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करने का आदेश देता है। इस का कारण यज्ञ एक ऐसा आधिदैविक धर्मकार्य है जिसमें कर्ता को देवताओं की कृपा से दैवी सामर्थ्य का लाभ होता है। रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद जैसे ब्राह्मण कुलोल्पन्न राक्षसों ने इसी दैवी सामर्थ्य की लिप्सा से कठोर तपश्चर्या और महान यज्ञ किये थे परंतु साधना से प्राप्त सामर्थ्य का विनियोग वे अपनी आसुरी संपदा के कारण, सज्जनों पर अत्याचार करने के लिए करने लगे थे। मेघनाद का वह यज्ञ फलद्रूप होता तो उस राक्षस का संहार करने का सामर्थ्य संसार भर में किसी के पास नहीं था। कर्म का अंतिम परिणाम ही किसी भी कर्म का धर्मत्व अथवा अधर्मत्व सिद्ध करता है यह संदेश प्रभु रामचंद्र जी के यज्ञरक्षण और यज्ञविध्वंस के आचरण से हमें मिलता है।
रामायण का प्रत्येक व्यक्तित्व किसी न किसी गुण या अवगुण के प्रतीक सा हमें दिखाई देता है। उनमें दैवी संपद् और आसुरी संपद् से युक्त, मानव के दो प्रकार स्पष्ट रूप से व्यक्त होते हैं। भगवद्गीता में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि, "दैवी संपद् विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता"। याने देवी संपदा के गुण मोक्ष के लिये और आसुरी संपदा के अवगुण संसारबंधन के लिए कारणीभूत होते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने अपनी महनीय वाङ्मय कृतियों में दोनों संपदाओं का शाश्वत चित्रण कर विश्व को सन्देश दिया है कि "रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्"।
रावण के आसुरी राज्य में बिभीषण एक अपवादात्मक व्यक्तित्व रामायण में मिलता है। रावण का सहोदर-सगा भाई-होते हुए भी इस की विवेकबुद्धि तामसी नहीं थी। उग्र तपश्चर्या के बाद प्रसन्न हुए भगवान् के संमुख हाथ जोड़ कर वह प्रार्थना करते हैं कि, हे भगवान मेरा मन सदैव धर्मनिष्ठ रहे। मुझे सदैव तत्त्वज्ञान ही प्राप्त हो। भगवान ने बिभीषण की यह प्रार्थना पूर्ण की थी। उसी के कारण वह "कर्तुकर्तुम् अन्यथा कर्तुं समर्थ" भाई की राजसभा में निर्भयता से अपना विरोध उद्घोषित करता है। वैसे तो रामचंद्रजी के अपार सामर्थ्य की कल्पना होने के कारण, कुम्भकर्ण, माल्यवान् जैसे सदस्यों ने भी रावण के पापकर्म का निषेध किया था, किन्तु असत्पक्ष का त्याग कर सत्पक्ष का स्वीकार करने का धैर्य, रावणसभा के सारे सदस्यों में से बिभीषण के अतिरिक्त अन्य किसी ने व्यक्त नहीं किया था। प्रत्यक्ष सहोदर का पक्ष एक असत्पक्ष है, यह निर्णय स्वयंप्रज्ञा से ले कर, बिभीषण श्रीराम के सत्पक्ष में प्रविष्ट हुए। इसमें रावण की कपटनीति का एक प्रयोग मानने वाले, रामपक्षीय नेताओं ने, बिभीषण के पक्षप्रवेश के बारे में आशंका व्यक्त की थी, परंतु श्री रामचंद्रजी ने शुद्ध अन्तःकरण से उसे (अपने घोर शत्रु के भाई को) अपना भाई माना और बिभीषण ने भी यह धर्मबन्धुत्व का नाता निरपवाद संभाला। प्रत्यक्ष युद्ध काल में ऐसे कुछ बिकट प्रसंग उपस्थित होते थे कि उस समय अगर बिभीषण का सहाय न मिलता तो रामपक्ष की विजय असंभव थी। पक्षनिष्ठा और सत्यनिष्ठा के संघर्ष मे सदसदविवेक का उत्कृष्ट जीवनादर्श बिभीषण के चरित्र में हमें रामायण में दिखाई देता है। इस आदर्शभूत विवेकिता के कारण ही हिंदुओं के परंपरागत प्रातःस्मरण स्तोत्र में बिभीषण का नामस्मरण भारत भर में होता है। श्रीरामचंद्रजी के सहकारियों में हनुमान् एक जैसे अद्भुत सहकारी थे जिनके सहकार्य के बिना सीता की खोज, लक्ष्मण के प्राणों का रक्षण और वानरों की संगठना होना असम्भव था। स्वयं श्रीरामचंद्रजी तो साक्षात् धर्म के प्रतीक थे ही (रामो विग्रहवान्
धर्मः) परंतु उनका अदभुत अनुयायी भी उसी धर्म के अंग (याने उत्कट भक्तियोग) का प्रतीक था। प्रतिकूल परिस्थिति में नैष्ठिक व्रत का पालन करना ऋषिमुनियों को भी असंभव होता है। परंतु हनुमानजी ने यह भी योग्यता सिद्ध की थी। अपने
परमश्रद्धेय नेता के आदेश का पालन करते हुए वे समुद्रोल्लंघन करते हुए लंका में पुहंचे। उनका सारा प्रवास विघ्नमय था। उन सारे विघ्नों को उन्होंने परास्त किया। किन्तु अपरिचित सीता की खोज उस महानगरी में करने के लिये, रावण का सारा
अंतःपुर उन्हें रात के समय ढूंढना पडा। अनेक सुंदर स्त्रियों को निद्रावस्था में अस्तव्यस्त पड़ी हुई निरखना पड़ा। यह कर्म उनके ब्रह्मचर्य व्रत के सर्वथा प्रतिकूल था। दूसरा कोई अविवेकी नैष्ठिक ब्रह्मचारी उनके स्थान में होता तो निद्रित स्त्रियों के मुखकमल निरखने का प्राप्त कर्म नहीं करता और स्वामिकार्य किये बिना वापस लौटता।
हनुमान जी ने हजारों निद्रित स्त्रियों को निरखने के बाद अपना अन्तःप्रेक्षण किया और देखा कि इस धर्मविरुद्ध कर्म के बाद भी अपना अन्तःकरण यथापूर्व शुद्ध है। जिस अधर्म कृत्य से अन्तःकरण निर्विकार रहता है वह वास्तव में अधर्मकृत्य नहीं होता किन्तु जिस धर्मकृत्य के कारण अन्तःकरण में अहंकार, दर्प, लोभ जैसे राजसी या तामसी विकार निर्माण होते हैं
वह शास्त्रविहित होने पर भी वास्तव में धर्मकृत्य नहीं रहता। धर्म और अधर्म का महान् विवेक हनुमानजी के जीवन की इस विचित्र घटना से हमें मिलता है। महाभारतकार कहते हैं, “धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायास्" याने धर्म का सत्य स्वरूप गुहा में निहित पदार्थ के समान अगम्य है। महर्षि वाल्मीकिजी ने वह गुहागत धर्मतत्त्व अपने रामायण में इस प्रकार के अनेक प्रसंगों का चित्रण करते हुए विश्व के संमुख रख दिया।
इसी प्रकार का धर्मनिर्णय ताटकावध के प्रसंग में बताया जाता है। विश्वामित्र के यज्ञकर्म का विध्वंस करने का पाप करने वाली ताटका एक स्त्री थी। यज्ञशाला पर उसका आक्रमण होता है तब विश्वामित्र अपने बालवीर को उसका वध करने का आदेश देते हैं। रामचंद्र की बाल्यावस्था होते हुए भी जन्मसिद्ध क्षत्रियत्व के कारण स्त्रीवध करना या न करना इस विषय
82 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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