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ने उत्तर देव दानवों के युद्ध तीर्थयात्रा करने के बावकट सुबाहु राजा का होता है। हो गया। इसी तार ओर गये। वहाँ मिसाध्वी द्रौपदी
धक कर उसक
बच्चों को अपने मायके भेज दिया। द्यूत में पराभूत होने पर नल वन में गया। साथ में दमयन्ती भी गयी। एक समय दमयन्ती को निद्रित अवस्था में त्याग कर नल चला गया। दमयन्ती दुखो हो कर कुछ दिन के लिये अपने मौसी के यहां रही और बाद में विदर्भ देश की ओर चली गयी। कुछ दिन वनवास में काट कर नल राजा अयोध्या में ऋतुपर्ण राजा के यहा नौकरी करता रहा। विदर्भदेश में आने के बाद पतिपत्नी के मिलन से दोनों बडे आनन्दित हुए। ऋतुपर्ण से नल ने द्यूतविद्या प्राप्त की थी अतः पुनश्च द्यूत खेल कर उसने अपना राज्य स्वाधीन किया। नल राजा को तीन वर्ष एकाको वनवासका दुःख सहना पडा। परन्तु हे धर्मराज, तेरे साथ तेरे भाई हैं, द्रौपदी है, अलग अलग विषयों पर चर्चा करने के लिये ऋषिगण हैं। इतने
सब सहायक होने के कारण, तुझे दुःख करने का कारण नहीं। यदि तुझे भय लगता है कि वनवास के बाद दुर्योधन तुझे द्यूत खेलने के लिये बुलायेगा तो मैं तुझे द्यूतविद्या सिखाता हूं।" बृहदश्व मुनि ने धर्मको द्यूतविद्या सिखाई।।
एक दिन लोमश ऋषि धर्मराज से मिलने आये। वे कहने लगे कि "मैं इन्द्रलोक में गया था। वहाँ इन्द्र ने आप को संदेश दिया है कि, "अर्जुन ने दिव्य अस्त्र- प्राप्त की है। देवों का महत्त्वपूर्ण कार्य कर के वह तुम्हें मिलने वापस आएगा।"
अर्जुन ने कहा है कि "पाण्डवों को तीर्थयात्रा करने के लिये कहिये और उस समय उनकी रक्षा करने के लिये आप उनके साथ जाइये" हे धर्मराज, यदि तुम तीर्थयात्रा करना चाहते हो तो इतना बड़ा परिवार साथ न रखो।" ऋषि के आदेश के
अनुसार केवल मिष्टान्न खाने के इरादे से जो ब्राह्मण उनके साथ थे, उन्हें वापस लौटा कर केवल तपस्वी ब्राह्मणों को साथ ले कर पाण्डव, धौम्य और लोमश ऋषि तीर्थयात्रा के लिये निकले।
इस यात्रा में धर्म ने लोमश ऋषि से पूछा, "हमने कभी कुछ भी अधर्म नहीं किया। फिर भी हमें इतना दुख भुगतना पडता है और दुर्योधन के इतना अधर्मी होते हुए भी वह आनन्द से राज्य का उपभोग लेता है इसका कारण क्या है? लोमश ने उत्तर दिया, “अधर्म मार्ग से चलने वाले पहले पहले सुखभोग प्राप्त कर सकते हैं किन्तु अन्त में उनका जड़ से नाश होता है। देव दानवों के युद्ध में पहले पहले जीत हुई थी दानवों की, परन्तु विजयोन्माद में वे उन्मत्त हो गये और उनका विनाश हो गया। इसी तरह तेरी तीर्थयात्रा करने के बाद कौरवों का विनाश हो कर तुझे राज्य मिलेगा।" पाण्डव तीर्थयात्रा करते करते उत्तर प्रदेश की ओर गये। वहाँ हिमाचल के निकट सुबाहू राजा का राज्य था। उसके पास धर्म ने अपने दास-दासी,
आदि रखकर धर्म पैदल आगे गये। मार्ग में साध्वी द्रौपदी को चक्कर आ गया। थक कर उसका जी घबरा हुआ था। उसके होश में आने के बाद भीम ने हिडिंबा से हुये अपने पुत्र घटोत्कच का स्मरण किया। वह तुरन्त अपनी राक्षससेना ले कर वहां आ गया। पाण्डवों की आज्ञा से उसने द्रौपदी को उठाया। अन्य राक्षसों ने पाण्डवों को और ब्राह्मणों को उठाया। लोमशऋषि आकाश पथ से ही चले। इस प्रकार वे तीर्थयात्री बदरिकाश्रम पहँचे।
