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क्या अधिकार? इतना कह उसने मुझ पर शरवर्षा शुरू की । प्रत्युत्तर में मैने भी उस पर बाण छोड़े परन्तु मै हार गया और भूमि पर गिर गया उसी समय किरात गुप्त हो गया और श्रीशंकर पार्वती के साथ वहां प्रकट हुये। उन्होंने मुझे अभय दे कर वर मांगने की आज्ञा की। मैने दिव्य अस्त्रों की मांग की जिस पर शंकरने मुझे पाशुपतास्त्र सिखाया और वे चले गये । तत्पश्चात् इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर वहाँ आये । इन्द्र के अतिरिक्त तीन देवों ने मुझे अस्त्र दिये । इन्द्र ने कहा, "तुम स्वर्ग में आओ। मैं तुम्हे वहाँ शस्त्र दूंगा।" अनन्तर इन्द्र का सारथि मातलि रथ ले कर वहां आया। उस रथ पर आरूढ हो कर मैं स्वर्ग गया। वहां जाते ही इन्द्र ने मुझे शस्त्र दिये और विश्वावसु गंधर्व के पुत्र चित्रसेन ने गायन, नर्तन आदि कलाओं का ज्ञान दिया।
एक दिन इन्द्र ने बहुत ही आनन्द से मुझे कहा कि "अर्जुन, अब तेरी शिक्षा पूरी हो गई है, अतः तुझे गुरुदक्षिणा देनी होगी। निवातकवच नाम के दैत्य हमारे शत्रु है और वे प्रबल हैं। उन्हें तू नष्ट कर यही हमारे लिए गुरुदक्षिणा है। मैने उन दानवों का नाश किया और वापस आते आते मातलि के कहने के अनुसार कालकेय असुरों का भी नाश किया। इन्द्र स्वर्ग में मेरा बहुमान किया और आनन्द से मुझे यहां आने की अनुज्ञा दी। उनकी आज्ञा मिलते ही मैं यहाँ तुम्हें मिलने आया । इस तरह मैंने स्वर्ग में पांच वर्षो का काल व्यतीत किया । यह वृत्तान्त सुन कर धर्मराज ने अस्त्र देखने की इच्छा प्रकट की। अर्जुन ने सारे अस्त्र दिखाये ।
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पाण्डव पुनश्च द्वैत वन में आने के लिये निकले। रास्ते में अगस्तिऋषि के शाप से सर्प हो पडे हुये राजा नहुष ने, भीम को पकड़ लिया। उसके प्रश्नों के उत्तर देकर धर्मराज ने भीम को विमुक्त किया । तदनन्तर पाण्डव द्वैतवन में पहुंचे एक दिन दुर्योधन उनको लज्जित करने के लिये अपने समस्त वैभव के साथ परिवार, सैन्य, स्त्रियाएं आदि ले कर वहां आ गया। उसी स्थान पर गन्धर्वों से वह पराजित हो गया और उन सब को बांध कर गन्धर्व निकले। अपने कुल का अपमान न हो इस भावना से पाण्डवों ने कौरवों को विमुक्त किया।
उसके पश्चात् पाण्डव काम्यक वन में आये। वहां उनके सत्त्वहरण के लिये दुर्योधन ने दुर्वास ऋषि को भेजा था । परन्तु श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डवों का सत्त्वरक्षण हुआ। एक समय द्रौपदी का हरण करने का प्रयत्न जयद्रथ ने किया परन्तु पाण्डवों ने उसे पराभूत कर छोड दिया। अपमानित होने पर जयद्रथ ने तप किया जिसके फलस्वरूप "अर्जुन के सिवाय अन्य पाण्डवों के विरुद्ध एक दिन तुझे युद्ध में विजय मिलेगी" ऐसा वर उसे शंकर से मिला ।
