SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir था और वातापि ब्राह्मणों का पेट फाड कर निकलता था। इस तरह उसने अनेक ब्राह्मणों की हत्या की थी। यही प्रयोग अगस्त्य ऋषि पर हुआ। परन्तु अगस्त्य ने उसे हजम कर लिया था। अगस्त्य ऋषि के पुत्र का नाम इध्मवाह था। कालकेय नाम के असुर दिन में छिपते थे और रात को आश्रमवासी ऋषिओं का नाश करते थे। इस प्रकार ऋषिओं का नाश होने के कारण यज्ञादि क्रियाएं बंद पड गयी। तब देवताओं ने अगस्त्य ऋषि की प्रार्थना की। इस प्रार्थना को मानकर अगस्त्य ऋषि के समुद्र पीने के उपरान्त देवों ने कालकेय असुरों का संहार किया। (उपकथा 3) गंगावतरण : राजा इक्ष्वाकु के वंश में सगर नामक एक राजा था। उसे शंकर के वरदान से साठ सहस्र पुत्रों की प्राप्ति हो गई। एक समय राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ के निमित्त पृथ्वी पर अश्व छोडा, जिसका रक्षण सागरपुत्र करते थे। समुद्र के पास आते ही वह अश्व अदृश्य हो गया। तब सगरपुत्रों ने पृथ्वी का मथन करके अश्व की खोज करना आरम्भ किया। पृथ्वी के नीचे कपिल ऋषि तप कर रहे थे। उनके पास सगरपुत्रों ने अश्व देखा। उस समय सगर पत्रों ने ऋषि का अपमान किया जिसके कारण ऋषि ने सगरपुत्रों को भस्म कर दिया। यह बात नारद ऋषि से राजा सगर को ज्ञात हुई तब उसका पौत्र अंशुमान् राजगद्दी पर बैठा। अंशुमान का पुत्र दिलीप जब राजा हुआ तब ऋषि के तपोबल से जलकर खाक हुए अपने पूर्वजों की बात उसने सुनी। उनके उद्धार के के लिये स्वर्ग की गंगा को लाया जाये इस उद्देश्य से उसने आजन्म तप किया। उसके पश्चात् उसके पुत्र भगीरथ ने गंगा को प्रसन्न किया और उसका प्रवाह धारण करने के लिये, शंकर ने जब मान्य किया तब भगीरथ ने गंगा को पाताल तक लाकर अपने पूर्वजों का उद्धार दिया। (उपकथा 4) पतिव्रतामाहात्म्य और ब्राह्मणव्याधसंवाद : कौशिक नामक एक ब्राह्मण वेदाध्ययन करता था। उस समय उपर से एक वगुली की विष्ठा उन पर गिरी। ब्राह्मण ने कुपित हो कर उसकी ओर देखते ही वह मर कर नीचे गिरी। पश्चात् वह ब्राह्मण भिक्षा मांगने के लिये एक घर गया। उस समय पतिसेवा । में रत पतिव्रता स्त्री को भीख देने में जरा देर हो गयी। तब वह ब्राह्मण कुपित हो कर स्त्री की निर्भत्सना करने लगा। उस पर वह स्त्री बोली "महाराज, भला आपके क्रोध से क्या होगा। मै कोई बगुली नहीं हूं। आपको धर्मतत्त्व ज्ञात नहीं है। मिथिला नगरी में जाकर धर्मव्याध से वह जान लेना।" यह सुन कर ब्राह्मण चकित हुआ और वह धर्मव्याध की ओर गया। उस समय वह व्याध मांस काट रहा था। उस ब्राह्मण को देखते ही उसने कहा कि "उस पतिव्रता ने आपको किस लिये मेरी ओर भेजा यह मैने जान लिया है।" उसके पश्चात् धर्मव्याध ने ब्राह्मण को धर्मतत्त्व बता कर अपने माता-पिता का दर्शन कराया और कहा कि “ये मेरे देव हैं। जैसे लोग देवों की पूजा करते