पाण्डवों के वहां रहते एक दिन द्रौपदी ने एक दिव्यसुगंधी कमलपुष्प देखा। उसे देख कर द्रौपदी ने हठ लिया कि, "ऐसे बहुत से फूल मुझे चाहिये।" उसकी मांग पूरी करने के लिये भीम उत्तर दिशा की ओर निकला। उसे रास्ते में एक बंदर मिला। वह बोला, "अभी मैं बहुत अशक्त हो गया हूं। इस लिये मेरी यह पूँछ जरा बाजू में रखकर तू आगे जा।" भीम ने उसकी पूंछ हटाने का प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा। तब भीम का अहंकार समाप्त हो गया। वह बंदर हनुमान् है यह ज्ञात होने पर, भीम ने उसकी क्षमायाचना की। हनुमान् ने भीम से कहा कि, “अब तू यहां से आगे नहीं जा सकता। यह देवलोक का मार्ग है। तुझे यदि दिव्य कमलपुष्पों की इच्छा है तो इस रास्ते से जा।" हनुमान् ने दिखाये रास्ते से भीम चल रहा था। कमलरक्षा के लिये वहाँ असंख्य यक्ष थे। उनका विनाश करके बहुत से कमलपुष्प लेकर भीम वापस आ गया। बदरिकाश्रम में जटासुर नामक राक्षस धर्म, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को उठाकर आकाशमार्ग से भाग जा रहा था। तब भीम, घटोत्कचादि राक्षस और ऋषिगण बाहर गये थे। जटासुर ने कपटरूप से ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया था। पाण्डवों के शस्त्र और द्रौपदी की उसे इच्छा थी। इस लिये वह वहां रहता था। आकाशपथ से जाते जाते सहदेव ने अपनी मुक्तता कर लीं। और भीम को जोर जोर से पुकारा। भीम वहां आया। तब जटासुर ने सबको नीचे रख दिया और वह भीम के साथ युद्ध को सिद्ध हुआ। युद्ध में जटासुर को भीम ने मार डाला। इस घटना के बाद अर्जुन से मिलने के लिये पाण्डव वहां से गन्धमादन पर्वत की ओर निकले। मार्ग में उनको वृषपर्वा राजर्षि का आश्रम दीख पडा। वहां उन्होंने एक सप्ताह निवास किया। अरण्यवासी ब्राह्मणों को वहां छोड़ कर वे आगे निकले। इतने में पाण्डवों को गन्धमादन पर्वत के दर्शन हुए उसके निकट आष्टिषण राजर्षि का आश्रम था। वहाँ बहुत दिन वास्तव्य होने के पश्चात् एक दिन पाण्डवों ने गन्धमादन गिरि पर आरोहण किया। वहां उन्हें कुबेर के दर्शन हुए। कुबेर ने उनसे कहा कि "यहां आप अपना घर समझ कर रहिये। ये
यक्ष आपकी सेवा करेंगे।" इस तरह वहां वे एक मास रहने के पश्चात् स्वर्ग में पांच वर्ष तक रह कर जिसने शस्त्रास्त्रों का ज्ञान पूर्णरूपेण ग्रहण किया था वह अर्जुन अपने भाइयों को मिलने के लिये वहां आया।
धर्मराज के पूछने के पर अर्जुन ने अपना वृत्तकथन प्रारम्भ किया। “में आपसे बिदा ले हिमालय पर्वत पर पहुँचा। वहाँ तप करते समय एक दिन एक वराह मेरी ओर भाग आया, जिस पर मैने बाण छोडा। उसी क्षण एक किरात के बाण ने उसे घायल कर दिया। शिकार पर हम दोनों के बाण एक साथ गिरे। किरात ने कहा, "शिकार मेरा है। तेरा उसे बाण मारने का
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/97
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