एक दिन धर्मराज ने मार्कण्डेय ऋषि से पूछा कि "मेरे समान अभागा मानव आपको ज्ञात है "तब ऋषि ने उसे रामचन्द्र की कथा सुनाई।" क्या द्रौपदी के समान दुसरी पतिव्रता स्त्री है?" यह धर्मराज का दूसरा प्रश्न सुन कर मार्कण्डेय ने प्रारम्भ किया। मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री की कथा सुनायी। सावित्री का विवाह शाल्वदेश के अन्ध एवं राज्यभ्रष्ट राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् से हुआ था। नारदऋषि के कहने के अनुसार एक वर्ष के बाद अपने पति की मृत्यू टालने के लिये सावित्री ने तीन दिन का व्रत किया । व्रत के बाद यमराज सत्यवान् के प्राणहरण करने आये थे, परन्तु सावित्री ने चातुर्य से उनको प्रसन्न किया और अपने पति को नव जीवन दिया। इस सावित्री के समान तुम्हारी द्रौपदी पतिव्रता है। उसके कारण तुम्हारे दुःख दूर होकर तुम्हे पुनश्च राज्यप्राप्ति अवश्य होगी।
वनवास के बारह वर्ष समाप्त होने आये थे। आगे युद्ध करना पडेगा इस विचार से धर्मराज चिन्तातुर थे। कर्ण के शरीर पर जन्मसिद्ध कवच-कुण्डल थे, जिनके कारण वह अजेय था। धर्मराज की इस चिन्ता को दूर करने के लिये इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश धारण कर, कर्ण का कवचकण्डल विरहित किया और उसे एक दिव्य शक्ति प्रदान की। पाण्डव पुनश्च द्वैत वन में आये ।
किसी ब्राह्मण की अग्नि उत्पन्न करने की "अरणी" एक हिरन ने भगाई। इस लिये पाण्डव उसका पीछा करने लगे । किन्तु वह उनके हाथ नहीं लगा । पाण्डव थक गये और वे तृष्णार्त होकर एक एक कर के पानी पीने जाने लगे। उस सरोवर पर एक यक्ष रहता था। वह कहता, "मेरे प्रश्नों का समाधान पहले करो और उसके बाद में पानी पीओ।" उसके अनुसार अकेले धर्मराज ने उसके प्रश्नों के उत्तर दे कर अपने मृत बंधुओं को जीवित किया। वह यक्ष नहीं था बल्कि प्रत्यक्ष यमधर्म था। उसने उस ब्राह्मण की अरणी वापस दी और पाण्डवों से कहा कि "तुम तेरहवें वर्ष विराट के घर में रहो। मै तुम्हें वर देता हूं कि वहाँ तुमको कोई भी नहीं पहचानेगा।"
( उपकथा 1) उर्वशीशाप : अर्जुन के इन्द्रलोक में रहते समय उसके सौन्दर्य पर मोहित हुई उर्वशी एक दिन उसके पास आयी। उसकी प्रार्थना न मानने के कारण उसने अर्जुन को शाप दिया कि "तुम नपुसंक होंगे।" वह शाप सुनकर इन्द्र ने कहा कि, "हे अर्जुन, तुम घबराओ नहीं। एक वर्ष अज्ञातवास के समय में यह बात तेरे हित की ही होने वाली है।"
( उपकथा 2) अगस्त्य उपाख्यान: अगस्त्य ऋषि को विवाह करना था। उन्होंने एक अति सुन्दर कन्या निर्माण कर सन्तति के लिये तप करने वाले विदर्भ राजा को दी। उसका नाम था लोपामुद्रा । जब वह विवाहयोग्य हुई तब ऋषि ने उसके साथ विवाह किया । लोपामुद्रा के कहने के अनुसार ऋषि द्रव्यार्जन के लिये इल्वल दैत्य के पास आये। वह दैत्य अपने भाई वातापि को भेड़ का रूप दे कर उसका पका मांस ब्राह्मणों को भक्षण के लिये देता था। भोजन के पश्चात् वह वातापि पुकारता
98 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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