________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दिया जाय तो तत्त्वतः उनमें भेद नहीं। कथा के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण विषय, शैली, पात्र, एवं भाषा के आधार पर किया गया है। विषय की दृष्टि से कथाएं चार प्रकार की होती हैं :
धर्मकथा, अर्थकथा, कामकथा, और मिश्रकथा। इनमें से धर्मकथा के चार भेद किए जाते हैं। आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निवेदनी। मिश्रकथा में मनोरंजन और कौतुकवर्धक सभी प्रकार के कथानक रहते हैं। पात्रों के आधार पर दिव्य, मानुष्य और मिश्र कथाएं कही गई हैं। भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत और मिश्र रूप में कथाएं लिखी गयी हैं। शैली की दृष्टि से सकलकथा, खंडकथा उल्लाघकथा, परिहासकथा और संकीर्ण कथा के भेद से पांच प्रकार की कथाएं मानी गयी हैं। इनमें सकलकथा और खंडकथा प्रमुख हैं। सकलकथा का कथानक विस्तृत होता है और उसमें अवान्तर कथाओं की योजना होती है। प्रद्युम्नसूरिकृत समरादित्यचरित, जिनेश्वरसूरिकृत निर्वाणलीलावती आदि सकलकथा के उदाहरण हैं। इन भेदों के अतिरिक्त कथानक की दृष्टि से प्राचीन कथासाहित्य का स्वरूप बहुतही वैविध्यपूर्ण है। इनमें नीतिकथा, लोककथा, पुरातनकथा, दैवतकथा, दृष्टान्तकथा, परीकथा, कल्पितकथा आदि अनेकविध प्रकार मिलते हैं। प्राचीन इतिहास एवं पुराण वाङ्मय में कथाओं का भंडार भरा हुआ है। उन सभी कथाओं में उपरि निर्दिष्ट कथाप्रकार बिखरे हुए हैं।
__ कथा का लक्षण अमरकोश में "प्रबन्धकल्पना कथा" इस प्रकार किया है। इस लक्षण का विवरण करते हुए सारसुन्दरीकार कहते हैं, "प्रबन्धेन कल्पना अर्थात् प्रबन्धस्य अभिधेयस्य कल्पना स्वयं रचना" अर्थात् जिस रचना में वक्तव्य विषय की रचना लेखक द्वारा अपनी कल्पना के अनुसार होती है, ऐसी रचना को कथा" कहते है। भरत के मतानुसार कथा "बहनृता स्तोक सत्या" (बहुत अंशमें असत्य और अल्प अंश में सत्य) होती है।
भारतीय कथा साहित्य का मूलस्रोत वैदिक वाङ्मय में मिलता है। वैदिक कथाओं का संग्रह सर्वप्रथम शौनक ने अपने बृहद्देवता ग्रंथ में किया। इस संग्रह में 48 कथाएं मिलती हैं। जिनको शौनक ने ऐतिहासिकता का महत्त्व दिया है। रामायण, महाभारत, पुराणवाङ्मय, त्रिपिटक, जैनपुराण एवं चूर्णियाँ इत्यादि में उपलब्ध बहुत सारी कथाओं का स्वरूप धार्मिक दृष्ट्या महत्त्वपूर्ण है। इन धर्मकथाओं का प्रवचन और श्रवण पुण्यदायक माना जाता है। नीतितत्त्वप्रधान कथाओं का संग्रह जैन कथाकोश, बौद्धजातक, पंचतंत्र, कथासारित्सागर जैसे ग्रन्थों में हुआ है। नीतिपरक कथासंग्रहों की दृष्टि से जैन और बौद्ध वाङ्मय विशेष समृद्ध हैं। बौद्ध जातक कथाओं की संख्या 550 है। बौद्धों का "अवदान" साहित्य भी इसी प्रकार का है। पंचतंत्र, हितोपदेश और कथासरित्सागर में सामान्य जनजीवन की पृष्ठभूमि पर आधारित व्यवहारिक नीतितत्त्वों का प्रतिपादन हुआ है। इन सभी नीतिकथाओं का प्रभाव सारे संसार के कथावाङ्मयपर अतिप्राचीन काल में पड़ा है।
नीतिकथाओं का उद्गम वैदिक ब्राह्मण वाङ्मय में हुआ। इन कथाओं में प्राणिकथाओं या जन्तुकथाओं का प्रवेश, महाभारत की नीतिकथाओं के द्वारा हुआ। जिन धर्मसंप्रदायों में कर्मकाण्ड की अपेक्षा नीतिनिष्ठ जीवन को ही धार्मिक दृष्टि से अधिक महत्त्व दिया गया ऐसे जैनो बौद्ध, वैष्णव और शैव संप्रदायों में सभी प्रकार की नैतिक कथाओं, तीर्थकथाओं और व्रतकथाओं को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ। इन संप्रदायों ने अपने उदात्त धर्मविचारों का प्रचार, सुबोध कथाओं के माध्यम से किया। भारतीय कथाओं का प्रचार ई. छठी शताब्दी से पूर्व, चीन में हुआ था। चीन के विश्वकोश में अनेक भारतीय कथाओं के अनुवाद मिलते हैं। इताली का प्रख्यात कवि पेत्रार्क के डिकॅमेरान नामक कथासंग्रह में अनेक प्राचीन भारतीय कथाएं मिलती हैं। इसापनीति, अलिफफलैला (अरबी कथासंग्रह) तथा बाइबल की भी अनेक कथाओं का मूल भारतीय कथाओं में माना जाता है। इन कथाओं का समाज में कथन करने वाले आख्यानविद् सूत, मागध, कथावकाश, इत्यादि नाम के उत्तम गुणी वक्ताओं का उल्लेख प्राचीन वाङ्मय में मिलता है।
संस्कृत वाङ्मय में उल्लेखनीय कथासंग्रह बृहत्कथामंजरी : क्षेमेन्द्र। गुणाढ्य की बृहत्कथा (मूल-पैशाची भाषीय ग्रंथ) का संस्कृत संस्करण । कथासरित्सागर : ले. सोमदेव। बृहत्कथा का संस्कृत रूपांतर । पंचतंत्र : ले. विष्णुशर्मा। इसके पांच तंत्र नामक प्रकरणों में 87 कथाओं का संग्रह है। साथ में प्राचीन ग्रंथों के अनेक नीतिपर सुभाषित श्लोक उद्धृत किये हैं। हितोपदेश :ले. नारायण तथा उनके आश्रयदाता राजा धवलचन्द्र। इसमें मित्रलाभ सुहद्भेद, विग्रह और सन्धि नामक चार भागों. में पंचतंत्र की कथाएं समाविष्ट की हैं। इसमें 679 नीतिविषयक पद्य हैं जो महाभारत, चाणक्य नीतिशास्त्र आदि ग्रंथों से संगृहित किये हैं। वेतालपंचविंशति : 1) ले. शिवदास। 2) ले. जम्भलदत्त । पंचाख्यानक : ले. पूर्णभद्र सूरि । पंचतंत्र का संशोधित संस्करण ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 243
For Private and Personal Use Only