हैं वैसे ही मैं इनकी पूजा करता हूं। आप अपने मां बाप का अपमान करके घर से बाहर निकले। किन्तु वे बेचारे अब अन्धे हो गये हैं। इसलिये अब आप अपने घर जा कर उनकी सेवा करें यही आपका धर्म है।" यह सुन कर ब्राह्मण ने उसके कहने के अनुसार घर जाकर अपने माता-पिता को संतुष्ट किया। (उपकथा 5) द्रौपदी-सत्यभामा संवाद : पाण्डवों के वनवासकाल में उनसे मिलने के लिये एक समय श्रीकृष्ण के साथ सत्यभामा आयी थी। इधर उधर की बातें समाप्त हो जाने के अनन्तर सत्यभामा ने द्रौपदी को प्रश्न किया, "पाण्डवों के समान वीर पुरुष तेरी आज्ञा कैसे मानते हैं? तुम्हारे पास कोई खास या मोहिनी विद्या है क्या? यदि हो तो मुझे कह देना ताकि मै भी श्रीकृष्ण को वश करूंगी।" सत्यभामा का यह भाषण सुन कर द्रौपदी ने उत्तर दिया, "मोहिनी विद्या से पति को वश करना यह कोई पतिव्रता धर्म नहीं है। केवल मेरे पास सद्वर्तन के बिना कोई भी मंत्र-तंत्र नहीं है। मेरे बर्ताव की पद्धति मैं तुझे बताती हूं। पाण्डवों के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुष का चिन्तन मै कभी नहीं करती। उन्हें निरंतर सन्तुष्ट रखती हूँ। घर में स्वच्छता, अतिथि सत्कार, कुलधर्म, कुलाचार इन सब बातों के योग्य होने पर मेरा ध्यान सदैव रहता है। घर में नौकरों के होते हुए भी मै स्वयं कुन्ती की सेवा करती हूं। सभी परिश्रमी के खाने पीने की व्यवस्था योग्य काल में मैं ही करती हूँ। किसी पदार्थ का नाश होने नहीं देती। नित्य ही हंसमुख रह कर सब के साथ प्रेम से व्यवहार करती हूं। इन सब बातों से पाण्डव मुझे वश हुये हैं। तू भी इसी तरह आचरण कर जिसमें तू भी श्रीकृष्ण को तेरे वश, में रहेंगे। (उपकथा 6) मुद्गलोपाख्यान : मुद्गल नामक एक तपस्वी ऋषि अपने कुटुम्ब के साथ अरण्य में रहते थे। देव, पितर और अतिथियों को संतुष्ट कर जो भाग बचेगा उसी पर अपना उदरनिर्वाह करने का उनका नियम था। उनकी सत्त्वपरीक्षा लेने के लिये दुर्वास ऋषि वहां अतिथि बन कर आये और मुद्गल ऋषि ने सिद्ध किया हुआ अन्न खा कर चले गये। फिर अन्न पकने के बाद सब अन्न खा कर चले जाना यही काम दुर्वास ऋषि ने जारी रखा। मुद्गल ऋषि को अनशन करना पड़ा। किन्तु प्रत्येक समय उन्होंने अतिथि को श्रद्धा के साथ संतोषित करने का उपक्रम नहीं छोड़ा। अन्त में दुर्वास ऋषि उन पर प्रसन्न हुए। इतने में ही देवदूत विमान से वहां आया और मुद्गल ऋषि को कहने लगा, "आपको आपके पुण्य के कारण स्वर्गप्राप्ति हो गयी है। आप विमान में बैठ कर स्वर्ग चलिये।" मुद्गल ऋषि ने उससे स्वर्ग के गुणदोषों की पृच्छा की। उस पर देवदूत ने कहा, “स्वर्ग में सभी सुखों की समृद्धि है। किन्तु दोष यह है कि, स्वर्ग में अपने से अधिक पुण्यवान लोगों संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 99 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy