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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "शूद्रकमलाकर" में शूद्रों के धार्मिक कर्तव्यों का तथा "विवादतांडव" में पैतृक सम्पत्ति के वितरण, दावे, प्रमाप, दण्ड के प्रकार आदि का विवेचन है। “निर्णयसिन्धु" तो न्यायालयों में आज भी प्रमाण ग्रंथ के रूप में माना जाता है। कमलाकर भट्ट (द्वितीय) - ज्योतिषशास्त्र के एक आचार्य । इन्होंने "सिद्धान्ततत्त्वविवेक" नामक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ज्योतिष शास्त्रीय ग्रंथ की रचना सं. 1580 में की है। इन्हें गोल और गणित दोनों का मर्मज्ञ बतलाया जाता है। ये प्रसिद्ध ज्योतिषी दिवाकर के भ्राता थे और इन्होंने अपने इन भ्राता से ही इस विषय का ज्ञान प्राप्त किया था। इन्होंने भास्कराचार्य के सिद्धान्त का अनेक स्थलों पर खंडन किया है और सौरपक्ष की श्रेष्ठता स्वीकार कर ब्रह्मपक्ष को अमान्य सिद्ध किया है। करमरकर, गजानन रामचन्द्र - इन्दौर के महाराज होलकर महाविद्यालय के प्राध्यापक। रचना-लोकमान्यालंकार। इसमें लोकमान्य तिलकजी का स्तवन है तथा अलंकारों के छात्रोपयुक्त उदाहरण भी हैं। करवीर्य - आयुर्वेद के आचार्य। सुश्रुत के समकालीन और धन्वंतरि के शिष्य। इन्होंने एक शल्यतंत्र विकसित किया था किंतु वह उपलब्ध नहीं। कर्णजयानन्द - मिथिलानरेश माधवसिंह (1776-1808 ई.) के समकालीन । "रुक्मांगद" नामक कीर्तनिया परम्परा के नाटक के रचयिता। कर्णप्पार्य - कर्नाटकवासी। गुरु कल्याणकीर्ति। गोपन राजा के पुत्र लक्ष्मीधर के आश्रित कवि। समय ई. 12 वीं शती। ग्रंथ-नेमिनाथ पुराण, वीरेशचरित और मालती-माधव। अनेक श्रेष्ठ कवियों द्वारा इनकी प्रशंसा हुई है। कर्णपूर - जन्म 1517 ई.। अलंकार शास्त्र के आचार्य एवं वैष्णव कवि। पिता-शिवानन्द सेन। बंगाल के कांचनपाडा के निवासी। महाप्रभु चैतन्य के शिष्य। इनके पिता ने उनकी आज्ञानुसार अपने पुत्र का नाम परमानन्ददास रखा। फिर महाप्रभु इन्हें पुरीदास कहने लगे। सात वर्ष की आयु में पुरीदास द्वारा रचित एक श्लोक के प्रथम दो पदों की प्रमुखता को ध्यान में रख कर, महाप्रभु ने उन्हें “कर्णपूर" कहना प्रारंभ किया। कृतियां-चैतन्यचन्द्रोदय (महानाटक) चैतन्यचरितामृत (महाकाव्य), गंगास्तव, वृत्तमाला, पारिजातहरण, आनन्दवृन्दावन (चम्पू), अलंकारकौस्तुभ (टीका ग्रंथ), कृष्णलीलोद्देशदीपिका, गौरगणोद्देशदीपिका, वर्णप्रकाशकोष, आर्याशतक (अप्राप्त) और चमत्कारचन्द्रिका (अप्राप्त) । “अलंकारकौस्तुभ' पर 3 टीकाएं मिलती हैं। कर्णश्रुत वासिष्ठ - वैदिक सूक्तद्रष्टा। इन्होंने सोम के स्तवन में 58 ऋचाओं वाले सूक्त की रचना की है जिसमें उपमा आदि अलंकारों का विपुल उपयोग किया गया है। सोम ने किस प्रकार निगुत नामक आर्यशत्रुओं को गहरी निद्रा में सुला कर उनका संहार किया इसका निरूपण भी प्रस्तुत किया गया है। कल्य लक्ष्मीनरसिंह - ई. 18 वीं शती। कौशिकगोत्री। पिता-अहोबल सुधी। उपास्य दैवत आंध्र में कुर्नूल जिले के अहोबल पर्वत पर प्रतिष्ठापित लक्ष्मीनरसिंह । कृतियां-जनकजानन्दन नामक पांच अंकी नाटक, कवि कौमुदी तथा विश्वदेशिकविजय। पिता की कृतियां-साहित्यमकरन्द तथा अलंकारचिन्तामणि । कल्याणकीर्ति - मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के भट्टारक ललितकीर्ति के शिष्य । कार्कल के मठाधीश। पट्टस्थान-पनसोगे (मैसूर) शिष्य- देवचंद्र। समय ई. 15 वीं शती। ग्रंथ-जिनयज्ञकलोदय, ज्ञानचन्द्राभ्युदय, जिनस्तुति, तत्त्वभेदाष्टक, सिद्धराशि, फणिकुमार-चरित और यशोधरचरित (1850 श्लोक)। कल्याणमल्ल - ई. 17 वीं शती। बरद्वान निवासी श्रेष्ठी। भरत मल्लिक के आश्रयदाता । कृति-मालती (मेघदूत पर टीका)। कल्याणमल्ल - रचना-अनंगरंग। (कामशास्त्रविषयक ग्रंथ) अवध नरेश लदाखान लोधी (अहमदखान का बेटा) को प्रसन्न करने हेतु रचित। कल्याणरक्षित - काल ई. 9 वीं शती। एक बौद्ध दार्शनिक । धर्मोत्तराचार्य के गुरु । आपने पांच ग्रंथों की रचना की। 1. सर्वज्ञसिद्धिकारिका, 2. बाह्यार्थसिद्धिकारिका, 3. श्रुतिपरीक्षा, 4. अन्यापोहविचारकारिका और 5. ईश्वरभंगकारिका। इन सभी ग्रंथों के केवल तिब्बती अनुवाद ही उपलक्ष हैं। कल्याणवर्मा - भारतीय ज्योतिष के एक प्रसिद्ध आचार्य । समय 578 ई., किन्तु आधुनिक युग के प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्री पं. सुधाकर द्विवेदी के अनुसार 500 ई.। इन्होंने "सारावली" नामक जातकशास्त्र की रचना की है जिसमें 42 अध्याय हैं। यह ग्रंथ वराहमिहिर रचित "बृहज्जातक" से भी आकार में बडा है। लेखक ने स्वीकार किया है कि इस ग्रंथ की रचना वराहमिहिर, यवन ज्योतिष व नरेन्द्रकृत "होराशास्त्र" के आधार पर हुई है और उनके मतों का सार संकलन किया गया है। भट्टोत्पल नामक ज्योतिष शास्त्री ने, अपनी बृहज्जातक टीका में, इनके श्लोकों को उदधृत किया है। इनकी "सारावली" में ढाई हजार से भी अधिक श्लोक हैं। “सारावली" का प्रकाशन निर्णय सागर प्रेस से हो चुका है। कल्हण - "राजतरंगिणी' नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य के रचयिता। काश्मीर के निवासी। आढ्यवंशीय ब्राह्मण कुल में जन्म। इन्होंने अपने संबंध में जो कुछ अंकित किया है, वही उनके जीवनवृत्त का आधार है। "राज तरंगिणी" की प्रत्येक तरंग की समाप्ति में "इति काश्मीरिक महामात्य श्रीचम्पकप्रभुसूनोः कल्हणस्य कृतौ राजतरङ्गिण्यां" यह वाक्य अंकित है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम चम्पक था और वे काश्मीर नरेश हर्ष के महामात्य थे। काश्मीर नरेश हर्ष का शासन काल 1089 से 1101 ई. तक था। चंपक के नाम का कल्हण ने अत्यंत आदर के साथ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 287 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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