सर्ग में अलंकारों के सारे उदाहरण उपलब्ध होते हैं। अपने इस काव्य की शास्त्रनिष्ठता का अभिमान व्यक्त करते हुए भट्टि (या भर्तृहरि) कहते हैं।
दशाननवधम् ले योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि ।
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"व्याख्यागम्यमिदं काव्यम् उत्सवः सुधियामलम् । हता दुर्मेधसास्मिन् विद्वत्प्रियतया मया (11-34)
अर्थात् यह मेरा कव्य व्याख्या की सहायता से ही समझने योग्य है, अतः बुद्धिमान् पाठकों को इसमें भरपूर आनंद मिलेगा। मेरी विद्वप्रियता के कारण बुद्धिहीन पाठक इसमें नष्ट होंगे। भट्टिकाव्य की इस विशिष्ट प्रणाली में निर्माण हुए कुछ उल्लेखनीय काव्य :
रावणार्जुनीयम्: ले. भूम (अथवा भौमिक) कवि। ई 7 वीं शती । सर्ग 27, विषय कार्तवीर्य का चरित्र । इसमें अष्टाध्यायी के उदाहरण मिलते हैं।
पाण्डवचरितम् : ले. दिवाकर। सर्ग 14। यह काव्य व्याकरणशास्त्रनिष्ठ है ।
धातुकाव्यम् और सुभद्राहरणम् : ले. नारायण । पिता ब्रह्मदत्त । दोनों काव्य व्याकरणनिष्ठ है।
वासुदेवविजयम् : ले. वासुदेव
श्रीचिह्नकाव्य : ले. कृष्णलीलाशुक । सर्गसंख्या 12। इसके अंतिम चार सर्ग कवि के शिष्य दुर्गाप्रसाद ने लिखे हैं; जिनमें त्रिविक्रमकृत व्याकरण के उदाहरण उद्धृत हैं। कृष्णलीलाशुक द्वारा लिखित भाग में वररुचि के प्राकृत उदाहरणों का प्रयोग हुआ है। रघुनाथभूपालीयम् : ले. कृष्ण पंडित । तंजौरनरेश रघुनाथनायक के सभापंडित । सर्ग 8। इसमें कवि ने अलंकारों के उदाहरणों द्वारा अपने आश्रयदाता का चरित्र वर्णन किया है। इसकी टीका विजयेन्द्र तीर्थ के शिष्य सुधीन्द्रतीर्थ ने रघुनाथनायक के आदेशानुसार लिखी । रामवर्मयशोभूषणम् ले सदाशिव मखी पिता कोकनाथ (या चोक्कनाथ) विषय त्रिवंकुर नरेश रामवर्मा का चरित्र यह
अलंकारशास्त्रनि काव्य है।
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माधवराव पेशवा (प्रथम) और रघुनाथराव पेशवा का अलंकारनिष्ठ गुणवर्णन। विषय त्रिवांकुरनरेश विशाखराम वर्मा की स्तुति ।
ठगोप- गुणालंकार - परिचर्या : ले. श्रीरंग नगर के भट्ट कुल में उत्पन्न अज्ञातनामा । ई. 17 वीं शती । विषय षठगोप नम्मालवार साधु की अलंकारनिष्ठ स्तुति । अलंकारमंजूषा ले. देवशंकर ई. 18 वीं विषय अर्थचित्रमणिमाला : ले. म.म. गणपतिशास्त्री लोकमान्यालंकार : ले. गजानन रामचंद्र करमरकर इन्दौर के निवासी लोकमान्य तिलकजी का अलंकारनिष्ठ गुणवर्णन | अलंकारमणिहार ले. ब्रह्मतंत्र परकालस्वामी जो पूर्वाश्रम में कृष्णम्माचार्य नामक मैसूर में वकील थे। विषय वेंकटेश्वरस्तुति । इसी परंपरा में विविध छन्दों के लक्षणसहित उदाहरण प्रस्तुत करने वाले रामदेवकृत वृत्तरत्नावली, गंगादासकृत छन्दोमंजरी, वसंत त्र्यंबक शेवडे कृत वृत्तमंजरी इत्यादि काव्य लिखे गये, जिनका विषय विशिष्ट देवता की स्तुति है।
242 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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"कथाकाव्य"
प्रबन्ध का दूसरा प्रकार है कथाकाव्य जिसमें रसात्मक एवं अलंकारप्रचुर शैली में रोमांचक तत्त्वों के समावेश के साथ कथावर्णन होता है। यह छंदोबद्ध रचना होने से गद्यात्मक आख्यायिका एवं कथा से भिन्न है परंतु गद्य पद्य का भेद छोड़
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