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उसका घोर तिरस्कार तथा अपमान करती है। अपने पातिव्रत्य के दिव्य तेज से रावण को भस्मसात् करने का सामर्थ्य रखते हुए भी, दृढ संयम से उसका विनियोग वह नहीं करती क्यों कि उससे पतिदेव के पराक्रम का अनादर सिद्ध होता। रावण से
वह साफ कहती है कि “इन्द्र के वज्राघात से और साक्षात मृत्यु के दण्डाघात से तू बच सकेगा परंतु महावीर रामचंद्र के बाणाघात से तू नहीं बच सकेगा। राम की शरण जाने में ही तेरा कल्याण है।" रावण जैसे परमवीर का इतना घोर अनादर
और तिरस्कार करने का धैर्य सीता के अतिरिक्त अन्य किसी ने नहीं दिखाया था। वह श्रेष्ठ धैर्य उसे विशुद्ध पातिव्रत्य के कारण प्राप्त हुआ था। एक पतिव्रता असहाय अवस्था में कितना आत्मबल व्यक्त करती है इसका दर्शन वाल्मीकिजी ने सीता के व्यक्तित्व में दिखाया है।
अपने उत्कट पातिव्रत्य के इस दिव्य तेज की परीक्षा सीता को स्वयं पतिदेव के समक्ष देनी पड़ी थी। रावण वध के बाद सुस्त्रात होकर सीता प्रसन्न अन्तःकरण से राम के दर्शन को आती है। मन में वह सोचती थी कि वे नितान्त स्नेह से मेरा स्वीकार करेंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ। राक्षस संहार से मेरा कर्तव्य पूरा हुआ है। रावण के स्पर्श से और उसकी पापदृष्टि से दूषित होने के कारण मै तेरा स्वीकार नहीं कर सकता। अपने पतिदेव के इस प्रतिषेध का उत्तर सीता ने अग्निदिव्य कर के दिया। साक्षात् अग्निदेव ने उसके निष्कलंक पातिव्रत्य का प्रमाण दिया। धर्मनिष्ठ पति द्वारा निर्वासित होने के बाद भी दूसरे वनवास में सीता की पतिभक्ति में लेशमात्र अंतर नहीं पड़ा। उस पतिविरहित दुःसह वनवास में वह पति के कल्याण की प्रार्थना देवताओं से करती रही क्यों कि वह जानती थी कि केवल कठोर राजधर्म के पालन के लिए ही पतिदेव ने मेरा परित्याग किया है। उनके अन्तःकरण में मेरा स्थान अविचल है। अंत में वह कहती है :
“यथाऽहं राघवादन्यं मनसाऽपि न चिन्तये। तथा मे पृथिवि देवि विवरं दातुमर्हसि।" । -हे पृथ्वी देवी, मै अपने मन में रामचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी का भी चिन्तन नहीं करती, अतः तू मुझे अपनी गोद में समा ले।
इन उद्गारों के साथ सीता अपनी पृथ्वीमाता के गोद में अदृश्य हो जाती है। सीता की महनीयता का वर्णन करने के लिये संसार में दूसरा कोई उपमान नहीं है। इसीलिए महाकवि भवभूति कहते हैं : “सीता इत्येव अलम्।"
रामायण में लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न आत्यंतिक बंधुप्रेम के प्रतीक में मिलते हैं। भरत, राम की पादुका सिंहासन पर रख कर, उपभोगशून्य वृत्ति से राज्य करते हैं। लक्ष्मण, राम की सेवा में वनवास के प्रदीर्घ काल में अनिमेष जाग्रत रहते हैं और शत्रुघ्न, राम का वियोग सहन न होने के कारण, उनके साहचर्य के लिए अपने कार्यक्षेत्र से अयोध्या में वापस लौटने की इच्छा रखते हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक एकात्मता निर्माण होने के लिये रामायण में प्रदर्शित यह उदात्त भ्रातृस्नेह का आदर्श व्यक्ति व्यक्ति के अन्तःकरण में दृढमूल होने की नितान्त आवश्यकता है। रामराज्य की चरितार्थता धन धान्य की समृद्धि में जितनी है, उससे बढ़ कर रघुवंश के इन चार सत्पुत्रों के सात्त्विक संबंध में दिखाई देती है। भाषा, धर्म, पंथ इत्यादि भेदों के कारण परस्पर विभक्त होने वाले आधुनिक भारतीय समाज में एकता या एकात्मता निर्माण करने के लिए सारे आदर्श अविचल रहने चाहिए।
रामायण के विहंगावलोकन मात्र से व्यक्त होने वाले कुछ महनीय जीवनमूल्यों का दर्शन इस संक्षिप्त प्रकरण में दिया है। संपूर्ण वाल्मीकि रामायण उदात्त सिद्धान्तों का भाण्डागार है।
रामायण एक अखिल भारतीय मान्यता प्राप्त ग्रंथ होने के कारण अन्यान्य प्रदेशों में प्रचलित रामायणों में पाठभेद पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। उन प्रादेशिक पाठभेदों का दर्शन सम्प्रति उपलब्ध अन्यान्य संस्करणों में होता है। गत शताब्दी में रामायण के जो भिन्न भिन्न संस्करण प्रकाशित हुए, उनमें प्रथम संस्करण सन् 1806 में डॉ. विल्यम केरी और डॉ. जोशुआ मार्शमेन इन
दो ईसाई पादरियों ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ रामायण के प्रथम दो खंडों का प्रकाशन किया। यह संस्करण रामायण के वायव्य पाठ पर आधारित है। सन् 1829 में जर्मन विद्वान श्लेगेल ने प्रथम दो कांडों का प्रकाशन लातिन अनुवाद के साथ किया। संपूर्ण रामायण का प्रकाशन सन 1843-1867 इस कालावधि में, गोरेशियो नामक रोमन विद्वान ने किया। यह संस्करण वंगीय पाठ पर आधारित है। सन् 1888 में मुंबई में निर्णयसागर प्रेस ने और सन् 1912-1920 इस कालावधि में मुंबई के गुजराती प्रेस ने सात खंडों में रामायण का प्रकाशन किया। इन दोनों संस्करणों में दाक्षिणात्य पाठ को प्रमाण माना है। सन् 1923-47 इस कालावधि में लाहौर में पं. भगवद्दत्त, पं. रामलुभाया और पं. विश्वबंधु द्वारा संपादित रामायण का प्रकाशन हुआ। यह संस्करण वायव्य पाठ पर आधारित है। अभी बडौदा विश्वविद्यालय द्वारा रामायण के पाठभेदों का तौलनिक अध्ययन और तदनुसार प्रामाणिक संस्करण प्रसिद्ध हुआ है। वायव्य, वंगीय और दाक्षिणात्य पाठों में रामायण के कथा प्रसंगों में भी विभिन्नता मिलती है। तीनों पाठों में समान कथा प्रसंगों का प्रमाण अल्प है।
4 रामायण का काल रामायण की रचना का काल एक विवाद्य विषय है। याकोबी, मैक्डोनेल, विंटरनिट्झ, मोनियर विलियम्स और कामिल बुल्के के मतानुसार मूल रामायण की रचना इ.पू. पांचवी शती मानी गयी है। कीथ के मतानुसार चौथी शताब्दी मूल कथा
पाठ पर आधारित है।
1843-1867 इस काला
और सन् 1912-1920 इस
माना है। सन् 19
'84 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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