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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपकथा १, जरासन्धजन्य : मगध देश में बृहद्रथ नाम का एक राजा था। उसकी दो रानियाँ काशीराजा की कन्याएँ थी। उसने पुत्रप्राप्ति के लिये अनेक यज्ञ किये थे किन्तु उसे पुत्रप्राप्ति नहीं हुई। बृहद्रथ राजा जब वृद्ध हो गया तब एक दिन उसे यह ज्ञात हुआ कि काक्षीवान् गौतम का पुत्र चण्डकौशिक नगर के समीप आया है। राजा वहां गया और उसने चण्डकौशिक की सम्मान से पूजा की। इतने में ही चण्डकौशिक की गोद पर एक आम्रफल टपका। ऋषि ने वह फल मन्त्रपूजित कर राजा को प्रदान किया और कहा कि, “इस फल से तुम्हे पुत्रप्राप्ति होगी। "वापस लौटने पर राजा ने दोनों पत्नियों को आधा आधा फल खाने के लिये दिया। कुछ काल के बाद रानियाँ गर्भवती हुई। यथाकाल प्रसूति में उनको आधा आधा पुत्र हुआ। रानीयों ने उसे चौराहे पर फेंक दिया। जरा नाम की राक्षसी ने उन दोनों भागों को जोडने पर एक संपूर्ण शरीर हुआ। जरा ने वह पुत्र राजा को दे दिया। जरा नाम की राक्षसी ने सन्धिद्वारा उत्पन्न करने के कारण उस पुत्र का नाम जरासन्ध रूढ हुआ। उपकथा २, शिशुपाल जन्मः चेदि देश के राजा को एक पुत्र हुआ। उसकी तीन आंखें और चार हाथ थे। जन्म होते ही वह गर्दभ के समान रेंकने लगा। वह अशुभ बालक देखते ही उसके माँ बाप उसका त्याग करने का विचार करने लगे। इतने में आकाशवाणी हुई कि "इसका त्याग मत करो। यह अत्यन्त पराक्रमी होगा। शस्त्र से ही इसे मृत्यु प्राप्त होगी। जिसके हाथों इसका अन्त होगा वह इसके जन्म के पूर्व ही उत्पन्न हो चुका है।" उसकी माँ ने कहा कि, “मै यह जानने के लिये अत्यंत उत्सुक हूँ कि, “इसकी मृत्यू किसके हाथो से होगी?" आकाशवाणी ने फिर से कहा, "जिसकी गोद में बिठाने पर इसके दोनों हाथ और तीसरी आँख आप ही आप गिरेगी, उसी के हाथों इसे मृत्यु प्राप्त होगी।" यह अद्भुत वार्ता सब ओर फैली और अनेक लोग उस बालक को देखने के लिये आने लगे। एक समय बलराम और श्रीकृष्ण अपनी फूफी के इस पुत्र को देखने के लिये आये। बालक को श्रीकृष्ण की गोद में रखते ही उसके दोनों हाथ और तीसरी आँख गल गई। यह देख कर उसकी माता ने श्रीकृष्ण की प्रार्थना की।" मेरा पुत्र कितने ही अपराध क्यों न करे, तुम उसे क्षमा ही करना। कृष्ण ने कहा कि, "मैं केवल तुम्हारी ओर देख कर इसके एक सौ अपराध क्षमा करूंगा और बाद में अधिक अपराध करने पर इसका वध करूंगा।" इसी के अनुसार धर्म के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण ने उसका वध किया। 3 वनपर्व का सारांश द्यूतक्रीडा में पराभूत पाण्डव वनवास के लिये निकले तब उनके साथ ब्राह्मणों का मेला निकला। उन सब का भरण-पोषण कैसे किया जाय इस चिन्ता में धर्मराज थे तब धौम्यऋषि ने उन्हें सूर्य भगवान की आराधना करने का आदेश दिया। धर्म की आराधना से सूर्यभगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे एक ताम्रपात्र प्रदान किया और कहा कि “इस पात्र से जब तक द्रौपदी परोसती रहेगी तब तक तुम्हारा अन्न कम नहीं होगा।" वह पात्र ले कर धर्मराज काम्यक वन में गए। वहाँ जाते समय किर्मीर राक्षस ने उन्हे सताया तब भीम ने उसका नाश किया। पाण्डवों के वन में रहते दुर्योधन, कर्णादि उन्हें मारने के लिये निकले। किन्तु व्यास ऋषि के कहने से वे वापस लौटे। एक समय मैत्रेय ऋषि कौरवों के यहाँ गये। उन्होंने दुर्योधन को पाण्डवों का द्वेष न करने का उपदेश देते हुए कहा, "उससे तेरा कल्याण नहीं होगा।" दुर्योधन ने उनका कहना न मान कर वह अपना अंक पीटने लगा। तब ऋषि ने कुपित होकर उसे शाप दिया कि, "युद्ध में भीम की गदा से तेरा अंक छिन्नभिन्न हो जाएगा।" पाण्डवों के वनवास की वार्ता सुनने पर श्रीकृष्ण आदि यादव गण, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, शिशुपालपुत्र धृष्टकेतु आदि लोग पाण्डवों को मिलने के लिये वन में गये। वहाँ वार्तालाप में श्रीकृष्ण ने कहा कि “मै शाल्व राजा के साथ युद्ध में निमग्न था, नहीं तो में यह द्यूत होने ही नहीं देता।, "अनन्तर श्रीकृष्ण, सुभद्रा तथा अभिमन्यु को साथ ले कर द्वारका गये। द्रौपदी के पांच पुत्रों को साथ ले कर धृष्टद्युम्न अपने देश गया। धृष्टकेतु अपनी बहन (नकुल की पत्नी) रेणुमती को साथ ले कर गया। तत्पश्चात् पाण्डवों के द्वैतवन में जाने पर द्रौपदी और भीम का मत हुआ कि कौरवों ने कपटप्रयोग से हमारा राज्य छीन लिया है, अतः "शठे शाठ्यम्" न्याय से हम कौरवों को परास्त करें। इस पर धर्मराज ने उत्तर दिया, "अविचार से किसी भी बात का फल अच्छा नहीं होता। कौरवों का पक्ष प्रबल है। उनसे युद्ध करने की क्षमता हमें प्राप्त करनी चाहिये।" उसी चर्चा के समय व्यास मुनि वहां पहुंचे। उन्होंने धर्मराज को एक मंत्र दिया और कहा “यह मंत्र अर्जुन को दे कर उसे दिव्य अस्त्र की प्राप्ति के लिये भेजो" बाद में पाण्डव काम्यक वन में गये। धर्मराज ने अर्जुन को वह मंत्र पढाया और दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति करने के लिये उसे रवाना किया। पाण्डवों का निवास उस वन में था उस समय बृहदश्व मुनि वहां आये। उनकी पूजा कर धर्मराज ने उनसे पूछा कि, "क्या मेरे समान अभागा राजा आपके देखने में या सुनने में आया है?" ऋषि ने कहा कि, "निषधदेश में वीरसेन राजा का पुत्र नल बहुत ही सुंदर था। विदर्भ देश के भीमक राजाकी कन्या दमयन्ती ने उसे स्वयंवर में वर लिया था। उन्हें इन्द्रसेन नाम का एक पुत्र और इन्द्रसेना नाम की एक पुत्री हुई। नल के भाई पुष्कर ने द्यूत क्रीडा के लिये नल को आवाहन किया। दमयन्ती का विरोध होने पर भी चूत का प्रारम्भ हुआ। दमयन्ती ने अपने 96 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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