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में उनके विशुद्ध अन्तःकरण में सन्देह निर्माण हुआ। उस घोर राक्षसी आक्रमण से वे विचलित तो नहीं हुए किन्तु सन्देह के कारण धनुष पर बाण नहीं चढ़ाते थे। उनकी उस सन्देहावस्था में विश्वामित्र के उपदेश द्वारा कर्म-अकर्म का विवेक महर्षि वाल्मीकि ने समाज को सिखाया।
रावण-बिभीषण के संबंध में जिस प्रकार विवेक और अविवेक का स्वरूप दिखाई देता है, उसी प्रकार वालि-सुग्रीव के संबंध में भी दिखाई देता है। उन राक्षस बंधुओं के समान ये वानरबंधु थे। दोनों महापराक्रमी और आपस में रामलक्ष्मण के समान नितांत आत्मीयता रखते थे। बीच में मायावी राक्षस के साथ वालि का संग्राम पहाडी प्रदेश में हुआ। दीर्घकाल तक वालि संग्राम से वापस नहीं आया। उस युद्ध में वालि मर चुका होगा यह सोच कर मंत्रिमंडल ने सुग्रीव से राजसिंहासन पर आरोहण करने की प्रार्थना की। भाई की मृत्यु की कल्पना से व्यथित हुए सुग्रीव ने बडे कष्ट से सिंहासनारोहण किया और राजकाज सम्हाला। कई दिनों के बाद मायावी राक्षस को परास्त कर विजयी वालि किष्किंधा में वापस लौटा। सुग्रीव को सिंहासन पर देख कर उसका सारा विवेक तत्काल समाप्त हो गया। वस्तुस्थिति जानने की क्षमता उसमें नहीं रही। सुग्रीव का
सारा निवेदन उसे बनावट लगा। अपने दुर्जेय सामर्थ्य से उसने सुग्रीव और उसके हनुमान, जाम्बवन् आदि अनुयायी वर्ग को निर्वासित किया। ऋषि के शाप के कारण जिस प्रदेश में वालि को प्रवेश करना असम्भव था उस दुर्गम प्रदेश में एक निर्वाचित
राजा के समान सुग्रीव को वनवासी जीवन बिताना पड़ा। विवेक भ्रष्ट वालि ने भाई को निर्वासित कर पूरा बदला लेने के लिए उसकी पत्नी तारा को अपने अन्तःपुर में प्रविष्ट कर दिया।
सीता की खोज में भटकते हुए रामचंद्रजी को सुग्रीव-वालि के विरोध का पता चला। वालि का सामर्थ्य सुग्रीव से अधिक था। वह सिंहासनाधीश्वर था और जिस रावण ने सीता का अपहरण किया था, उसको भी इसने परास्त किया था। रावण के विरोध में निर्वासित सुग्रीव की अपेक्षा उसके बलवत्तर भाई की मैत्री संपादन करना और उसके सहाय से रावण को परास्त कर सीता को वापस लाना, व्यावहारिक दृष्टि से उचित होता। परंतु रामचंद्र जी के धर्म अधर्म विवेक में वालि जैसे धर्मभ्रष्ट और विवेकभ्रष्ट राजा से मैत्री करना सम्मत नहीं था। उन्होंने अपने विवेक के अनुसार सुग्रीव से ही सख्य किया और भ्रातृपत्नी का अपहरण करने वाले नीतिभ्रष्ट वालि का युक्ति से संहार किया।
वालि के वध में जिस युक्ति का प्रयोग रामचंद्रजी ने किया उसकी नैतिकता के विषय में आज के विद्वान काफी विवाद करते हैं। इस में रामचंद्रजी का जो कुछ दोष दिखाई देता है वह उनके "मनुष्यत्व" के कारण क्षम्य माना जा सकता है। युद्ध में कभी कभी कपट नीति का अवलंब करना ही पड़ता है। वह न किया तो पराभव एवं विनाश अटल होता है।
वालि की तुलना में सुग्रीव अधिक संयमी और विवेकी अवश्य थे परंतु उनका संयम और विवेक भी अतिरिक्त सामर्थ्य के आत्मविश्वास से कभी कभी छूट जाता है। लंका पर आक्रमण करने के लिए रामचंद्र तथा सुग्रीवादि नेता लंका का निरीक्षण
करते थे। उस निरीक्षण में सुग्रीव की आंखे रावण पर पडीं। उनका क्रोधावेश एकदम फूट पड़ा और वहीं से वे रावण पर कूद पडे एवं मारपीट कर वापस आये। तुरंत श्री रामचंद्रजीने उनके अविवेकपूर्ण पराक्रम की निर्भर्त्सना की। शत्रु से संघर्ष करते समय उसके गुणदोष एवं बलाबल का ययार्थ विचार करते हुए अत्यंत संयम और विवेक से संग्राम करना चाहिए। केवल मारकाट याने युद्ध नहीं। स्वयं रामचंद्रजीने जब रावण को समरांगण में अपने संमुख देखा तो वे उसके महनीय व्यक्तित्व की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। स्त्रीविषयक पापवृत्ति न होती तो यह पुलस्त्य ऋषि का पौत्र साक्षात इन्द्रपद को विभूषित करने की योग्यता रखता है, ऐसा अपना अभिप्राय भी वे व्यक्त करते हैं और अंत में उसका वध करने के बाद "मरणान्तानि वैराणि"
कह कर उसके मृत शरीर को नम्रता से प्रणाम करते हैं। रामचंद्रजी के इस आदर्श आचरण का प्रभाव हिंदुस्थान के इतिहास में कई स्थानों पर दीखता है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अफजलखान का वध करने के बाद उसकी कबर, उसकी योग्यता के अनुसार स्वयं बनवायी। उस कलेवर का अनादर नहीं किया कारण "मरणान्तानि वैराणि" इस रामवचन का सनातन संस्कार । परंतु शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी की निघृण हत्या करने के बाद उस छत्रपति राजा के कलेवर का यथोचित संमान औरंगजेब द्वारा नहीं हो सका, इस का कारण "मरणान्तानि वैराणि' इस रामायणीय मर्यादा संस्कार उस म्लेच्छ बादशाह के अन्तःकरण पर नहीं था।
भारतीय स्त्रीजीवन में “पातिव्रत्य" एक महान जीवनमूल्य माना गया है। पातिव्रत्य और पतिव्रता ये ऐसे संस्कृत शब्द हैं जिनके पर्याय अन्य विदेशी भाषा में नहीं मिलते। रामायण में सीता का व्यक्तित्व इस महनीय जीवनमूल्य का प्रतीक है। स्वयंवर के बाद सीता के व्यक्तित्व में जो अनेकविध गुण प्रकट हुए उन सब का मूल है उसका उत्कटतम पातिव्रत्य "भर्तृदेवा हि नार्यः" इस भारतीय संस्कृति के आदेश का, सीता ने शत-प्रतिशत पालन किया। पतिदेव वनवास के लिए सिद्ध हुए तब सीता ने कहा “मेरे माता पिता ने मुझे बचपन से यही पढ़ाया है कि किसी भी अवस्था में पति का अनुसरण करना चाहिये। उस शिक्षा का मै आज पालन करूंगी और आपके साथ वनवास के सारे कष्ट आनंद से सहूंगी।" सीता के पातिव्रत्य का दिव्य स्वरूप उसके अपहरण के बाद विशेष रूप से प्रकट होता है। त्रिभुवनविजयी रावण उसका अनुनय करता है और वह महापतिव्रता
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /83
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