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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय मुंबई से हुआ है। वादिराजतीर्थ - ई. 15 वीं शती। माध्वमत के आचार्य । कर्नाटक के मंगलोर जिले के हुबिनकेरे ग्राम में आपका जन्म हुआ। पिता-रामाचार्य व माता-गारम्मा। इस दम्पती को वागीशतीर्थ के कृपाप्रसाद से यह पुत्रलाभ हुआ। इनका नाम वराह रखा गया। आगे चल कर वागीशतीर्थ ने संन्यास की दीक्षा दी और "वादिराजतीर्थ" नया नामकरण किया। ऐसा बताया जाता है कि इन्हें योगसिद्धि भी प्राप्त थी। वे अपनी चटाई पर बैठकर आकाशमार्ग से सुबह उड्डुपी, दोपहर धर्मस्थली और रात को सुब्रमण्यम् नामक धार्मिक केन्द्रों पर देवताओं की पूजा के लिये जाया करते थे। "हयग्रीव नारायण" इनके इष्टदेव थे। अंतिम दिनों में आपने सोदे ग्राम में मठ स्थापना कर उसमें कृष्णमूर्ति की प्रतिष्ठापना की। सुप्रसिद्ध तीर्थप्रबंध के अतिरिक्त तत्त्वप्रकाशिका, गुरुवार्तादीपिका, प्रमेयसंग्रह, श्रीकृष्ण-स्तुति, रुक्मिणीय-विजय सरसभारतीविलास, एकीभावस्तोत्र, दशावतारस्तुति आदि अनेक ग्रंथों की आपने रचना की है। वादिराज सूरि - ई. 11 वीं शती के दिगम्बर जैन सम्प्रदायी। मतिसागर मुनि के शिष्य। वादिराज उनकी उपाधि है किन्तु उनके मूलनाम विषयक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। एक शिलालेख में इनकी तुलना अकलंकदेव (जैन), धर्मकीर्ति (बौद्ध), बृहस्पति (चार्वाक) व गौतम (नैयायिक) से की गयी है। इन्हें षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वाद-विद्यापति व जगदेकमल्ल आदि उपाधियों से विभूषित किया गया। रचनाएं 1) पार्श्वनाथचरित- 12 सर्गों के महाकाव्य की रचना आपने चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंह देव की राजधानी में उन्हीं की प्रेरणा से ही। 2) यशोधरचरित नामक चार सर्गों का खण्ड काव्य। 3) एकीभावस्तोत्र । यह 25 पद्यों का स्तोत्र है। कहा जाता है कि इसके गायन से वादिराज कुष्ठ रोग से मुक्त हुए। ___4) न्यायविनिश्चय-विवरण- यह अकलंकदेव के न्यायनिश्चय नामक ग्रंथ पर लिखी गयी टीका है। इसमें २० हजार श्लोक तथा प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम ये तीन प्रकरण हैं। भारतीय ज्ञानपीठ (काशी) नामक संस्था ने इसे प्रकाशित किया है। 5) "प्रमाणनिर्णय" नामक ग्रंथ में प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष व आगम ये चार अध्याय हैं। इनके अलावा काकुत्स्थ-चरित, अध्यात्माष्टक व त्रैलोक्यदीपिका आदि ग्रंथों की रचना भी आपने की है। वादीभसिंह - नाम का अर्थ वादीरूपी हाथियों (इभों) को सिंहसमान भयप्रद। (समय- ई. 11 वीं या 12 वीं शती) एक जैन आचार्य। इनका मूल नाम ओइयदेव था। इनका वास्तव्य कर्नाटक के पोंचंब नामक ग्राम अथवा उसके आसपास होने का अनुमान है। वादविवाद में प्रवीणता के कारण इन्हें "वादीमसिंह" कहा जाने लगा। इनकी दो काव्य कृतियां उपलब्ध हैं : क्षत्रचूडामणि और गद्यचिंतामणि। प्रथम कृति पद्यात्म और दूसरी गद्यात्म है। दोनों में जीवंधर स्वामी के चरित्र का वर्णन है। क्षत्रचूडामणि की गणना नीतिग्रंथों में की जाती है। इनका समाधिस्थल तमिलनाडु के तिरुमल पर्वत पर है। वादीसिंह और वादीभसिंह एक ही व्यक्ति हैं। इन्हें महाकवि बाण की कोटि का गद्य लेखक माना जाता है। वामदेव - गौतम व ममता के पुत्र। ऋग्वेद के 4 थे मंडल के 42-44 तक के सूक्तों को छोड कर बाकी सम्पूर्ण चौथे मंडल के सूक्तों के द्रष्टा। कहते हैं इन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान हो गया था और "गर्भे नु सत्' (ऋ. 4.27.1) यह ऋचा आपने गर्भ में ही रची। इनका जन्म भी इनकी इच्छानसार ही निसर्गसिद्ध मार्ग से न होकर माता का पेट फाड कर हुआ, योग-सामर्थ्य के बल पर श्येन रूप धारण कर वे माता के पेट से बाहर निकले। ये विश्वामित्र की बाद की पीढी के थे। इन्होंने विश्वामित्र के सूक्तों का प्रचार किया। निसर्ग, मानवी सौंदर्य, कृषिकर्म, संगीत आदि विषयक अभिरुचि के कारण आपने अनेक ऋचाएं इन्हीं विषयों पर लिखी हैं। उपनिषदों में वर्णित जानकारी के अनुसार, गायत्री मंत्र के चौबीस ऋषियों में पांचवां स्थान इनका है। इन्होंने शुक से तुलसी उपनिषद् सुना और अन्य ऋषियों को सुनाया। वामदेव - जैनधर्मी मूलसंघ के भट्टारक त्रैलोक्यकीर्ति के प्रशिष्य और मुनि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य। कुलनाम (कायस्थ)। प्रतिष्ठाचार्य। दिल्ली के आसपास इनका कार्यक्षेत्र था। समयवि.सं. 15 वीं शती। रचनाएं- त्रैलोक्यदीपक, भावसंग्रह, प्रतिष्ठा-सूक्ति-संग्रह, त्रिलोकसार-पूजा, तत्त्वार्थसार, श्रुतज्ञानोद्यान और मंदिरसंस्कारपूजा। वामन - काव्यशास्त्र के आचार्य। "काव्यालंकार-सूत्र" के प्रणेता। ये रीति संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने "काव्यालंकार-सूत्रवृत्ति" नामक वृत्ति की भी रचना की है जिसमें "रीति" को काव्य की आत्मा माना गया है। ये काश्मीर-निवासी तथा उद्भट के सहयोगी हैं। "राजतरंगिणी" में इन्हें काश्मीर-नरेश जयापीड का मंत्री लिखा गया है (4/497) । जयापीड का समय 779 ई. से 813 ई. तक है। __ वामन का उल्लेख अनेक अलंकारिकों ने किया है जिससे उनके समय पर प्रकाश पडता है। राजशेखर ने अपने ग्रंथ "काव्य-मीमांसा" में, “वामनीयाः" के नाम से इनके संप्रदाय के आलंकारिकों का उल्लेख किया है तथा अभिनवगुप्त ने अपने ध्वन्यालोक में उद्धृत एक श्लोक के संबंध में बताया है कि वामन के अनुसार उसमें आक्षेपालंकार है। इस प्रकार राजशेखर व अभिनवगुप्त से वामन पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। वामन की "काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में उन्होंने बताया है कि उन्होंने ग्रंथान्तर्गतसूत्र एवं वृत्ति दोनों की रचना की है। (मंगलश्लोक)। वामन ने गुण व अलंकार के भेद को स्पष्ट संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 445 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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